अध्याय जगजीवन बोध का सारांश

अध्याय ‘‘जगजीवन बोध’’ का सारांश

कबीर सागर में अध्याय ‘‘जगजीवन बोध‘‘ 10वां अध्याय पृष्ठ 21 पर है। इस अध्याय में चेतावनी का अजब वर्णन है। इसका यदि सारांश ही लिख दिया जाए तो थोड़ा ही है। परंतु इसके मूल पाठ को पढ़ने का आनन्द अलग ही है। आत्मा को झंझोड़कर रख देता है। पहले सारांश लिखता हूँ।

‘‘सारांश‘‘

जीव जब मानव शरीर प्राप्त करने के लिए माता के गर्भ में होता है, तब इसको छठे महीने चेतना आती है। वहाँ पर महाकष्ट भोगता है। ऊपर को पैर नीचे को सिर होता है। जेर लिपटी होती है। गंदा रक्त आसपास लगा होता है। माता जो खट्टा-मीठा खाती है, मिर्चयुक्त भोजन खाती है। उसकी जलन बच्चे के शरीर पर जख्म पर नमक की तरह कष्ट पैदा करती है। बच्चा रोता है, आवाज नहीं निकलती है। इसी कारण से घूमता है। संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी वाले) ने कहा है कि:-

‘‘शब्द‘‘

साहेब (प्रभु) से चित्त लाले रे मन गर्भ गुमानी।
नाभि कमल में नीर जमा तेरा दीन्हा महल बनाय।
नीचै जठराग्नि जलै थी, वहाँ तेरी करी सहाय।
नीचे शीश चरण ऊपर कूं, वो दिन याद कराय।
दाँत नहीं जब दूध दिया था, अमी महारस खाय।
बाहर आया भ्रम भुलाया, बाजे तूर सहनाय।
दाई आयी घूंटि प्याई, माता गोद खिलाय।
तूही तूही तो छोड़ दिया, अब चला अधम किस राहै।
द्वादश वरष खेलते बीते, फिर लिन्हा विवाह कराय।
तरूणी नारी से घरबारी, चाल्या मूल गँवाय।
कारे काग गए घर अपने, बैठे श्वेत बुगाय।
दाँत जाड़ तेरे उखड़ गए हैं, रसना गई ततुराय।
जो दिन आज सो काल नहीं आगे फिर धर्मराय।
नर से फिर तू पशुवा कीजै, दीजै बैल बनाय।
चार पहर जंगल में डोलै, तो नहीं उदर भराय।
कांदै जूवा जोतै कूवा, कोंदों का भुष खाय।
सिर पर सींग दिए मन बोरे, दूम से मच्छर उड़ाय।
फिर पीछे तू खर कीजैगा, कुरड़ी चरने जाय।
टूटी कमर पजावै चढ़ै, कागा माँस खिलाय।
सुखदेव ने चैरासी भुगती, कहाँ रंक कहाँ राय।
जै सतगुरू की संगत करते, सकल कर्म कटि जाय।
दास गरीब कबीर का चेरा, शब्दै शब्द समाय।

भावार्थ:- जब जीव माता के गर्भ में आता है तो महान कष्ट उठाता है। ऊपर को पैर नीचे को सिर होता है। उस समय यह परमात्मा को याद करता है, परंतु जन्म लेते ही काल के जाल में फँसकर परमात्मा से जो वायदा किया था कि आपका भजन करूँगा, कभी नहीं भूलूंगा, मुझे इस नरक से निकाल दो, वह भूल जाता है।

उस समर्थ की रीझ छुपाई, कुल कुटम से राता। गर्भ के अंदर वचन करे थे, कहाँ गई वो बाता।।

भावार्थ:- जब गर्भ में कष्ट था। परमात्मा से पुकार की, भक्ति का वायदा किया। परमेश्वर ने प्रसन्न होकर तेरे को सकुशल बाहर निकाला। अब कुल-परिवार में लीन हो गया। परमेश्वर को भूल गया है। जवान स्त्राी के साथ मिलकर परिवार तो उत्पन्न कर लिया, परंतु परमात्मा को भूल गया। फिर मृत्यु होगी। आगे फिर धर्मराय मिलेगा। वह फिर पूछेगा कि जो वायदा परमात्मा से किया था, वह फिर नहीं निभाया। तू फिर कहेगा, गलती बन गई, एक जन्म मनुष्य का और दे दो, अबके कोई गलती नहीं करूँगा। धर्मराज यह बातें सुन-सुनकर तंग आ चुका होगा और तेरे को पशु बनाएगा, तू बैल तथा गधे की योनि भोगेगा। यदि सतगुरू की शरण लेकर साधना करता तो सर्व पाप कर्म समाप्त हो जाते और सत्यलोक में निवास होता।

कथा:- जगजीवन एक राजा था। जब वह जीव माता के गर्भ में था। उस समय रो-रोकर परमात्मा से गर्भ के कष्ट से मुक्ति की प्रार्थना कर रहा था। तब परमेश्वर कबीर जी उसके पास गए और कहा कि हे भक्त! जब-जब आप कष्ट में होते हो, तब ही मुझे याद करते हो। जब आप सुखी होते हो, तब मुझे याद नहीं करते। उस समय माया (धन-संपत्ति) तथा मौज-मस्ती बकवाद याद करते हो। यदि आप सुख में भी याद करते तो ये दिन देखने नहीं पड़ते।

कबीर, दुःख में सुमिरण सब करें, सुख में करै ना कोय। जै सुख में सुमरण करैं, तो दुख काहे कूं होय।।

