अध्याय अगम निगम बोध का सारांश

कबीर सागर में 36वां अध्याय ‘‘अगम निगम बोध‘‘ पृष्ठ 1(1691) पर है। इस अध्याय में वेद-शास्त्रों का ज्ञान है तथा काल ब्रह्म के साधकों को होने वाली उपलब्धियों का वर्णन है। नौ नाथों, चैरासी (84) सिद्धों, अष्ट (8) सिद्धियों, चारों मुक्तियों, 24 अवतारों के नाम, काम तथा शंकराचार्यों के मार्ग तथा उनके द्वारा निर्मित चारों मठों तथा प्रथम मठाधीशों के नाम हैं।

आप जी को बार-बार याद दिला रहा हूँ कि कबीर सागर के अनमोल ज्ञान का अड़ंगा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिर भी परमात्मा ने सच्चाई की रक्षा की है। अपनी प्यारी आत्मा गरीबदास जी महाराज (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा) को सत्यलोक ले जाकर अपनी यथार्थ महिमा तथा यथार्थ अध्यात्म ज्ञान उनके हृदय में प्रवेश करके वापिस छोड़ा था जिन्होंने उस क्षति की पूर्ति की है जो काल द्वारा चलाए अन्य कबीर पंथियों ने कालवश वाणियों में काँट-छाँट तथा मिलावट की थी। एक बहुत पुराना कबीर सागर मिल गया, उससे भी सच्चाई प्रकट कर रहा हूँ। साथ-साथ वर्तमान कबीर सागर में की गई त्रुटियों को भी प्रमाण के साथ स्पष्ट कर रहा हूँ। यह सब परमेश्वर कबीर जी की दया से गुरू जी स्वामी रामदेवानंद जी के आशीर्वाद से संभव हो सका है। अगम निगम बोध पृष्ठ 1 (1691) से प्रारम्भ है।

अथ ब्रह्म और जगत उत्पत्ति चैपाई

यह गलत लिखा है। यह सही ऐसे है:-

अथ ब्रह्म और जगत की उत्पत्ति

वाणी:- आदि ब्रह्म अब वर्ण करेऊ। अहं शब्द सो चित धरेऊ।।
ताहि शब्द करि चित फुरि आया। चित दृढ़ता करि मन प्रकटाया।।

पृष्ठ 2 (1692) का सारांश:-

इस पृष्ठ पर लिखी वाणियों में त्रुटि की है, लिखा है:-

मन ते तन मात्र में पाँचों। मन स्वरूप ब्रह्म को बाँचो।।
मन ब्रह्म, ब्रह्मा मन सोई। जस संकल्प करे जस होई।।

स्पष्टीकरण:- वाणी में ब्रह्मा के स्थान पर ब्रह्म है, गलती से ब्रह्मा लिखा है। जैसे अनुराग सागर में प्रकृति देवी (दुर्गा जी) ने श्री विष्णु जी को बताया कि मन ही कर्ता है, मन ही ज्योति निरंजन है, मन ही ब्रह्म है। यहाँ मन को ब्रह्मा लिखना गलत है।

वेदों में लिखा है कि विराट परमात्मा यानि काल ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रीय, हाथों से वैश्य तथा पैरों से शुद्र उत्पन्न हुए। यही वर्णन अगम निगम बोध के पृष्ठ 2 (1692) पर है, परंतु वाणी में लिखा है कि ब्रह्मा मुख ब्राह्मण प्रकटाए। यह लिखने में गलती है। वास्तव में ब्रह्म से चारों की उत्पत्ति लिखी है। वेद में तो अन्य भी उत्पत्ति बताई है।

चार वर्ण तो स्वयंभू मनु ने बनाए थे जो ब्रह्मा की संतान है। पृष्ठ नं. 3 में चित्रगुप्त का वर्णन भी गलत लिखा है। वास्तव में चित्र अलग गुप्त अलग है जिसका वर्णन पूर्व के अध्यायों में भी कर दिया है। यहाँ पृष्ठ 3 (1693) पर इन दोनों को एक लिखा है, परंतु सत्य यह है कि ब्रह्म काल ऊपर आकर ही रहता है।

अथ चित्र-गुप्त की उत्पत्ति कथा वर्णन

ब्रह्मा चारों वरण बनाई। ताके मन पुनि चिंता आई।।
बिना लेखक जग काज न सरहै। लेखक गणक कर्म को करि है।।
यह विधि ब्रह्मा जो कीन विचारा। चित्र गुप्त प्रकट तेहि बारा।।
लीने कर लेखनि मसिदानी। प्रकटे चित्रगुप्त गुणखानी।।
ब्रह्मा की अस्तुत उच्चारे। सो धुनिसुनि बिधि पलक उघारे।।
ब्रह्मा की तब आज्ञा पाई। तपको चित्रगुप्त बन जाई।।
वारह वर्ष कीन तप गाढ़े। पुनि भे ब्रह्मा के सन्मुख ठाढे।।
तब ब्रह्मा निज सभा लगाये। सुरनर मुनि भूपति चलि आये।।
ऋषी सिसिरसा तहँ पगुधारा। निजकन्या वरहेतु बिचारा।।
कन्या चित्रगुप्त को व्याहा। महिप मन्वंतर पुनि अस चाहा।।
भूप मन्वंतर सूरज को पोता। ताहि सभा तिहि औसर होता।।
सोऊ अपनी पुत्री देऊ। दोऊ तिय चित्रगुप्त वर गहेऊ।।
पुत्र यउपो दोनों नारी। एकते आठ एकते चारी।।
माथुर गौड अरू कर्न भनीजै। वाल्मिीकि श्रीध्वजहि गनीजै।।
सकसैना श्रीवास्तव ऐसे। श्रेठाना श्रम सृक हैं तैसे।।

भावार्थ:- ऊपर लिखी वाणी में बताया है कि चित्र गुप्त का विवाह ऋषि सिश्रशा की बेटी से हुआ। फिर लिखा है कि सूरज ऋषि का पोता भूप मन्वन्तर नाम का था। उसने अपनी बेटी का विवाह चित्र गुप्त से किया था। वास्तव में ऋषि सिश्रशा की पुत्री से चित्र का विवाह हुआ था तथा मन्वन्तर की पुत्राी का विवाह गुप्त से हुआ था।

संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि:- ‘‘चित्र गुप्त दो लिखवा ठाढ़े‘‘

पृष्ठ 4 (1694) - 5 (1695)

इन पृष्ठों पर चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यासी) का वर्णन है तथा चारों वेदों के चार महावाक्यों का वर्णन है जो शंकराचार्यों की परंपरा में चलते हैं।

1) ऋग्वेद से लिया है ‘‘प्रज्ञानम् ब्रह्म‘‘
2) यजुर्वेद से लिया है ‘‘अहं ब्रह्म अस्मि‘‘
3) सामवेद से लिया है ‘‘तत्त्वमसि‘‘ = ‘‘तत् त्वम् असि‘‘
4) अथर्ववेद से लिया है ‘‘अयम् आत्मा ब्रह्म‘‘

चारों का अर्थ है कि मैं यानि जीव ही ब्रह्म (भगवान) हूँ। परमात्मा कबीर जी ने अगम निगम बोध इसलिए कहा है कि कोई यह न समझ बैठे कि कबीर जी को क्या ज्ञान था? वे परमेश्वर थे। संसार की दृष्टि में अशिक्षित थे। फिर भी विश्व के सर्व प्रचलित धर्म ग्रन्थों का संपूर्ण ज्ञान बताया है जिससे बुद्धिमान आसानी से समझ सकता है कि वे परमात्मा थे।

पृष्ठ 5-6 (1695 - 1696) पर छः शास्त्रों के नाम बताए हैं:-

1) न्याय शास्त्र:- गौतम ऋषि ने बनाया ऋग्वेद को पढ़कर।
2) मीमान्सा शास्त्र:- जैमीनि ऋषि ने बनाया यजुर्वेद को पढ़कर।
3) वेदान्त शास्त्र:- वेद ब्यास ने बनाया सामवेद को पढ़कर।
4) सांख्य शास्त्र:- कपिल मुनि ने बनाया अथर्ववेद को पढ़कर।
5) पंताजल शास्त्र:- पंताजलि ऋषि ने बनाया आयुर्वेद को पढ़कर।
6) वैशेषिक शास्त्र:- कणांद मुनि ने बनाया अर्थवेद को पढ़कर।

भावार्थ:- छः शास्त्र छः ऋषियों ने वेदों को पढ़कर अपनी बुद्धि अनुसार वेदों को निष्कर्ष निकालकर अपना-अपना अनुभव लिखा है। किसी का भी अनुभव एक-दूसरे से मेल नहीं करता। 

अगम निगम बोध पृष्ठ 7 (1697) का सारांश:-

चार उपवेद बताए हैं:-

1) आयुर्वेद 2) धनुर्वेद 3) गन्धर्ववेद 4) अर्थवेद।

1) आयुर्वेद:- इसकी रचना करने वाले ऋषि धन्वन्तरी तथा दो अश्वनी कुमार ऋषि हैं। (स्रत तथा नासत्य दो ऋषियों को अश्वनी कुमार कहते हैं। इनकी उत्पत्ति घोड़ी के मुख की ओर से हुई थी। ये सूर्य के पुत्र हैं। इसमें औषधि का ज्ञान है।

2) धनुर्वेद:- इसकी रचना ऋषि विश्वामित्र ने की है। आयुध यानि शस्त्रों का ज्ञान है।

3) गंधर्व वेद:- इसकी रचना श्री भरथरी जी ने की थी। इसमें नृत्य, सुर-ताल का ज्ञान है यानि नाचने-गाने का ज्ञान है।

4) अर्थ वेद:- इसकी रचना विश्वकर्मा जी ने की है। इसमें शिल्प का ज्ञान व धन उपार्जन का ज्ञान है।

चार उपवेद षट अंग का ज्ञान

1) शिक्षा सुत्र 2) कल्प सुत्र 3) व्याकरण 4) निरूक्तः

अगम निगम बोध पृष्ठ 8(1698) से 12(1702) तक इसी प्रकार का ज्ञान है जिसकी कबीर जी के उपासक को आवश्यकता नहीं है।

पृष्ठ 12 (1702) पर:-

कबीर परमेश्वर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि:-

कबीर, बेद मेरा भेद है, हम बेदन के माहीं। जौन बेद से मैं मिलूं, बेद जानते नाहीं।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि चारों वेद मेरी महिमा बता रहे हैं। वेदों में वर्णित भक्ति विधि अधूरी है। इसलिए इन चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) में वर्णित विधि से मैं नहीं मिल सकता। जिस सूक्ष्म वेद (सूक्ष्मज्ञान=तत्त्वज्ञान) में मेरे पाने की सम्पूर्ण विधि है, उसका ज्ञान चारों वेदों में नहीं है।

विष्णु जी के चैबीस (24) अवतारों का वर्णन है

पृष्ठ 13 (1703) पर:-

ब्रह्मा के छः अवतार लिखे हैं:-

1) गौतम 2) कणांद 3) व्यास ऋषि 4) जैमनी 5) मंडनमिश्र 6) मीमासंकहि 

शिव जी के ग्यारह रूद्रों के नाम बताए हैं:-

1) सर्प कपाली 2) त्रयंबक 3) कपि 4) मृग 5) व्याधि 6) बहुरूप 7) वृष 8) शम्भु 9) हरि 10) रैवत 11) बीरभद्र।

ब्रह्मा जी के दैहिक तथा मानस पुत्रों के नाम:-

सर्व प्रथम दो पुत्रों का जन्म श्री ब्रह्मा जी से हुआ:- 1) दक्ष 2) अत्री। इससे आगे शाखा चली हैं।

पृष्ठ 14 (1704) से 16 (1706) तक:-

चौदह (14) विष्णु के नाम, चौदह (14) इन्द्र के नाम, चौदह मनु के नाम, सप्त स्वर्ग के नाम

{भूः, भवः, स्वर्ग, महरलोक, जनलोक, तपलोक, सतलोक (नकली)}

सर्व पातालों के नाम:- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल व रसातल।

नौ धरों के नाम:-

1) भूः लोक (भूमि)

2) भुवर् लोक = भूवः लोक यानि जल तत्त्व से निर्मित स्थान जैसे बर्फ जम जाने के पश्चात् उसके ऊपर खेल का मैदान बनाकर शीतल देशों में बच्चे खेलते हैं।

