अध्याय जीव धर्म बोध का सारांश

कबीर सागर में 40वां अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1913 पर है। इस अध्याय में जीव के गुण-धर्म की जानकारी दी गई है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि जीव मानव शरीर प्राप्त करके अपने आपको प्रभु मान बैठता है। अहंकार करता है कि मैंने यह कर दिया, मैं ये कर दूँगा। मेरे पास इतना धन है व कीमती गाड़ी है। सत्संग और संत के अभाव से वह मान बैठता है कि मैं सदा ऐसे ही सुखी रहूँगा। भूलवश यह भी विचार करता है कि अगले जन्म में फिर मानव बनकर आनन्द करूँगा। परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि:-

नाम सुमरले सुकर्म करले कौन जाने कल की खबर नहीं पल की।
सर्व सोने की लंका थी, रावण से रणधीरं। एक पलक में राज विराजी, जम के पड़े जंजीरं।।
दुर्योधन से राजा होते, संग इकोतर भाई। ग्यारह क्षौंणी संग चलै थी, देहि गीदन खाई।।
उदय अस्त बीच चक्र चलैं थे, ऐसे जन ठकुराई। चुणक ऋषिश्वर कल्प किया, तब खोज न पाया राही।।
साठ हजार सघड़ के होते, कपिल मुनिश्वर खाये। एक सपुत्र उतानपात का, स्वर्ग में पद पाए।।
मर्द गर्द में मिल गए, रावण से रणधीर। कंश केशी चाणूर से, हिरणाकुश बलबीर।।
तेरी क्या बुनियाद है, जीव जन्म धर लेत। गरीबदास हरि नाम बिना, खाली परसी खेत।।
कबीर, क्या माँगूं कुछ थिर ना रहाई। देखत नैन चला जग जाई।।
एक लख पूत सवा लाख नाति। ता रावण घर दीया न बाती।।
आवत संग ना जात संगाती। क्या भया दर बांधे हाथी।।
बहुत प्यारी नारी जग मांही। मात पिता जाके सम नांही।।
जा ही कारण नर शीश जो देही। मृत्यु समय वह नहीं स्नेही।।
निज स्वार्थ कह रोदन करही। फिर पर नर में चित धरही।।
सुत परिजन धन स्वपन स्नेही। सत्यनाम गहो निज मति येही।।
निज तन सम प्रिय और न आना। सो भी संग ना चले नादाना।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने जीव का धर्म बताया है कि जीव कर्म बन्धन में बँधा है। कर्मानुसार राजा बन जाता है। राजा बनकर स्वयं को मालिक समझ लेता है। विरोध करने वालों को मार डालता है। कोई कमजोर राजा दिखाई देता है तो उसके राज्य को हड़पने की योजना बनाता है। यदि वह सीधे से राज्य देने को सहमत नहीं होता तो उससे युद्ध करके हजारों सैनिकों को मारता है, वह पाप अपने सिर धर लेता है। दूसरे के धन को छीनने का भी दोष अपने सिर पर धरकर कुछ समय पश्चात् मर जाता है या किसी अन्य राजा द्वारा मार दिया जाता है। मृत्यु उपरांत राजा गधे का जन्म प्राप्त करता है। उसके पश्चात् कुत्ते, सूअर आदि-आदि की योनियों में महाकष्ट उठाता है। ऊपर की वाणियों में यही सिद्ध किया है कि दुर्योधन राजा था। राज्य की लड़ाई में मारा गया। ऐसा दुर्भाग्य वाला था कि मृत्यु उपरांत उसकी देह (शरीर) पक्षियों के खाने योग्य भी नहीं थी कि उसके शरीर को खाकर कोई गीद्ध जैसा पक्षी दुआ देता क्योंकि उसकी माता गांधारी के आशीर्वाद से दुर्योधन पर्दे को छोड़कर सर्व बज्र का हो गया था। राज्य भी नहीं रहा, स्वयं भी संपत्ति छोड़कर युद्ध में मारा गया। इसी प्रकार अन्य राजाओं की दुर्दशा हुई। मानधाता राजा था जो चक्रवर्ती यानि पूरी पृथ्वी का शासक था। चुणक ऋषि से लड़ाई हुई। सर्व सेना मारी गई। स्वयं भी मृत्यु के उपरांत चूहा बनकर धरती के अंदर बिल बनाकर रहा। फिर अन्य प्राणियों की योनियों में भटक रहा है। फिर बताया है कि राजा उतानपात का एक सुपुत्र धु्रव भक्ति करके राजा भी बना और स्वर्ग गया।