जगजीवन वाला जीव परमात्मा से विनती करने लगा।

‘‘जगजीवन वचन‘‘

साहिब संकट दूर निवारो। मैं निज खानाजाद तुम्हारो।।
दिल में करूणा करै अतिभारी। अब मोहि साहब लेहु उबारी।।
करै अस्तुति बहुतै सुधिलावै। तुम विनु खाविन्द कौन छुड़ावै।।
अब दुःख दूर निवारो स्वामी। कौल करूँ प्रभु अन्तरयामी।।
बाहर निकारो आदि सनेही। बहु दुःख पावै मेरी देही।।
मैं जन प्रभुको दास कहाऊँ। आन देव के निकट न जाऊँ।।
सतगुरू का होय रहों चेरा। दम दम नाम उचारूँ तेरा।।
नित उठि गुरू चरणामृत लेऊँ। तन मन धनै निछावर देऊँ।।
जो मैं तन सों करूँ कमाई। अर्धमाल मैं गुरूहि चढाई।।
कुबुद्धि सीख काहू नहिं मानूं। हराम माल जहर करिजानूं।।
कुल की त्यागूं मान बडाई। निर्मल ज्ञान एक संत सगाई।।
रात दिवस ऐसे लव लाऊँ। करत फुरत भक्ति गुरू कराऊँ।।
दुःख सुख परै सो तनसे सहूँ। भक्ति दृढ़ै गुरू चरणै रहू।।
परत्रिया ताकूं नहिं कोई। जननी बहन करि देखूँ सोई।।
दुष्ट बैन कबहूँ मुख नहिं खोलूँ। शीतल बैन सदा मुख बोलूँ।।
स्वास उस्वासमों रटना लाऊँ। आन उपाय एको नहिं चाऊँ।।
तन मन धन निछावर देऊँ। सतगुरू का चरणामृत लेऊँ।।
सतगुरू कहैं सोई अब करिहौं। आज्ञा लोप पाओं नहिं धरिहौं।।
और सकल बैरी कर जानूँ। सद्गुरू कहँ मित्रा कर मानूँ।।
ज्ञान बतावै सोई गुरूदाता। तन मन धन अरपूँ उन ताता।।
तन मन धन मैं उनको देऊँ। नित उठि गुरूचरणामृत लेऊँ।।
यहि गर्भवास में कौल बधाऊँ। बाहर निकारो धुर निबाँऊँ।।
जो मैं छूटूँ गरभ बासही। तन मन अरपूँ गुरू विश्वास ही।।
एक नाम सांचा कर मानूँ। और सबै मिथ्या कर जानूँ।।
कहा अस्तुति करों गुसाई। बहुत दुःख पावत हूँ या ठाई।।
यहां कोई मित्रा नहिं भाई। मातु पिता नहिं लोग लुगाई।।
देवी देव की कछू न चालै। गुरू विन कौन करै प्रतिपालै।।
अब तो खबर परी यहि ठाहीं। और किसी की चालै नाहीं।।
पिछली बात मैं हृदय जानी। कोई काहूका नहीं रे प्राणी।।
अपने साथ चलेगा सोई। जो कछु सुकृत करे सो होई।।
मद माया में जीव भरमाया। सो तो कोई काम न आया।।
बहुत विचार किया मैं सोई। अंतकाल अपनो नहिं कोई।।
ऐसी करूणा करै विचारा। दया करो दुःख भंजन हारा।।

भावार्थ:- जगजीवन पूर्व जन्म में सतगुरू कबीर जी के शिष्य थे। भक्ति की परंतु बाद में लोकलाज में आकर सतगुरू शरण त्यागकर वही पारंपरिक भक्ति करने लगा। अन्य मौज-मस्ती भी करने लगा। जिस कारण से पुनः जन्म-मरण के चक्र में गिर गया। जब वह माता के गर्भ में आया, तब नानी याद आई। तब सतगुरू याद आए। गर्भ में जीव महादुःखी होता है। गर्भ में छठे महीने जीव को चेतना आती है। दुःख-सुख महसूस होने लगता है। गर्भ में जगजीवन वाला जीव परमात्मा को याद करके पुकारने लगा कि हे परमात्मा! मैं महाकष्ट में हूँ। आपके बिना मेरा कोई नहीं। हे स्वामी! मेरा कष्ट दूर करो। हे अंतर्यामी प्रभु! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आप (सतपुरूष) का दास यानि सेवक बनकर रहूँगा। आन देव यानि आपके अतिरिक्त किसी अन्य देव की भक्ति कभी नहीं करूँगा। आन देव के निकट नहीं जाऊँगा। हे सतगुरू! मैं आपका चेरा (शिष्य) सदा बना रहूँगा। दम-दम (श्वांस-श्वांस) में आपका नाम उच्चारण यानि जाप किया करूँगा। नित उठ चरणामृत लेऊँ, तन-मन-धन न्यौछावर कर देऊँ। मैं जो कमाई करूँगा यानि मेहनत-मजदूरी, व्यापार, नौकरी आदि से जो धन कमाऊँगा, उसका आधा भाग गुरू चरणों में दान किया करूँगा। हे प्रभु! एक बार मुझे गर्भ से बाहर निकाल दो। फिर मैं किसी कुबुद्धि की शिक्षा नहीं मानूंगा। हराम माल यानि रिश्वत से, चोरी से, हेराफेरी से मिलने वाले धन-माल को विष के तुल्य मानूंगा, कभी नहीं छूऊँगा। कुल की लोकलाज, मान-बड़ाई को त्याग दूँगा। केवल संतों-भक्तों तथा सतगुरू से सगाई यानि रिश्ता रखँूगा। रात-दिन चलते-फिरते कर्म करते-करते नाम जपा करूँगा। यदि कोई कष्ट मानव जीवन में आएगा तो उसे सहन करते हुए भी आपको याद किया करूँगा, नाम जाप करना नहीं त्यागूंगा। गुरू चरणों से दूर नहीं होऊँगा। परस्त्राी को कभी बुरी नजर से नहीं देखूंगा, जननी तथा बहन रूप में देखा करूँगा। कभी कुटिल वचन यानि दुर्वचन नहीं कहूँगा। सबसे प्रेम से पेश आया करूँगा। सतगुरू जी जो आज्ञा देंगे, वही करूँगा। उनकी आज्ञा की अवहेलना नहीं करूँगा। अन्य सबको मीठे शत्राु मानूँगा, केवल एक गुरू जी को अपना मित्रा समझूँगा क्योंकि आज मेरे को सांसारिक व्यक्ति इस कष्ट से नहीं बचा सकता। केवल गुरू कृपा से परमात्मा ही बचा सकता है। आज जो गर्भ निवास के समय प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। यह गर्भ से बाहर जाकर भी आजीवन निभाऊँगा। एक नाम को सत्य मानूँगा। शेष सब मिथ्या जानूँगा। इस गर्भ में कोई मित्रा नहीं है, न कोई स्त्राी साथ है, न पति-पत्नी का साथ होता है। (यहाँ कोई मित्रा नहीं भाई। मात-पिता ना लोग लुगाई।) मैंने देवी-देवता को याद करके देखा है। उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी है। कहा है कि कर्म का फल तो सबको भोगना पड़ता है। हम आपकी सहायता नहीं कर सकते। कभी कोई गुरू बनाया हो तो उसे याद कर लो। यदि पूर्ण गुरू परमात्मा का प्रतिनिधि होगा तो आपकी सहायता अवश्य करेगा। अन्य का यहाँ कोई वश नहीं चलेगा।

देवी देव की कछुना चालै। गुरू बिन कौन करै प्रतिपालै।।
अब तो खबर परि यही ठाँही। और कोई की चालै नाहीं।।
पिछली बात मैं हृदय में जानी। कोई काहु का नहीं रे प्राणी।।

मेरे को पिछले जन्म की बातें अब दिल में जानी हैं। यहाँ गर्भवास के संकट में कोई साथ नहीं देता। केवल सुकृत (शुभ कर्म) ही सहयोगी होते हैं। अब मैंने पूर्ण रूप से जान तथा मान लिया है कि हे प्रभु! अंत काल में आपके बिना कोई हमारा अपना नहीं है। हे दुःखभंजन प्रभु! मुझ पर दया करो। गर्भ का कष्ट दूर करो।