3) स्वर = स्वः = स्वर्ग लोक जो अग्नि तत्त्व से निर्मित है। जैसे काष्ठ में अग्नि है, उससे जापान देश में भवन बनाए जाते हैं। जैसे प्लाईवुड पर चित्रकारी करके चमकाया जाता है। ऐसा स्वर्ग लोक है।

4) पितर लोक = यह वायु तत्त्व से निर्मित है। जैसे ट्यूब में हवा भरकर उससे सैंकड़ों टन सामान बड़े ट्रकों में भरकर ले जाया जाता है। ऐसे वायु को सिद्धि से रोककर उससे पितर लोक बना है।

5) शुन्य

6) अन्तर लोक यानि अन्तः लोक

7) महत लोक:- इसे सत्य लोक (नकली सत्यलोक) भी  कहते हैं।

8) लोका लोक = यह एक प्रर्वात पर निर्मित है।

9) निरंजन का (झांझरी) लोक। फिर बताया है कि निरंजन के शब्द से माया यानि काल जाल उत्पन्न हुआ। माया से महतत्त्व उत्पन्न हुआ। महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी, जल से भू यानि पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

सात द्वीपों के नाम:-

जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, क्रौंच द्वीप, कुशा द्वीप, शलमल्प द्वीप, पल्क्षो तथा पुष्कद्वीप।

अष्ट (8) वसुओं के नाम:-

1) द्रौंन 2) प्राणक 3) द्यौ 4) अर्क 5) अग्नि 6) दोषा 7) प्रमान 8) विभासू बसु।

चारों युगों की आयु:-

1) सत्ययुग = सतरह लाख अठाईस हजार वर्ष (1728000)
2) त्रेतायुग = बारह लाख छियानवे हजार वर्ष (1296000)
3) द्वापरयुग = आठ लाख चैंसठ हजार वर्ष (864000)
4) कलयुग = चार लाख बत्तीस हजार वर्ष (432000)

चारों युगों का कुल समय:- तिरालीस लाख बीस हजार वर्ष (4320000)।

चारों युगों के समय को एक महायुग यानि चतुर्युग कहते हैं।

कल्प की आयु:- एक हजार चतुर्युग = 14 मन्वन्तर।

एक मन्वन्तर की आयु:- 72 चतुर्युग।

इन्द्र का शासन काल:- एक मन्वन्तर = 72 चतुर्युग।

ब्रह्मा जी का एक दिन:- एक कल्प = एक हजार चतुर्युग। वैसे एक हजार आठ चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है, परंतु कहने में एक हजार चतुर्युग आता है। उदाहरण:- जैसे मनुष्यों के वर्ष में 365 1/4 ( दिन होते हैं, परंतु कहने में 365 दिन ही आते हैं।

ब्रह्मा जी की आयु

ब्रह्मा का दिन:- एक हजार चतुर्युग, रात्रि:- एक हजार चतुर्युग।

महीना:- 30 दिन-रात का। वर्ष:- 12 महीनों का।

ब्रह्मा जी की आयु:- 100 वर्ष की।

नोट:- इस अगम निगम बोध पृष्ठ 16 (1706) पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश जी की आयु का अधूरा ज्ञान और गलत ज्ञान लिखा है। कबीर पंथियों की अज्ञानता की करामात है। 

वास्तविक ज्ञान है कि:-

विष्णु की आयु:- 7 ब्रह्मा की मृत्यु के पश्चात् एक विष्णु की मृत्यु होती है।

शिव की आयु:- 7 विष्णु की मृत्यु के पश्चात् एक शिव की मृत्यु होती है।

अगम निगम बोध पृष्ठ 17(1707) से 33(1723) तक का सारांश:-

चैदह रत्नों के नाम, पाँच प्रकार की यज्ञ, कर्म उपासना, ज्ञान का वर्णन जो वेदान्ती करते हैं। कबीर जी के भक्त के लिए आवश्यक नहीं हैं।

चार खानियों (योनियों) की जानकारी

चार खानी के नाम:- श्वेतज, अण्डज, जेरज, पिंडज।

जीव शरीर धारण कैसे करता है

मृत्यु के उपरांत प्राणी धर्मराज के दरबार में जाता है। जिसको जो शरीर प्राप्त होना है, वहाँ से उसके कर्मानुसार भेज दिया जाता है। वह जीव अन्न या फल में प्रवेश कर जाता है। जब शरीरधारी उस अन्न या फल, मेवा, घास को खाता है, वह संस्कारी जीव उसी शरीरधारी के वीर्य में चला जाता है, वहाँ से मादा के गर्भ में दोनों (स्त्री-पुरूष) के वीर्य से शरीर का निर्माण होता है। समय आने पर बाहर आ जाता है। जो स्वर्ग का अधिकारी होता है, उसे स्वर्ग में देव शरीर प्राप्त होता है। जो नरक का भागी होता है, वह सूक्ष्म शरीर में नरक में चला जाता है। जो प्रेत-पितर का अधिकारी है, वह उन योनियों को प्राप्त करता है।

संप्रदाओं के नाम हैं

पृष्ठ 25 (1715) पर रामानुज की गुरू पीढ़ी का गलत वर्णन किया है। जिस समय यह कबीर सागर धनी धर्मदास द्वारा लिखा गया था (विक्रमी संवत् 1550 में), तब तक रामानन्द स्वामी तथा उसका शिष्य अनन्तानंद तक गद्दी चली थी। उसके पश्चात् रामानन्द स्वामी जी ने तो अपना भक्ति मार्ग ही बदल दिया था। वे तो कबीर पंथी हो गए थे। अनन्तानंद महिमा की भूख के कारण नहीं माना था। उससे आगे रामानुज परंपरा चलती रही है, परंतु विक्रमी संवत् 1550 के लेख में अनन्तानंद से आगे की गुरू पीढ़ी के नाम कैसे आ गए? इससे सिद्ध है कि काल के दूतों ने गड़बड़ी की है जिससे उनकी बुद्धि के विकास का भी पता चलता है। पृष्ठ 26 (1716) पर तो स्पष्ट कर दिया है कि विक्रमी संवत् 1913 तक की पीढ़ी लिखी है, गड़बड़ी स्पष्ट है।