‘‘साहिब वचन‘‘

तब साहिब यों कहै पुकारा। कहि समझाया तोहिं बारम्बारा।।
अनेक बार गरभ में आया। तैं रती कर्म भरम नहिं पाया।।
कई बार तैं कौल बैंधावा। कई बार तैं गर्भ में आवा।।
गर्भ में ज्ञान उपजा है तोही। संकट में सुमिरे सब कोही।।
बाहर निकसि नहिं उपजै ज्ञाना। अंधकार अहंकार समाना।।
अनेक बार भुलाना भाई। नहिं सतगुरू की रीत निभाई।।
गरभ बास में कौल बन्धावा। सो कैसे तैं न बाहर निर्बावा।।
बहु संकट में तोहि उपजे ज्ञाना। बाहर निकसत सब विसराना।।
जोई जीव गुरू कौल निर्वाहै। सोई नहिं गरभवास महँ आहै।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने गर्भ में कष्ट भोग रहे प्राणी से कहा कि तेरे को कितनी बार समझाया, तू नहीं मानता। अब महा संकट में तेरे अंदर ज्ञान पैदा हो गया है। सुख होते ही सर्व प्रथम परमात्मा को ही भूलता है। बाहर जाने के पश्चात् तो समझाने से भी मेरा यही ज्ञान तेरे हृदय में प्रवेश नहीं करता है। बहु संकट में तोहे उपजा ज्ञाना। बाहर निकल सब ही विसराना।। अब संकट में तो ज्ञानी बना है। सुख होते ही बदल जाता है। तूने किसी जन्म में मेरी भक्ति की थी। इस कारण से मैं तेरा कुछ कष्ट हल्का करता हूँ, भविष्य में ध्यान रखना। परमेश्वर कबीर जी दीन दयाल हैं। प्रत्येक प्राणी के जनक हैं। वे पिता का कर्तव्य पालन करते हुए हंस को संकट मुक्त करके कृतार्थ करते हैं। इसी कारण जगजीवन के जीव को संकट मुक्त किया। परंतु बाहर आते ही काल के जाल में जीव फँस जाता है। फिर से भूल लग जाती है। दीन दयाल परमेश्वर कबीर जी फिर से चेताने के लिए स्वयं या अपने दास को संत बनाकर परमात्मा की महिमा जीव को बताते हैं। सत्संग द्वारा, पुस्तक द्वारा जैसे-तैसे उस तक अपना संदेश अवश्य पहुँचाते हैं। जगजीवन का जन्म राजा के घर हुआ। राजा बनकर लाखों हाथी, लाखों घोडे़, शानो-शौकत में भगवान भूल गया। राजा का एक नौलखा बाग था। वह बारह वर्ष से सूखा हुआ था। परमेश्वर कबीर जी उस सूखे बाग में जाकर आसन लगाकर समाधि जैसी लीला करके बैठ गए। उस बाग के वृक्ष सूख चुके थे। लकड़ियाँ जलाने के लिए प्रयोग की जा रही थी। वह बाग हरा-भरा हो गया। देखने वालों ने राजा को बताया। ज्योतिष ने बताया कि इस बाग में कोई सिद्ध पुरूष आया है। इसलिए सूखा बाग हरा हो गया है। राजा को पता चला तो बाग देखने गया। बाग 4 कोस (12 कि.मी.) लम्बा 3 कोस (9 कि.मी.) चैड़ा था। खोज करने पर परमात्मा कबीर जी समाधि लगाए बैठे देखे। राजा ने चरण छूए। परमेश्वर ने आँखें खोली। राजा ने कहा, धन्य भाग हैं मेरे। प्यासे के पास गंगा आई है। आपने मेरा बाग हरा कर दिया। सतगुरू बोले, राजन! मुझे तो व्यर्थ बड़ाई दे रहे हो। मैं तो हरे बाग को देखकर साधना करने बैठा था। राजा ने कहा, हे परमात्मा! यह 12 वर्ष से सूखा पड़ा था। हमने आपको पहचान लिया है। राजा ने संकेत करके पालकी मँगवाई। उसमें बैठाकर घर में ले चले। पालकी को नौकर उठाए हुए थे। राजा सतगुरू का एक पैर पालकी से बाहर निकालकर अपने कँधे पर रखकर चले। आदर-सत्कार से घर लाए। परमात्मा ने ज्ञान समझाया। पूरे परिवार ने (12 रानियों ने, चार पुत्रों और राजा ने) दीक्षा ली। राजा को सतलोक दिखाया। उसने सब परिवार को बताया। सबने कहा, हे सतगुरू! अभी ले चलो। सतगुरू ने कहा:-

‘‘सतगुरू वचन‘‘ {पृष्ठ 49}

काहे को हठ करत हो भाई। सबही हंस सुनो चित लाई।।
देह धरी अब करो सुख वासा। सदा रखो निज नाम की आशा।।
घर में रहकर कुल कर्म निभाहो। जो सब सच्ची मुक्ति चाहो।।
सतगुरू कहै सुनो रे भाई। सबही रहो नाम लौ लाई।।
सदा रहूँ मैं उनके पासा। धरै ध्यान जो सतलोक की आशा।।
इतना बचन सतगुरू सुनावा। सबको ध्यान विदेह समझावा।।
इनकी मैं का करूँ बडाई। ये तो सब निज हंसा आई।।
निश्चय बात हमारी मानी। काया माया खाकै (मिट्टी) जानी।।
सतगुरू हंस को लोक चढ़ायी। सहस अठासी द्वीप दिखायी।।
जेहि जेहि हंस सवारी काया। द्वीप द्वीप सब दृष्टि बताया।।
देखो हंस कह सब अस्थाना। देखो द्वीप सबही मन माना।।
सबही हंस करे पछतावा। यह गति हम वहां नाहीं पावा।।
लै हंसन को पहुँचे तहँवा। महापुरूष (बड़े परमात्मा) विराजे जहँवा।।
साखी-द्वीप वर्नन कहा कहौं, सबैं मनोरथ काज।
सब द्वीपनते न्यार है, सत्यपुरूष को राज।।

चैपाई

जब हंसनको ले पहुँचाये। तब सतपुरूष उठि कंठ लगाये।।
जबहि पुरूष अंक भरि लीना। पारस देह सब हंसन कीना।।

परमेश्वर कबीर जी ने राजा जगजीवन तथा उसके परिवार से कहा कि आप भक्ति की कमाई करो और अपने सांसारिक कार्य भी करो। जब जीवन का समय पूरा होगा, तब सतलोक ले चलूँगा। सबने आजीवन भक्ति की और सत्यलोक में अमर शरीर पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया। अब पढ़ें मूल पाठ। (इस मूल पाठ का कुछ अंश बनावटी है, वह छोड़ दिया है जो सतगुरू
की वाणी नहीं है।)

धर्मदास वचन-चैपाई

धर्मदास कह सुनहू स्वामी। कहो गरभकी स्थिति अन्तर्यामी।।
कैसे जीव गरभ में आवे। कैसे जीव जठर दुख पावे।।
कैसे जीव परवशै भयऊ। कैसे इन्द्री देह बनयऊ।।
कैसे जीव अपने पद दरसै। कैसे जीव समरथ पद परसे।।
कैसे जीव कौल बँधावे। कैसे साहब दर्शन पावे।।
सो सब भेद कहो गुरू ज्ञानी। घट भीतरका भेद बखानी।।

सतगुरू-वचन

कहैं कबीर सुनो धर्मदासा। तुम घट भली बुद्धि परकासा।।
प्रथमैं सत्य नाम गुण गाऊँ। घट भीतर का भेद बताऊँ।।
सबही जीव गर्भ में जावैं। कौल बान्ध कै बाहर धावैं।।
चूके कौल गरभ का भाई। बारम्बार गरभ में जाई।।
नौ नाथ सिद्धि चैरासी भारी। उनहूँ देह गरभमें धारी।।
नौ अवतार विष्णु जो लीन्हा। उनहूँ गरभ वसेरा कीन्हा।।
तेतिस कोटी देव कहाये। गरभ वास महँ देह बनाये।।
जोगी जंगम औ तप धारी। गर्भवास में देह सवाँरी।।
गर्भ वास तब छूटे भाई। जब समरथ गुरू बाहँ गहाई।।

गर्भोत्पत्ति वर्णन (पृष्ठ 22)

नारि पुरूष बांधे संयोगा। कामबाण लगि देहसुख भोगा।।
सात धातुका अंग बनाया। जिह्ना दांत मुख कान उपाया।।
हाथ पावँ रू शीस निर्माया। सुन्दर रूप बनी बहु काया।।
नख शिख काहू नर बहू कीन्हा। दशही द्वार युक्ति करि लीन्हा।।
दश द्वार नौ नाड़ि बनायी। ऐसे सबतर बन्ध लगायी।।
दीन्हा ठेक बहत्तर भारी। नाडी बन्धन बहुत अपारी।।
नाद बिन्दुसों काय निरमायी। तामें प्रकृती आन समायी।।
हद्द कारिगर हुनर कीन्हा। जैसे दूधमें जामन दीन्हा।।
तीनसों साठ चार बन्ध लायी। सोलह खांई तहां बनायी।।
सोलह खांई चैदह दर्वाजा। हूंठ हाथ गढ खूब विराजा।।
छाजे महल अधिकही छाजा। तामें जीव जो आनि विराजा।।
अजब महल बहु खूब बनाया। छठे महीने हंस चितवन लाया।।
छठे मांस में सुरती आयी। दुख सुखकी तब पारख पायी।।
छै मासको भयो जब प्रानी। दुख सुखकी मति सबै पहिचानी।।
ओंधे मुख झूले लटकंता। मैल बहुत तहँ कीच रहंता।।
जठर अग्नि तहँ बहुत सतावै। संकट गर्भ तहँ अन्त न आवै।।
बहुत सांकरी पिंजार पोई। तड़फडै़ बहुत निकसे नहिं जोई।।
मुखसों बोल निकसि नहिं आवै। विलाप करि मन में पछितावै।।
अरूझै श्वास रोवै मन माहीं। कौन करमगति लागी आहीं।।
विलाप करे मन में पछितावे। ज्यों करीब कंठ करद बैठावै।।
ता दुखकी गति कासु कहीजै। करम उनमान तहैं दुःख सहीजै।।
यदि आलोच करै मनमाही। संगी मित्रा कोइ दीखत नाहीं।।
पिछला जनम जब सूझा भाई। तब जिव दिलमा चिंता आई।।
स्त्राी मित्रा कुटुम्ब परिवारा। सुत नाती और जो पियारा।।
संगी सुजन बन्धु औ भाई। गरभ कि चीन्ह परी नहिं ताई।।
महा दुःख सो गरभ में पावे। बहुत बैराग हियामें आवे।।
जब जिव गरभमें ज्ञान बिचारा। अब मैं सुमरूं सिरजन हारा।।
सोच मोह विज कछू न कीजै। अब सद्गुरू का शरणा लीजै।।
जिव अपने दिल माहि बिचारे। तब समरथ को कीन पुकारे।।
सुनु धर्मदास यक कथा सुनाऊँ। यक राजाको जस बने बनाऊँ।।
राय जगजीवन ताहिकर नामा। जब वह पहुँच्यो एही ठामा।।
करन विन्ती लागु अधीरू। सतगुरू कहँ तब कीन्ही टेरू।।

जगजीवन वचन

सहिब संकट दूर निवारो। मैं निज खानाजाद तुम्हारो।।
दिल में पुकार करै अतिभारी। अब मोहि साहब लेहु उबारी।।
करै अस्तुति बहुतै सुधिलावै। तुम विनु खाविन्द कौन छुड़ावै।।
अब दुःख दूर निवारो स्वामी। कौल करूँ प्रभु अन्तरयामी।।
बाहर निकारो आदि सनेही। बहु दुःख पावै मेरी देही।।
मैं जन प्रभुको दास कहाऊँ। आन देव के निकट न जाऊँ।।
सतगुरूका होय रहों मैं चेरा। दम दम नाम उचारूँ तेरा।।
नित उठि गुरू चरणामृत लेऊँ। तन मन धनै निछावर देऊँ।।
जो मैं तन सों करूँ कमाई। अर्धमाल मैं गुरूहि चढाई।।
कुबुद्धि सीख काहू नहिं मानंू। हराम माल जहर करिजानूं।।
कुलकी त्यागूँ मान बडाई। निर्मल ज्ञान एक संत सगाई।।
रात दिवस ऐसे लव लाऊँ। करत फुरत भक्ति गुरू कराऊँ।।
दुःख सुख परे सो तनसे सहूँ। भक्ति द्दढै गुरू चरणै रहू।।
परत्रिया ताकूं नहिं कोई। जननी बहन करि देखूँ सोई।।
दुष्ट बैन मुख कबहूँ नहिं खोलूँ। शीतल बैन सदा मुख बोलूँ।।
स्वास उस्वासमों रटना लाऊँ। आन उपाय एको नहिं चाऊँ।।
तन मन धन निछावर देऊँ। सतगुरू का चरणामृत लेऊँ।।
सतगुरू कहैं सोई अब करिहौं। आज्ञा लोप पाओं नहिं धरिहौं।।
और सकल बैरी कर जानूँ। सद्गुरू कहँ मित्रा कर मानूँ।।
ज्ञान बतावै सोई गुरूदाता। तन मन धन अरपूँ उन ताता।।
तन मन धन मैं उनको देऊँ। नित उठि गुरू चरणामृत लेऊँ।।
यहि गर्भवासमें कौल बधाऊँ। बाहर निकारो धुर निबाँऊँ।।
जो मैं छूटूँ गरभ बासही। तन मन अरपूँ करूं गुरू विश्वास ही।।
एक नाम सांचा कर मानूँ। और सबै मिथ्या कर जानूँ।।
कहा अस्तुति करों गुसाई। बहुत दुःख पावत हूँ या ठाई।।
यहां कोई मित्रा नहिं भाई। मातु पिता नहिं लोग लुगाई।।
देवी देवकी कछू न चालै। गुरू विन कौन करै प्रतिपालै।।
अब तो खबर परी यहि ठाहीं। और कोईकी चालै नाहीं।।
पिछली बात मैं हृदय जानी। कोई काहूका नहीं रे प्राणी।।
अपने साथ चलेगा सोई। जो कछु सुकृत करे सो होई।।
मद माया में जीव भरमाया। सो तो कोई काम न आया।।
बहुत विचार किया मैं सोई। अन्तकाल अपनो नहिं कोई।।
ऐसी करूणा करै विचारा। दया करो दुःख भंजर हारा।।