शिव परंपरा, विष्णु परंपरा का वर्णन है

पृष्ठ 32 (1722) पर बावन द्वारों का वर्णन है जो गलत है।

पृष्ठ 33 (1723) से 39 (1729) तक:-

स्वामी रामानंद जी तथा परमेश्वर सत्य कबीर जी की कथा

परमेश्वर कबीर जी द्वारा स्वामी रामानंद जी को गुरू धारण करने का वर्णन है। अगम निगम बोध अध्याय में वर्णन गलत है। यथार्थ प्रकरण पढ़ें कबीर चरित्र बोध के सारांश में पृष्ठ 525 से 539 तक।

(यह शब्द अगम निगम बोध के पृष्ठ 34 पर लिखा है।)

गुरू रामानंद जी समझ पकड़ियो मोरी बाहीं।। जो बालक रून झुनियां खेलत सो बालक हम नाहीं।।
हम तो लेना सत का सौद हम ना पाखण्ड पूजा चाहीं।। बांह पकड़ो तो दृढ़ का पकड़ बहुर छुट न जाई।।
जो माता से जन्मा वह नहीं इष्ट हमारा।। राम-कृष्ण मरै विष्णु साथै जामण हारा।।
तीन गुण हैं तीनों देवता, निरंजन चैथा कहिए। अविनाशी प्रभु इस सब से न्यारा, मोकूं वह चाहिए।।
पांच तत्त्व की देह ना मेरी, ना कोई माता जाया। जीव उदारन तुम को तारन, सीधा जग में आया।।
राम-राम और ओम् नाम यह सब काल कमाई। सतनाम दो मोरे सतगुरू तब काल जाल छुटाई।।
सतनाम बिन जन्में-मरें परम शान्ति नाहीं। सनातन धाम मिले न कबहु, भावें कोटि समाधि लाई।।
सार शब्द सरजीवन कहिए, सब मन्त्रान का सरदारा। कह कबीर सुनो गुरू जी या विधि उतरें पारा।।

शब्द

(यह शब्द अगम निगम बोध के पृष्ठ 38 पर लिखा है।)

मेरा नाम कबीरा हूँ जगत गुरू जाहिरा।(टेक)
तीन लोक में यश है मेरा, त्रिकुटी है अस्थाना। पाँच-तीन हम ही ने किन्हें, जातें रचा जिहाना।।
गगन मण्डल में बासा मेरा, नौवें कमल प्रमाना। ब्रह्म बीज हम ही से आया, बनी जो मूर्ति नाना।।
संखो लहर मेहर की उपजैं, बाजै अनहद बाजा। गुप्त भेद वाही को देंगे, शरण हमरी आजा।।
भव बंधन से लेऊँ छुड़ाई, निर्मल करूं शरीरा। सुर नर मुनि कोई भेद न पावै, पावै संत गंभीरा।।
बेद-कतेब में भेद ना पूरा, काल जाल जंजाला। कह कबीर सुनो गुरू रामानन्द, अमर ज्ञान उजाला।।

अगम निगम बोध पृष्ठ 39 (1729) का सारांश:-

पृष्ठ 39 (1729) से 44 (1734) तक गोरखनाथ से गोष्ठी का वर्णन है।

साहेब कबीर व गोरख नाथ की गोष्ठी

एक समय गोरखनाथ (सिद्ध महात्मा) काशी (बनारस) में स्वामी रामानन्द जी (जो साहेब कबीर के गुरु जी थे) से शास्त्रार्थ यानि गोष्ठी करने के लिए आए। जब ज्ञान गोष्ठी के लिए एकत्रित हुए तब कबीर साहेब भी अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी रामानन्द जी के साथ पहुँचे थे। एक उच्च आसन पर रामानन्द जी बैठे उनके चरणों में बालक रूप में कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) बैठे थे। गोरख नाथ जी भी एक उच्च आसन पर बैठे थे तथा अपना त्रिशूल अपने आसन के पास ही जमीन में गाड़ रखा था।गोरख नाथ जी ने कहा कि रामानन्द मेरे से चर्चा करो। उसी समय बालक रूप (पूर्ण ब्रह्म) कबीर जी ने कहा - नाथ जी पहले मेरे से चर्चा करें। पीछे मेरे गुरुदेव जी से बात करना।

योगी गोरखनाथ प्रतापी, तासो तेज पृथ्वी कांपी। काशी नगर में सो पग परहीं, रामानन्द से चर्चा करहीं।
चर्चा में गोरख जय पावै, कंठी तोरै तिलक छुड़ावै। सत्य कबीर शिष्य जो भयऊ, यह वृतांत सो सुनि लयऊ।
गोरखनाथ के डर के मारे, वैरागी नहीं भेष सवारे। तब कबीर आज्ञा अनुसारा, वैष्णव सकल स्वरूप संवारा।
सो सुधि गोरखनाथ जो पायौ, काशी नगर शीघ्र चल आयौ। रामानन्द को खबर पठाई, चर्चा करो मेरे संग आई।
रामानन्द की पहली पौरी, सत्य कबीर बैठे तीस ठौरी। कह कबीर सुन गोरखनाथा, चर्चा करो हमारे साथा।
प्रथम चर्चा करो संग मेरे, पीछे मेरे गुरु को टेरे। बालक रूप कबीर निहारी, तब गोरख ताहि वचन उचारी।

इस पर गोरख नाथ जी ने कहा तू बालक कबीर जी कब से योगी बन गया। कल जन्मा अर्थात् छोटी आयु का बच्चा और चर्चा मेरे (गोरख नाथ के) साथ। तेरी क्या आयु है? और कब वैरागी (संत) बन गए?

गोरखनाथ जी का प्रश्न:-

कबके भए वैरागी कबीर जी, कबसे भए वैरागी।

कबीर जी का उत्तर:-

नाथ जी जब से भए वैरागी मेरी, आदि अंत सुधि लागी।।
धूंधूकार आदि को मेला, नहीं गुरु नहीं था चेला। जब का तो हम योग उपासा, तब का फिरूं अकेला।।
धरती नहीं जद की टोपी दीना, ब्रह्मा नहीं जद का टीका। शिव शंकर से योगी, न थे जदका झोली शिका।।
द्वापर को हम करी फावड़ी, त्रेता को हम दंडा। सतयुग मेरी फिरी दुहाई, कलियुग फिरौ नो खण्डा।।
गुरु के वचन साधु की संगत, अजर अमर घर पाया। कहैं कबीर सुनो हो गोरख, मैं सब को तत्त्व लखाया।।

साहेब कबीर जी ने गोरख नाथ जी को बताया हैं कि मैं कब से वैरागी बना। साहेब कबीर ने उस समय वैष्णों संतों जैसा वेष बना रखा था। जैसा श्री रामानन्द जी ने बाणा (वेष) बना रखा था। मस्तिक में चन्दन का टीका, टोपी व झोली सिक्का एक फावड़ी (जो भजन करने के लिए लकड़ी की अंग्रेजी के अक्षर ‘‘ ज्‘‘ के आकार की होती है) तथा एक डण्डा (लकड़ी का लट्ठा) साथ लिए हुए थे। ऊपर के शब्द में कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जब कोई सृष्टि (काल सृष्टि) नहीं थी तथा न सतलोक सृष्टि थी तब मैं (कबीर) अनामी लोक में था और कोई नहीं था। चूंकि साहेब कबीर ने ही सतलोक सृष्टि शब्द से रची तथा फिर काल (ज्योति निरंजन-ब्रह्म) की सृष्टि भी सतपुरुष ने रची। जब मैं अकेला रहता था जब धरती (पृथ्वी) भी नहीं थी तब से मेरी टोपी जानो। ब्रह्मा जो गोरखनाथ तथा उनके गुरु मच्छन्दर नाथ आदि सर्व प्राणियों के शरीर बनाने वाला पैदा भी नहीं हुआ था। तब से मैंने टीका लगा रखा है अर्थात् मैं (कबीर) तब से सतपुरुष आकार रूप मैं ही हूँ।

सतयुग-त्रेतायुग-द्वापर तथा कलियुग ये चार युग तो मेरे सामने असंख्यों जा लिए। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हमने सतगुरु वचन में रह कर अजर-अमर घर (सतलोक) पाया। इसलिए सर्व प्राणियों को तत्त्व (वास्तविक ज्ञान) बताया है कि पूर्ण गुरु से उपदेश ले कर आजीवन गुरु वचन में चलते हुए पूर्ण परमात्मा का ध्यान सुमरण करके उसी अजर-अमर सतलोक में जा कर जन्म-मरण रूपी अति दुःखमयी संकट से बच सकते हो।

इस बात को सुनकर गोरखनाथ जी ने पूछा हैं कि आपकी आयु तो बहुत छोटी है अर्थात् आप लगते तो हो बालक से।

जो बूझे सोई बावरा, क्या है उम्र हमारी। असंख युग प्रलय गई, तब का ब्रह्मचारी।।टेक।।
कोटि निरंजन हो गए, परलोक सिधारी। हम तो सदा महबूब हैं, स्वयं ब्रह्मचारी।।
अरबों तो ब्रह्मा गए, उनन्चास कोटि कन्हैया। सात कोटि शम्भू गए, मोर एक नहीं पलैया।।
कोटिन नारद हो गए, मुहम्मद से चारी। देवतन की गिनती नहीं है, क्या सृष्टि विचारी।।
नहीं बुढ़ा नहीं बालक, नाहीं कोई भाट भिखारी। कहैं कबीर सुन हो गोरख, यह है उम्र हमारी।।

श्री गोरखनाथ सिद्ध को सतगुरु कबीर साहेब अपनी आयु का विवरण देते हैं।

असंख युग प्रलय में गए। तब का मैं वर्तमान हूँ अर्थात् अमर हूँ। करोड़ों ब्रह्म (क्षर पुरूष अर्थात् काल) भगवान मृत्यु को
प्राप्त होकर पुनर्जन्म प्राप्त कर चुके हैं।

एक ब्रह्मा की आयु 100 (सौ) वर्ष की है।

ब्रह्मा का एक दिन = 1000 (एक हजार) चतुर्युग तथा इतनी ही रात्रि।

दिन-रात = 2000 (दो हजार) चतुर्युग।

{नोट - ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 इन्द्रों का शासन काल समाप्त हो जाता है। एक इन्द्र का शासन काल बहतर चतुर्युग का होता है। इसलिए वास्तव में ब्रह्मा जी का एक दिन (72 गुणा 14 =) 1008 चतुर्युग का होता है तथा इतनी ही रात्रि, परन्तु इसको एक हजार चतुर्युग ही मान कर चलते हैं।}

महीना = 30 गुणा 2000 = 60000 (साठ हजार) चतुर्युग।

वर्ष = 12 गुणा 60000 = 720000 (सात लाख बीस हजार) चतुर्युग की।

ब्रह्मा जी की आयु -
720000 गुणा 100 = 72000000 (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग की।

ब्रह्मा से सात गुणा विष्णु जी की आयु -
72000000 गुणा 7 = 504000000 (पचास करोड़ चालीस लाख) चतुर्युग की विष्णु की आयु है।

वष्णु से सात गुणा शिव जी की आयु -
504000000 गुणा 7 = 3528000000 (तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख) चतुर्युग की शिव की आयु हुई।

ऐसी आयु वाले सत्तर हजार शिव भी मर जाते हैं तब सदाशिव रूप में विराजमान एक ज्योति निरंजन (ब्रह्म) मरता है। पूर्ण परमात्मा के द्वारा पूर्व निर्धारित किए समय पर एक ब्रह्मण्ड में महाप्रलय होती है। यह (सत्तर हजार शिव की मृत्यु अर्थात् एक सदाशिव/ज्योति निरंजन की मृत्यु होती है) एक युग होता है परब्रह्म का। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्रि होती है तीस दिन-रात का एक महिना तथा बारह महिनों का परब्रह्म का एक वर्ष हुआ तथा सौ वर्ष की परब्रह्म की आयु है। परब्रह्म की भी मृत्यु होती है। ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन की मृत्यु परब्रह्म के एक दिन के पश्चात् होती है परब्रह्म के सौ वर्ष पूरे होने के पश्चात् एक शंख बजता है सर्व ब्रह्मण्ड नष्ट हो जाते हैं। केवल सतलोक व ऊपर तीनों लोक ही शेष रहते हैं। इस प्रकार कबीर परमात्मा ने कहा है कि करोड़ों ज्योति निरंजन मर लिए मेरी एक पल भी आयु कम नहीं हुई है अर्थात् मैं वास्तव में अमर पुरुष हूं। अन्य भगवान जिसका तुम आश्रय ले कर भक्ति कर रहे हो वे नाशवान हैं। फिर आप अमर कैसे हो सकते हो?