साहिब वचन

तब साहिब यों कहै पुकारा। कहि समझाया तोहिं बारम्बारा।।
अनेक बार गरभ में आया। कबहु नहीं तैं कौल निभाया।।
कई बेर तैं कौल बँधावा। कई बार तैं गर्भ में आवा।।
गर्भ में ज्ञान उपजा है तोही। संकटमें सुमिरे सब कोही।।
बाहर निकसि नहिं उपजै ज्ञाना। अंधकार अंहकार समाना।।
बार अनेक भुलाना भाई। नहिं सतगुरू की दीक्षा पाई।।
गरभ त्रास तब छूटै भाई। जब सतगुरू कहँ बाँह समाई।।

जगजीवन वचन

अब नाहीं भूलूं गुरू देवा। तन मन लाय करूं गुरू सेवा।।
मोकूँ बाहिर काढो स्वामी। कौल न चूकूँ अन्तर्यामी।।

सतगुरू वचन

कौल बोल सब चैकस कीना। तबहीं गर्भ सो बहर लीना।।
नौवें मास जो बाहर आया। लोग कुटुम्ब सबही सुख पाया।।
सबही हरष करैं मन माई। पुत्रा हेतु सब करैं बधाई।।
बाजा बाजै करै उछावा। गीत नाद आधिके चितआवा।।
सबै सजन मिलि गुड़ बँटावा। रैन समय तिय (त्रिया) गंगल गावा।।
नगरलोक सब करैं बधाई। घर घर साजे देइ लुगाई।।
घर राजाके जनम सो पइया। कौल किया सो सब बिसरैया।।
परिजन मिले सबहिं करें प्यारा। सबहीं ज्ञान भुलावन हारा।।
ताका नाम सुनो रे भाई। महा जालके फन्द फँदाई।।
झूठे झूठ मिले संसारा। नरक कुण्ड में नाखन हारा।।
यह सब झूठै पाखण्ड साजू। इनसूँ सरै न एको काजू।।
साखी-कहैं कबीर सब चेतहू, आगे काल कराल।
आल जँजाल तुम छाडिके, पिछले कौल सँभाल।।

चैपाई

साखी-ये तेरे मित्रा नहिं, सब वैरी करि जान।
उबरा चाहो कालते, गुरूहि मित्रा कर मान।।

चोपाई

एक वर्ष लगि डोल डोलावै। पशू रूपमें जनम गँवावै।।
उखली जीभ तोतला बोलै। मातु पिता सब हर्षित डोलै।।
आज जंजाल बोले बहकावे। त्यों त्यों हरष हिये मांही भावै।।
बाहर भीतर ऊभा धावै। बाहर भीतर दौड़ा आवै।।
कंचन घूँघुरू बेगि गढ़ाई। रेशम केरी डोर पोवाई।।
बालन सँग में खेलन जावै। नाच कूद के घरही आवै।।
मनमें आनँद करै चँचलाई। सोच फिकर कछु व्यापे नाई।।
द्वादश वर्षकी भयी है देही। अनन्त उपाय करै नर केही।।
प्रगटै काम काया के भीतर। सोच फिकिर नहिं व्यापे अंतर।।
अघ (पाप) करै बहुत अहंकारा। निरखै तिरिया घर घर द्वारा।।
परवश दूती आनि मिलावै। जोर करै तो पकरि मगावै।।
अघ कर्मि होय तन डोलै। जोर बहुत गरब (गर्व) सो बोलै।।
आंखिन मारै दर्शै लोई (नारी)। ज्ञान ध्यानकी सुधि ना होई।।
गुरू चर्चा के निकट न जावै। हँसी मसखरीसों मन भावै।।
झूठी बात करै लबराई। तासों हेतु करै मितराई।।
साखी-यह नर गर्व भुलाइया, देखि मायाको झौल।
कहै कबीर सब चेतहू, सुमर पाछलो कौल।।

चोपाई

पहले विवाही एक लुगाई। बहुत प्रेम सँग ताहि लिवाई।।
विषय विवेक फिर उपजा भारी। पीछे व्याही सुन्दरि नारी।।
अँगस्वरूप कामिनि अधिकाई। कामातुर वा सें रहे लपटाई।।
महा अनन्द भये मन माहीं। एक पलक सँग छाडें नाहीं।।
करै खवासी कहत है दासी। बन्धा मोह जाल की फांसी।।
खिदमतगार सहेली घनी। कई नायिका कई रामजनी।।
नौ-नौ खण्डके महल बनाये। सोना केरे कलस चढाये।।
करी बिछावन तहँ बड़भारी। गादी तकिया बहुत अपारी।।
नित नित त्रिया नई संयोगा। खान पान और षट रस भोगा।।
मता विषय रस कछू न सूझै। भैरों भूत शीतला पूजै।।
भूलै कौल गरभ में बांधी। अब चकचैंध आई आंधी।।
सबही जीव कौलकरि आवै। बाहर निकसि सब बिसरावै।।

सतगुरू के आगमन

ऐसे जीव भूल रहे सारे। तब सतगुरू आइ पगु धारे।।
जीव चितावन सतगुरू आये। अलीदास धोबी समझाये।।
और हंस बहुत चेताये। फिरत फिरत पाटनपुर आये।।

सतगुरू का पाटनपुर में पहुँचना

सतगुरू आये पाटन ठाऊँ। जगजीवन राय बसै तेहि गाऊँ।।
राय न मानै भक्ति विचारा। हँसे भक्तको बारम्बारा।।
भक्त रूप सब शहर निहारा। कोउ न मानै कहा हमारा।।
तब आपन मन कीन विचारा। कैसे मानैं शब्द हमारा।।
जाइ बाग में आसन कीन्हा। गुप्त रहे काहू नहिं चीन्हा।।
द्वादश वर्ष भये बाग सुखाने। सुलगे काष्ठ होय पुराने।।
चार कोस तेहि बाग लम्बाई। तीन कोसकी है चैड़ाई।।
तहां जाय आसन हम कीन्हा। रहों गुप्त काहू नहिं चीन्हा।।
तहवां मैं कौतुक अस कीया।। सूखे बाग हरा कर दीया।।
विकसे पुहुप जीव सब जागे। सबने हरियर देखा बागे।।
माली को जाय कै दीन बधाई। जागा भाग तुम्हारा भाई।।
देखा बाग जाय तेहि बारा। फल फूलनका अन्त न पारा।।
हर्षा माली बाहर आया। देखा बाग बहुत सुख पाया।।
फूलन छाब भरी दुइ चारी। नाना विधिके फूल अपारी।।
नाना विधिके मेवा लाया। लै माली दरबारे आया।।
बैठा राजा सभा मँझारा। उमरावनको तहाँ न पारा।।
माली सब लै धरी रसाला। राजा पूछ करे ततकाला।।
कौन देश तैं माली आया। फूल अनूप कहांसे लाया।।
कौन बाग के फलन विशेखा। कानो सुनी न आंखन देखा।।

माली वचन

नौ लखा बाग हरा होय आया। फल प्रसून सब नये बनाया।।
सुनिके राजा हरषा भारी। संग उठी चली परजा सारी।।