अरबों तो ब्रह्मा गए, 49 कोटि कन्हैया। सात कोटि शंभु गए, मोर एक नहीं पलैया।

यहाँ देखें अमर पुरुष कौन है? 343 करोड़ त्रिलोकिय ब्रह्मा मर जाते हैं, 49 करोड़ त्रिलोकिय विष्णु तथा 70 हजार त्रिलोकिय शिव मर जाते हैं तब 21 ब्रह्माण्ड का विनाश होता है एक ज्योति निरंजन (काल-ब्रह्म) ब्रह्म काल रूप में मरता है। जिसे गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16 में क्षर -पुरूष (नाशवान) भगवान कहा है इसे ब्रह्म भी कहते हैं तथा इसी श्लोक में जिसे अक्षर पुरूष (अविनाशी) कहा है वह परब्रह्म है जिसे अक्षर पुरुष भी कहते हैं। अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म भी नष्ट होता है। यह काल भी करोड़ों समाप्त हो जाएंगे। तब सर्व अण्डों अर्थात् ब्रह्मण्डों का नाश होगा। केवल सतलोक व उससे ऊपर के लोक शेष रहेगें। अचिंत, सत्यपुरूष के आदेश से सृष्टि रचेगा। यही क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष की सृष्टि पुनः प्रारम्भ होगी।

जो गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 17 में कहा है कि वह उत्तम पुरुष (पूर्ण परमात्मा) तो कोई और ही है जिसे अविनाशी परमात्मा नाम से जाना जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सतपुरुष स्वयं कबीर साहेब है। केवल सतपुरुष अजर-अमर परमात्मा है तथा उसी का सतलोक (सतधाम) अमर है जिसे अमर लोक भी कहते हैं। वहाँ की भक्ति करके भक्त आत्मा पूर्ण मुक्त होती है। जिसका कभी मरण नहीं होता। कबीर साहेब ने कहा कि यह उपलब्धि सत्यनाम के जाप से प्राप्त होती है जो उसके मर्म भेदी गुरु से मिले तथा उसके बाद सारनाम मिले तथा साधक आजीवन मर्यादा में रहकर तीनों मन्त्रों (ओम् तथा तत् जो सांकेतिक है तथा सत् भी सांकेतिक है) का जाप करे तब सतलोक में वास तथा सतपुरुष प्राप्ति होती है। करोंड़ों नारद तथा मुहम्मद जैसी पाक (पवित्र) आत्मा भी आकर (जन्म कर) जा (मर) चुके हैं, देवताओं की तो गिनती नहीं। मानव शरीर धारी प्राणियों तथा जीवों का तो हिसाब क्या लगाया जा सकता है? मैं (कबीर साहेब) न बूढ़ा न बालक, मैं तो जवान रूप में रहता हूँ जो ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। यह तो मैं लीलामई शरीर में आपके समक्ष हूँ। कहै कबीर सुनों जी गोरख, मेरी आयु (उम्र) यह है जो आपको ऊपर बताई है।

यह सुन कर श्री गोरखनाथ जी जमीन में गड़े लगभग 7 फूट ऊँचें त्रिशूल के ऊपर के भाग पर अपनी सिद्धि शक्ति से उड़ कर बैठ गए और कहा कि यदि आप इतने महान् हो तो मेरे बराबर में (जमीन से लगभग सात फूट) ऊँचा उठ कर बातें करो। यह सुन कर कबीर साहेब बोले नाथ जी! ज्ञान गोष्टी के लिए आए हैं न कि नाटक बाजी करने के लिए। आप नीचे आएं तथा सर्व भक्त समाज के सामने यथार्थ भक्ति संदेश दें।

श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपके पास कोई शक्ति नहीं है। आप तथा आपके गुरुजी दुनियाँ को गुमराह कर रहे हो। आज तुम्हारी पोल खुलेगी। ऐसे हो तो आओ बराबर। तब कबीर साहेब के बार-2 प्रार्थना करने पर भी नाथ जी बाज नहीं आए तो साहेब कबीर ने अपनी पराशक्ति (पूर्ण सिद्धि) का प्रदर्शन किया। साहेब कबीर की जेब में एक कच्चे धागे की रील (कुकड़ी) थी जिसमें लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट लम्बा धागा लिपटा (सिमटा) हुआ था, को निकाला और धागे का एक सिरा (आखिरी छौर) पकड़ा और आकाश में फैंक दिया। वह सारा धागा उस बंडल (कुकड़ी) से उधड़ कर सीधा खड़ा हो गया। साहेब कबीर जमीन से आकाश में उड़े तथा लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट सीधे खड़े धागे के ऊपर वाले सिरे पर बैठ कर कहा कि आओ नाथ जी! बराबर में बैठकर चर्चा करें। गोरखनाथ जी ने ऊपर उड़ने की कोशिश की लेकिन उल्टा जमीन पर टिक गए।

पूर्ण परमात्मा (पूर्णब्रह्म) के सामने सिद्धियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। जब गोरख नाथ जी की कोई कोशिश सफल नहीं हुई, तब जान गए कि यह कोई मामूली भक्त या संत नहीं है। जरूर कोई अवतार (ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से) है। तब साहेब कबीर से कहा कि हे परम पुरुष! कृप्या नीचे आएँ और अपने दास पर दया करके अपना परिचय दें। आप कौन शक्ति हो? किस लोक से आना हुआ है? तब कबीर साहेब नीचे आए और कहा कि -

शब्द (यह शब्द अगम निगम बोध के पृष्ठ 41 पर है।)

अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया। काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी। जुलहा को सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी।।
पांच तत्त्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा। सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधरदीप (सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा। ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म), भी धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी। तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।