राजा वचन

कहु दिवान यह कौन प्रकारा। समझि बूझिके करो विचारा।।
जयोतिषी पण्डित सबै बुलाये। पत्रा पोथी सबही लाये।।

ज्योतिषी वचन

लगन सोधि सब ऐसी कही। कोइ पुरूष यहँ आये सही।।
है कोइ नर कै कोइ पखेरू। सोधो जाय बाग सब हेरू।।
खोजा राय बागके माहीं। बैठे संत यक ध्यान लगाहीं।।
राजा जाय धरा सिर पाई। नगर भरेकी परजा आई।।
कहे राजा धन मेरो भागा। दर्शन पाय अमर होय लागा।।
आलसी घर गंगा आयी। मिटि गई गर्मी भयी शितलायी।।

सतगुरू वचन

तब राजासों कही पुकारी। सुन राजा एक बात हमारी।।
हम को न भार चढाओ भाई। काहे को तुम देहु बड़ाई।।
अच्छा बाग विमल हम चीन्हा। तासो आये आसन कीन्हा।।
ऐसा तुमहीं बाग बनाया। नाना विध के रूख लगाया।।
आसन किया देखि हम ठारी। बहुत फूल फलकी अधिकारी।।

राजा वचन

फिर कै राजा शीस नवाया। द्वादश वर्ष भये बाग सुखाया।।
सूखा बाग भये बरस बारा। नहिं कोइ हमरा चाला चारा।।
छाड़ी फल फूलनकी आसा। कोइ न आवै बागके पासा।।
तुम समर्थ पग धारे आई। हरा हुआ बाग सब ठाई।।
राजा कहै दया अब कीजै। मोकूँ मुक्तिदान फल दीजै।।
मेरे मस्तक धरहू हाथा। मैं रहूँ सतगुरू तुम्हारे साथा।।

सतगुरू वचन

तुमको कौल भुलाना भाई। किया सो कौल गया बिसराई।।
संकट गरभ में बाचा दीन्हा। बाहर निकस कर्म बहु कीन्हा।।
किया कौल जब गये भुलाई। तब हम आइके चरित दिखाई।।
बहु विधि बात कही चेताई। बाहर निकसि बुद्धि पलटाई।।
तुमको तो कछु सूझत नाहीं। फन्दा मोहजाल के माहीं।।
आवै यम दश द्वार मून्दी। तबहीं बांधि गिराए मूंधी।।
सोच बूझ देख मन माहीं। इतने में तेरा कौन सहाहीं।।
घर घर हम सब कही पुकारी। कोइ न मानै कही हमारी।।

हे राजा जब तू मातृगर्भ में था तब तू वचनवद्ध हुआ था कि भजन के अतिरिक्त अब और कुछ न करेंगे। उस दुःखमें तो तू पुकारता था तथा हाय हाय करता था, कि मुझको इस दुःखसे निकालो। जब तू गर्भके बाहर आया तब तू अपनी प्रतिज्ञा भूल गया और शारीरिक कामना तथा पशुधर्मके वशीभूत होकर तूने कौन कौन से कुकर्म न किये? सत्यगुरू की दया को तू भूल गया, भोगविलासमें फँसकर अन्धा हो गया और माया ने तेरे ज्ञानको बिल्कुल ही नष्ट कर दिया। जब यमदूत आवेंगे और तेरी मुश्कें (गोला-लाठी) बांधकर नरक में ले जावेंगे तब तेरा कौन मित्रा सहायता करेगा? और तुझको उनसे कौन छुड़ावेगा? राजा! तू सोच तथा समझ कि, वे लोग जिन्हें तू अपना मित्रा समझता है उनमंे से कौन तेरा उस समय सहायक होगा? कौन तुझको नरक से बचावेगा? गर्भमें मैंने तुझको बहुत समझाया था सो हे गँवार! तू उन सब बातों को भूल गया मैंने सबसे घर 
घर पुकार कर कहा मेरा कहना किसी मूर्ख ने न माना। इतनी बात सुनकर राजा बोला:- 

राजा वचन-चैपाई

अब तो गुरू होहु सहाई। मोकों यमसे लेहु छुडाई।।
सबही करम बख्सकै दीजे। डूबत मोहिं उबारके लीजे।।
सैन करी पालकी मँगाई। लै सद्गुरू को माहिं बिठाई।।
पाँव उघार कांध धर लीन्हा। तबही महल पयाना कीन्हा।।
सद्गुरू पग धर महलके माहीं। सब रानिनको राय बुलाहीं।।
समरथा दरशन दीन्हां आनी। धनधन भाग्य तुम्हारो रानी।।
सद्गुरू को पलँगा बैठाई। सब मिलि पांव पखारो आई।।
राजा भाखे शीश नवाई। मोकों राखो गुरू शरनाई।।
करिये सद्गुरू जीवको काजा। दया करो मैं लाऊँ साजा।।
अब हम शरना लेब तुम्हारी। दया करो तन दुखत हमारी।।

सतगुरू वचन

तब कहे सतगुरू लेहु सँभारी। राजा सुनहू बात हमारी।।
कस चले राजा लोक हमारे। मैं नहिं देखूँ लगन तुम्हारे।।
कोटिन ज्ञान कथे असरारा। बिना लगन नहिं जीव उबारा।।
जो कोई बूझे भक्ति हमारी। ताको चहिये लगन सँचारी।।
जैसे लगन चकोरकी होई। चन्द्र सनेह अँगार चुगोई।।
ऐसे लगन गुरूसे होई। धर्मराय शिर पग धर सोई।।
तुम तो हो मोटे महराजा। कैसे छोड़िहौ कुल मर्यादा।।
कैसे छोड़िहौ मान बड़ाई। कैसे छोड़िहौ मुख चतुराई।।
कैसे छोड़िहौ हाथी असवारा। कैसे छोड़िहौ द्रव्य भँडारा।।
कैसे छोड़िहौ काम तरंगा। कैसे राजसे करो मन भंगा।
कैसे छोड़िहौ कनक जवाहिरा। कैसे छोड़िहौ कुल परिवारा।।
तुम तो उनकी बांधी आसा। हम तो राजा कथैं निरासा।।
भक्ति कठिन करी ना जाई। काहे को हिर्स करत हो राई।।

राजा वचन

राजा कहे दोऊ कर जोरी। सुनिये समरथ बिनती मोरी।।
नगर के सब षट् बरन बुलाऊं। यहि अवसर सब माल लुटाऊं।।
तुम तो कह्यो बाहर लेवूं वासा। मैं तो देहकी छोडों आसा।।
अमृत वचन पियाओ आनी। हंस उबार करो निरबानी।।
नगर कोटकी छोड़ी आसा। निश दिन रहूं तुम्मारे पासा।।
हुकुम करो सोई मैं लाऊं। करो दया मैं शीस नवाऊं।।
उमँग उठे हर्षित मन मोरा। थकत भये जनु चन्द्र चकोरा।।
सूखा बाग जो फल परकाशा। तबते पूरी मनकी आशा।।
कसनी कसो सों सहूँ शरीरा। तबहूँ प्रीत न छोडूँ तीरा।।
जो तुम कहो सो भक्ति कराऊँ। आज्ञा करो तो शीश चढाऊँ।।
मैं हूँ जीव पाप कर्म बहु कीना। कैसे यमसों करिहो भीना।।
गिनत गिनत नहिं आवे चीना। बारम्बार मैं औगुन कीना।।
ऐसा करम किया मैं भारी। कैसे यमसे लेहो उबारी।।
एक बात गुरू कहौ विचारी। मोसम पतित आगे कोइ तारी।।
तब सतगुरू बहुत विहँसाने। फिर राजासों निरणय ठाने।।