साहेब कबीर ने कहा कि हे अवधूत गोरखनाथ जी मैं तो अविगत स्थान (जिसकी गति / भेद कोई नहीं जानता उस सतलोक) से आया हूँ। मैं तो स्वयं शक्ति से बालक रूप बना कर काशी (बनारस) में एक लहर तारा तालाब में कमल के फूल पर प्रकट हुआ हूँ। वहाँ पर नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पति को मिला जो मुझे अपने घर ले आया। मेरे कोई मात-पिता नहीं हैं। न ही कोई घर दासी (पत्नी) है और जो उस परमात्मा का वास्तविक नाम है, वही कबीर नाम मेरा है। आपका ज्योति स्वरूप जिसे आप अलख निरंजन (निराकार भगवान) कहते हो वह ब्रह्म भी मेरा ही जाप करता है। मैं सतनाम का जाप करने वाले साधक को प्राप्त होता हूँ अर्थात् वहीं मेरे विषय में सही जानता है। हाड-चाम तथा लहु रक्त से बना मेरा शरीर नहीं है। कबीर साहेब सतनाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि मेरे मूल स्थान (सतलोक) में सतनाम के आधार से जाया जाता है। अन्य साधकों को संकेत करते हुए प्रभु कबीर (कविर्देव) जी कह रहे हैं कि मैं उसी का जाप करता रहता हूँ। इसी मन्त्रा (सतनाम) से सतलोक जाने योग्य होकर फिर सारनाम प्राप्ति करके जन्म-मरण से पूर्ण छुटकारा मिलता है। यह तारन तरन पद (पूजा विधि) मैंने (कबीर साहेब अविनाशी भगवान ने) आपको बताई है। इसे कोई नहीं जानता। गोरख नाथ जी को बताया कि हे पुण्य आत्मा! आप काल क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) के जाल में ही हो। न जाने कितनी बार आपके जन्म हो चुके हैं। कभी चैरासी लाख योनियों में कष्ट पाया। आपकी चारों युगों की भक्ति को काल अब (कलियुग में) नष्ट कर देता यदि आप मेरी शरण में नहीं आते। यह काल इक्कीस ब्रह्मण्डों का मालिक है। इसको शाप लगा है कि एक लाख मानव शरीर धारी (देव व ऋषि भी) जीव प्रतिदिन खायेगा तथा सवा लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को नित्य उत्पन्न करेगा। इस प्रकार प्रतिदिन पच्चीस हजार बढ़ रहे हैं। उनको ठिकाने लगाए रखने के लिए तथा कर्म भुगताने के लिए अपना कानून बना कर चैरासी लाख योनियाँ बना रखी हैं। इन्हीं 25 हजार अधिक उत्पन्न जीवों के अन्य प्राणियों के शरीर में प्रवेश करता है। जैसे खून में जीवाणु, वायु में जीवाणु आदि-2। इसकी पत्नी आदि माया (प्रकृति देवी) है। इसी से काल (ब्रह्म/अलख निरंजन) ने (पत्नी-पति के संयोग से) तीन पुत्र ब्रह्मा-विष्णु-शिव उत्पन्न किए। इन तीनों को अपने सहयोगी बना कर ब्रह्मा को शरीर बनाने का, विष्णु को पालन-पोषण का और शिव को संहार करने का कार्य दे रखा है। इनसे प्रथम तप करवाता है फिर सिद्धियाँ भर देता है जिसके आधार पर इनसे अपना उल्लू सीधा करता है और अंत में इन्हें (जब ये शक्ति रहित हो जाते हैं) भी मार कर तप्त शिला पर भून कर खाता है तथा अन्य पुत्र पूर्व ही उत्पन्न करके अचेत रखता है उनको सचेत करके अपना उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्य करता है। ऐसे अपने काल लोक को चला रहा है। इन सबसे ऊपर पूर्ण परमात्मा है। उसका ही अवतार मुझ (कबीर परमेश्वर) को जान।

गोरख नाथ के मन में विश्वास हो गया कि कोई शक्ति है जो कुल का मालिक है। गोरखनाथ ने कहा कि मेरी एक शक्ति और देखो। यह कह कर गंगा की ओर चल पड़ा। सर्व दर्शकों की भीड़ भी साथ ही चली। लगभग 500 फुट पर गंगा नदी थी। उसमंे जाकर छलांग लगाते हुए कहा कि मुझे ढूंढ दो। फिर मैं (गोरखनाथ) आपका शिष्य बन जाऊँगा। गोरखनाथ मछली बन गए। साहेब कबीर ने उसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर सबके सामने गोरखनाथ बना दिया। तब गोरखनाथ जी ने परमेश्वर कबीर जी को पूर्ण परमात्मा स्वीकार किया और शिष्य बने। परमेश्वर कबीर जी से सतनाम ले कर भक्ति की तथा सिद्धियाँ प्राप्त करने वाली साधना त्याग दी।

गीता जी के अध्याय 14 के श्लोक 26,27 का भाव है कि साधक अव्याभिचारिणी भक्ति अर्थात् पूर्ण आश्रित मुझ (काल-ब्रह्म) पर हो कर (अन्य देवी-देवताओं तथा माता, रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव आदि की पूजा त्याग कर) केवल मेरी भक्ति करता है तथा एक मेरे मन्त्रा ऊँ का जाप करता है वह उपासक उस परमात्मा को पाने योग्य हो जाता है और आगे की साधना करके उस परमानन्द के परम सुख को भी मेरे माध्यम से प्राप्त करता है।

जैसे कोई विधार्थी मैट्रिक, बी.ए., एम.ए. करके किसी कोर्स में प्रवेश ले कर सर्विस प्राप्त करके रोजी प्राप्त करके सुखी होता है तो उसके लिए उसने मैट्रिक की शिक्षा प्राप्त की जिसके बाद कोर्स (ट्रेनिंग) में प्रवेश किया। उसको मैट्रिक की शिक्षा प्रतिष्ठा (अवस्था) अर्थात् सहयोगी हुआ। सर्विस प्रदान कत्र्ता नहीं हुआ। ठीक इसी प्रकार काल भगवान (ब्रह्म) कह रहा है कि उस अविनाशी परमात्मा के अमरत्व का और नित्य रहने वाले स्वभाव का तथा धर्म का और अखण्ड स्थाई रहने के आनन्द का सहयोगी मैं (ब्रह्म) हूँ। इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय 18 के श्लोक 66 में कहा है कि सर्व मेरे सत्र की साधनाओं (ओंम् एक अक्षर के जाप तथा पांचों यज्ञों की कमाई) को मुझमें त्याग कर एक (पूर्णब्रह्म) की शरण में जा तब तेरे सर्व पाप क्षमा करवा दूंगा। जिन भक्त आत्माओं ने काल (ब्रह्म) के ऊँ मन्त्र का जाप अनन्य मन से किया। उनको कबीर भगवान ने आगे की उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति प्रदान करके काल लोक से पार किया। जैसे नामदेव नामक परम भक्त केवल एक नाम ऊँ का जाप करते थे। उससे उनको बहुत सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थी फिर भी मुक्ति नहीं थी। फिर कबीर साहेब श्री नामदेव जी को मिले तथा सतलोक व सतपुरुष का ज्ञान करवाया। सोहं मन्त्र दिया जो परब्रह्म का जाप है। फिर सार शब्द दिया जो पूर्णब्रह्म का जाप है। जब नामदेव जी मुक्त हुए।