सतगुरू वचन

युगन युगन भवसागर आऊँ। जो समझे तेहि लोक पठाऊँ।।
शब्द हमारा मानै कोई। तौ नहिं जाय यमपुरी सोई।।
इतनी बात कही समझायी। दिल राजा के प्रतीति समायी।।

राजा वचन

धन्य भाग मेरा कुल कर्मा। कोटिक यज्ञ कियो तप धर्मा।।
सत्यगुरू आय दरस मोहि दीन्हा। बूझत हंस उबार कै लीन्हा।।
हो प्रभु मोर करो निर्वेरा। मैं तो चरण कमल का चेरा।।
कहु संदेश नगर में भाई। जग जीवन राय लोकको जाई।।
नेगी जोगी सबहि बुलायी। और नगर की परजा आई।।
चन्दनका सिंहासन कीन्हा। चैका पूरि कलश ध्शरि दीना।।
सतगुरू शब्द उचारे लीना। युक्ति साजि गादी पगु दीना।।
सब रानिनको बेगि बुलायी। करि दण्डवत् गुरूचरणा आयी।।
साखी-सब रानी बिन्ती करैं, सुनु समरथ चित लाय।
महा अकरमी जीव हम, सबहि लेहु मुकताय।।

‘‘चारों पुत्रों को दीक्षा दी‘‘

इसके पश्चात् राजा ने अपने चारों राजकुंवरों को बुलाया तथा परमेश्वर जी ने परीक्षा करके दीक्षा दी। वाणी:-

छड़ीदार वचन

छड़ीदार कहै कर जोरी। राज कुँवर सुनु विन्ती मोरी।।
राजा रानि गुरू चरणै आये। ताते तुमको बेगि बुलाये।।
गरभवास से करैं निरूवारा। तुरत चलो जनि लावो बारा।।
जहाँ सतगुरू आसन कीन्हा। कुँवर चार आइ दर्शन लीन्हा।।

सतगुरू वचन

तब सतगुरू अस बचन उचारा। शिष्य होय सौपूँ भंडारा।।
शिष्य होय सौंपै देही। लोक द्वीप की गम्य तब लेही।।
तन मन धनको नेह न आवै। तब जिव लगन जैमुनी पावै।।
तब राजा मन हरष अपारी। करहु शिष्य जाऊँ बलिहारी।।

कुँवर वचन

कुँवर कहै विलम्ब किमि सारूँ। आज्ञा करो हो शीस उतारूँ।।

रानी वचन

रानी मन में हर्ष अनन्दा। मानों ऊगे कोटिक चन्दा।
तन मन से करिहौं गुरू सेवा। हमको शिष्य करहु गुरू देवा।।

सतगुरू वचन

सरब भेद मैं तोहि बताया। विरले हंस भेद यह पाया।।
तुम सों हंस कहूँ समझायी। गुप्त भेद ना बाहिर जायी।।
अब हम पृथ्वी परिक्रमा जावें। भूले हंसन को रै चितावें।।
तुम राजा बैठि राज कराओ। सार शब्द जपन चित्त लाओ।।

राजा वचन

जब सतगुरू तहँ ऐसो कहिया। तब राजा मन चिंता भइया।।
राजा चरण धरयो तब आई। तुम बिनु कैसे रहूँ गुसांई।।
हमको राखो चरण लगायी। नहिं देहु सत्यलोक पठायी।।

सतगुरू वचन

सतगुरू कहै सुनो मोर भाई। हम संगे रहो लै जाउँ लिवाई।।
सदा रहौ हंसन के पासा। हमको रहै हंसनकी आसा।।
देह सो दर्शन तुम्हें दिये राई। विदेही होय संग रहुँ सदाई।।
विदेही दर्शन जब हंस पावे। देखि दरश होय अधिक उछावे।।
सतगुरू चलन खबर सब पावा। धीरे धीरे सब हंस आवा।।
आये हंसा विन्ती करहीं। हे साहब हम धीर कस धरहीं।।
जो तुम जाओ सतगुरू साहब। हम भी संग सब तुम्हरे आयब।।
तुम विनु गुरू कैसे रहि जावै। जल बिन मच्छी ज्यों तड़पावै।।
हम पाये आनंद दरश तुम्हारे। हम को न छोड़ो स्वामि हमारे।।

सतगुरू वचन

काहे को हठ करत हौ भाई। सबही हंस सुनो चित लाई।।
देह धरी अब करो सुख वासा। सदा रखो निज नाम की आसा।।
घर में रहो कुल धर्म निबाहो। जो सब साँचि भक्ति तुम चाहो।।

परिवार के सब जीवों के वचन

माता पिता त्रिया नहिं चहिए। सुत नारी से नहिं नेह लगैये।।
सतगुरू तुमही हौ यक सांचा। झूठ और सकल जग काचा।।
बिना दर्श सो दुख हम पावें। नित चरणामृत कहाँ से लावें।।
तुम बिनु देह छुटि सो जावै। कहँ गुरूवचन बहुरि सो पावे।।
बिना दरश व्यर्थ जगकी माया। सबहि छुटे नहिं चहिए काया।।

सतगुरू वचन

सतगुरू कहै सुनो रे भाई। सबही रहो नाम लौ लायी।।
सदा रहूँ मैं उनके पासा। धरे ध्यान जो सांचकी आसा।।
सुनो हंस गहो पद सांची। ध्यान विदेह में रहि हो रांची।।
इतना भेद सतगुरू बतलावा। सबको विदेह ध्यान समझावा।।
ध्यान पाइ आनन्द सबै भयऊ। सतगुरू दरश प्रत्यक्षहि पयऊ।।
तुम सों राजा कहूँ चितायी। रहो सदा शब्द लवलायी।।
चले गुरू समरथ जेही बारा। रोवै हंस बहैं जल धारा।।
जैसे रंक का रतन चुराना। जैसे भुजंग मणी विसराना।।
मानि सतगुरू आज्ञा लीना। विदेह ध्यान गुरू दर्शन दीना।।
ध्यान पाइ गुरू करैं सब भक्ति। काल जाल सब छूटी युक्ति।।
केते दिवस ऐसे चलि गयऊ। तबहीं राजा आगम पयऊ।।

राजा के परिवार के साथ-साथ मंत्रियों तथा नौकरानियों ने भी दीक्षा ली थी। सबने दिल लगाकर भक्ति की। मर्यादा का पालन किया। समय आने पर साधना पूर्ण होने पर जब सतलोक चलने के लिए परमेश्वर कबीर जी ने कहा तो सब उपदेशी ऐसे उमंग में भर गए जैसे बारात में जाते हैं। राजा ने नगर में मुनादी (announcement) करवा दी कि नगर की सब जनता आओ, हम सत्यलोक जा रहे हैं। जिसके लिए भक्ति कर रहे थे, वह समय आ गया है।

राजा वचन

जेहि कारण हम भक्ति कराई। सो दिन अब पहुँचा है आई।।
ताल पखावज वेगि लै आओ। शब्द चलावा मंगल गाओ।।
बाजा बाजे बहुत बधायी। सबै त्रिया मिलि मंगल गायी।।
सब ही लोक खबर यह पायी। राय जगजीवन लोक सिधायी।।
पाटन नगर में बहुत उछावा। घर घर तिरिया करे बधावा।।
बैठै राजा आसन धारी। जुरे हंस जहँ बहुत अपारी।।
ले परवाना बन्दगी कीना। सबही हंस परिकरमा दीना।।
रानी पांच कुवँर दोय जाना। दासी चार हजूरी साना।।
चार प्रधान सात उमराऊ। प्रोहित दोय हियै मन भाऊ।।
इतना जन परवाना लीना। राजा संग सो प्याना कीना।।
पावत बीरा जिव निस्तारेऊ। अमर लोक कहँ प्याना धारेउ।।

राजा तथा पाँच रानी, दो पुत्रा, चार दासी (नौकरानी), चार प्रधान, सात उमराव (वजीर), दो पुरोहित, इन सबको सतगुरू कबीर जी लेकर सत्यलोक पहुँचे। अपने ही दूसरे स्वरूप में विराजमान सत्यपुरूष से भक्तों की बड़ाई की। कहा:-

सतगुरू वचन

इनकी मैं का करूं बडाई। ये तो सब निज हंसा आई।।
निश्चय बात हमारी मानी। काया माया खाकै (मिट्टी) जानी।।
सतगुरू हंसको लोक चढायी। सहस अठासी द्वीप दिखायी।।
जेहि जेहि हंस सवारी काया। द्वीप द्वीप सब दृष्टि बताया।।
देखो हंस कह सब अस्थाना। देखो द्वीप सबही मन माना।।
सबहीं हंस करे पछतावा। यह गति हम वहां नाहीं पावा।।
लै हंसनको पहुँचे तहँवा। महापुरूष (बड़े परमात्मा) विराजे जहँवा।।
साखी-द्वीप वर्नन कह कहौं, सबैं मनोरथ काज।
सब द्वीपनते न्यार है, सत्य पुरूष को राज।।

चैपाई

जब हंसन को ले पहुँचाये। तब सतपुरूष उठि कंठ लगाये।।
जब ही पुरूष अंक भरि लीना। पारस देह सब हंसन कीना।।

’’सतगुरू कबीर तथा सतपुरूष एक ही हैं, दोनों भूमिका करते हैं‘‘

राजा जगजीवन समूह के अतिरिक्त अन्य भी सतगुरू कबीर जी के साथ चले थे। कुल चार हजार सात सौ बावन (4752) थे। उनमें से 200 मानसरोवर पर रह गए। कारण यह था कि उन्होंने भक्ति थोड़ी की थी। रास्ते में मानसरोवर आता है। उसमें सर्व भक्तों को स्नान करवाया जाता है। जिन भक्तों की भक्ति पूर्ण हो गई है। उनके शरीर की शोभा 16 सूर्यों जितने प्रकाश के तुल्य प्रकाशमान हो जाती है। जिनकी भक्ति पूर्ण नहीं होती, उनके शरीर का प्रकाश 4 सूर्यों के समान रह जाता है। वे मानसरोवर पर ही रह जाते हैं। उनसे वहाँ भक्ति कराई जाती है। यदि उनकी ममता संसार में रह जाती है तो उन्हें पुनर्जन्म मिलता है। राजा भी बन जाते हैं। फिर भूल पड़ जाती है। काल के जाल में फँसकर जन्म नष्ट करते हैं। उनको फिर भक्ति की महिमा बताने और काल के जाल से छुड़ाने के लिए सत्यपुरूष कबीर जी संसार में आते हैं। ऐसे भक्त शीघ्र भक्ति ग्रहण करके मोक्ष प्राप्ति कर लेते हैं। जैसे राजा जगजीवन का परिवार था तथा उनकी दासी (नौकरानी) और मंत्राीगण ऐसे ही हंस थे। फिर उमंग के साथ काल की सर्व संपत्ति पराई जानकर सहर्ष त्यागकर सतगुरू के साथ सत्यलोक चले गए। अमृतवाणी में यह भी स्पष्ट है कि सतगुरू कबीर जी तथा सतपुरूष एक ही हैं। दोनों भूमिका स्वयं ही करते हैं। वाणी है कि:-

सतगुरू अरू पुरूष भये जब एका। सब हंसन आंखन देखा।।

अब पढ़ें अन्य अमृतवाणी:-

पुरूष वचन

कहै पुरूष ज्ञानी भल आये। इतने हंस कवन विधि लाये।।

‘‘ज्ञानी (सतगुरू कबीर) वचन‘‘

तुम जानो पुरूष पुराना। मैं केहि मुख सों करौं बखाना।।
चार हजार सातसों बावन पाये। एते हंस दरश तुव आये।।
सबही आये लोक मँझारा। दुइ सै रोके धरम बटपारा।।
कौल किया पुनि गये भुलायी। पांजी द्वार धरम पर जायी।।
मान सरोवर केते रहाये। उनको देही नाहिं बनाये।।
और द्वीपन सब कीन बसारा। जैसी हंसन देह सँवारा।।
इन तन मन सो बदला कीना। शिष्य होय इन वस्तुहि लीना।।
कसनी कसि सो तन बदले चीन्हा। गुरू को इन सब वश करि लीन्हा।।
जीवत मृतक होय रहे जगमाहीं। जासें दरस तुम्हारा पाहीं।।
सुनिके पुरूष हरष बहु कीना। फिर फिर हंस अंक भर लीना।।
काह देउ तोहि हंस बड़ाई। तुम अमर लोक चलि आई।।
अधर सिंहासन आसन पाये। सब हंसन शिर छत्रा धराये।।
हर्षित बदन औ बहुत हुलासा। सदा रहो तुम हमरे पासा।।
बैठयो महा पुरूष दरबारा। सोलह सूर हंस उजियारा।।
अमृत फलका करो अहारा। धन्य हंस बड़भाग तुम्हारा।।
सतगुरू अरू पुरूष भये जब एका। सब हंसन आखन देखा।।
कहे हंस आप प्रभु हमों लाए। हम तुमको परख नहीं पाए।।
किन्ही लीला साहब सारी। कैसे जाने जीव व्यभिचारी।।
अपना बालक पीता दिल लावै। और कौन इजलत उदावै।।
कोटि-कोटि किन्ही प्रणामा। जीव उधारे पूर्ण रामा।।

‘‘पुरूष वचन‘‘

इस कथा में यह भी प्रमाण है कि परमेश्वर कबीर जी फिर संसार में आते हैं। ये स्वयं ही सत्यपुरूष हैं। स्वयं ही ज्ञानी, सहज दास, जोगजीत रूप बनाते हैं। 

जगजीवन बोध का सारांश पूरा हुआ।

Sat Sahib