ऐसे ही गोरखनाथ जी ने भी एक मन्त्रा अलख निरंजन का जाप तथा चांचरी मुद्रा की साधना की। तब साहेब कबीर ने उन्हें ऊँ तथा सोहं मन्त्रा दिया तथा काल जाल से बाहर किया।

मलूक दास जी को परमेश्वर कबीर जी संत रूप में मिले थे। उनको सत्यलोक ले जाकर वापिस छोड़ा था। अपनी महिमा से परिचित करवाया। उसके पश्चात् संत मलूक दास जी ने कबीर जी की महिमा का गुणगान किया।

अगम निगम बोध के पृष्ठ 45 (1735) पर मलूक दास जी का शब्द है:-

जपो रे मन साहेब नाम कबीर। (टेक)

एक समय गुरू बंशी बजाई कालिंद्री के तीर। सुरनर मुनि सब चकित भये, रूक गया यमुना नीर।।
काशी तज गुरू मगहर गए, दोऊ दीन के पीर।।
कोई गाड़ै कोई अग्नि जलावै, नेक न धरते धीर। चार दाग से सतगुरू न्यारा। अजरो-अमर शरीर।।
जगन्नाथ का मंदिर बचाया, ऐसे गहर गम्भीर। दास मलूक सलूक कहत है, खोजो खसम कबीर।।

संत दादू दास जी को कबीर जी ने शरण में लिया

श्री दादू जी को सात वर्ष की आयु में जिन्दा बाबा जी के स्वरूप में परमेश्वर जी मिले थे। उस समय कई अन्य हमउम्र बच्चे भी खेल रहे थे। परमेश्वर कबीर जी ने अपने कमण्डल (लोटे) से कुछ जल पान के पत्ते को कटोरे की तरह बनाकर पिलाया तथा प्रथम नाम देकर सत्यलोक ले गए। दादू जी तीन दिन-रात अचेत (ब्वउं में) रहे। फिर सचेत हुए तथा कबीर जी का गुणगान किया। जो बच्चे श्री दादू जी के साथ खेल रहे थे। उन्होंने गाँव में आकर बताया कि एक बूढ़ा बाबा आया था। उसने जादू-जंत्र का जल दादू को पिलाया था। परंतु दादू जी ने बताया था किः-

जिन मोकूं निज नाम दिया, सोई सतगुरू हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सिरजनहार।।
दादू नाम कबीर की, जे कोई लेवे ओट। ताको कबहू लागै नहीं, काल वज्र की चोट।।
केहरी नाम कबीर है, विषम काल गजराज। दादू भजन प्रताप से, भागै सुनत आवाज।।
अब हो तेरी सब मिटे, जन्म-मरण की पीर। श्वांस-उश्वांस सुमरले, दादू नाम कबीर।।

स्पष्टीकरण:- संत मलूक दास जी तथा संत दादू दास जी को परमेश्वर संत गरीबदास जी की तरह सतलोक जाने के पश्चात् मिले थे। यह प्रकरण कबीर सागर में नहीं था, बाद में लिखा गया है।

अगम निगम बोध पृष्ठ 44(1734) पर नानक जी का शब्द है:-

वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है

वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है।(टेक)
पूरे गुरू की मैं बली जाऊँ जाका सकल जहूरा है।
अधर दुलीचे परे गुरूवन के, शिव ब्रह्मा जहाँ शूरा है।
श्वेत ध्वजा फरकत गुरूवन की, बाजत अनहद तूरा है।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै, हरदम हाल हजूरा है।
नाम कबीर जपै बड़भागी, नानक चरण को धूरा है।

अगम निगम बोध पृष्ठ 46 पर प्रमाण दिया है कि महादेव जी के पूज्य इष्ट देव कबीर परमेश्वर जी हैं।

यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय अगम निगम बोध के पृष्ठ 46 की है। इसमें किसी अन्य ने यह महादेव-पार्वती का प्रकरण लिखा है। यह शुद्ध संस्कृत नहीं है। फिर भी सच्चाई यह है कि पार्वती ने पूछा कि आप जिस कबीर की महिमा बताते हो, वह कौन है? श्री शिव जी ने गोलमोल उत्तर दिया है। क से कर्ता, ब से ब्रह्म तथा र से सबमें रमण करने के कारण परमात्मा कबीर कहलाता है।

वास्तव में परमेश्वर कबीर जी तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) को उनके लोकों में जाकर मिले थे। उनको शिष्य बनाया था। संत गरीबदास जी ने इसको बहुत अच्छा सत्य वर्णन किया है, वह इस प्रकार हैः-

आदि अन्त हमरे नहीं, नहीं मध्य मिलावा मूल। ब्रह्मा ज्ञान सुनाईया, धरि पिण्डा अस्थूल।।
श्वेत भूमि को हम गए, जहाँ विष्णु विश्वम्भर नाथ। हरियं हिरा नाम दे, अष्ट कमल दल स्वांत।।
हम बैरागी ब्रह्म पद, सन्यासी महादेव। सोहं नाम दिया शंकर को, करे हमारी सेव।।

आप जी ने पढ़ा कि शिव जी ने कबीर जी को अपना प्रभु माना है।

उपरोक्त वर्णन में परमेश्वर कबीर जी ने काल ब्रह्म तथा उसके पुत्रों की पूजा का ज्ञान तथा लाभ-हानि बताई। परमेश्वर जी ने स्पष्ट किया है कि:-

कबीर, तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कबहु ना होवे मुक्ति।।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, माया और धर्मराया (काल) कहिए। इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, बानी हमरी लहिए।।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘अगम निगम बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

Sat Sahib