फिर बताया है कि प्रत्येक व्यक्ति की धारणा है कि मेरा वंश चले। मैं अपनी संतान को सुखी करने के लिए धन इकट्ठा कर दूँ। यह संसार स्वार्थ के रस्से से बँधा है। अपना-अपना कर्ज लेने या अदा करने के लिए नाते बनते हैं। कर्ज का लेन-देन पूरा होते ही सब संसार छोड़कर चले जाते हैं। यदि युवा मर जाता है तो परिवार वाले रोते हैं कि अभी तो कमाने योग्य था। यदि रोगी या वृद्ध मर जाता है तो कहते हैं अच्छा हुआ, मर गया, दुःखी रहता था। यदि कोई इस भ्रम में है कि मेरा कुल चलेगा, मेरा नाम रहेगा। यह महामूर्खता है। लंका देश के राजा रावण के एक लाख पुत्र तथा सवा लाख पौत्र थे। आज उस रावण के वंश में कोई दीप जलाने वाला नहीं बचा है। बात करें नाम चलने की, जगत व्यवहार में हम देखते हैं कि दादा जी जो संसार त्यागकर चले गए, कोई याद नहीं करता। कभी जमीनी लेन-देन में भले ही नाम पढ़ने को मिले। और पीछे जाऐं तो चैथे दादा का नाम तो परिवार को भी याद नहीं होता। जो यह विचार रखता है कि मेरा नाम चल जाए, यह तो आप जी ऊपर पढ़ चुके हैं कि कैसा नाम चलेगा? फिर कुत्ते का जन्म या कुतिया का जन्म प्राप्त करेगा तो फिर कुत्तों में कुल (खानदान) हो जाएगा। फिर गधा बनेगा तो गधा कुल चलेगा। इस प्रकार परमेश्वर कबीर जी ने एक बात में स्पष्ट कर दिया है कि सतनाम सुमर ले और सुकर्म (अच्छे धार्मिक कर्म) कर ले। मृत्यु कभी भी हो सकती है। फिर क्या पता कहाँ जन्मेगा? आशा तो लगाए बैठा है सौ वर्ष तक जीवित रहने की, परंतु खबर एक पल की नहीं है, कब मृत्यु हो जाए? आप तो संपत्ति को अपना मानते हैं। मृत्यु के समय संपत्ति तो दूर की बात है, आपको अपने शरीर के समान तो संपत्ति भी प्रिय नहीं है, यह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य वस्तुओं या धन को अपना मानता है। यह अज्ञान की भांग पी रखी है। परमेश्वर कबीर जी
ने कहा है कि:-

कबीर, यह माया अटपटी, सब घट आन अड़ी।
किस किस कूं समझाऊँ, कूंए भांग पड़ी।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि काल निरंजन ने अज्ञान फैलाकर जीव को भव बंधन में मर्यादाऐं बनाकर माया इकट्ठी करके धनी बनने की प्रेरणा करके धन इकट्ठा करने की हवस रूपी भाँग पिला रखी है यानि 21 ब्रह्माण्ड रूपी कुएं में यही विचारधारा की भाँग डाल रखी है। किस-किस को समझाऊँ कूंए भाँग पड़ी। यानि सर्व में यही धारणा बनी है कि कोठी-बंगला बनाऊँ, बड़ी गाड़ी लूँ। बड़ा राजनेता बनूँ। बड़ा अधिकारी बनूँ। यह सब कुछ करके उसको ज्ञान नहीं कि आगे क्या बनेगा? वह ऊपर बता दिया है। इसलिए जीव धर्म को जानकर भक्ति करनी चाहिए। भक्ति का ज्ञान सतगुरू बताता है। सतगुरू के लक्षण क्या हैं? वे जीव धर्म बोध पृष्ठ 1960 पर लिखे हैं जो निम्न हैंः-

चैपाई
गुरू के लक्षण चार बखाना। प्रथम बेद शास्त्रा ज्ञाना।।
दूजे हरि भक्ति मन कर्म बानी। तृतीयें सम दृष्टि कर जानी।।
चैथे बेद विधि सब कर्मा। यह चार गुरू गुण जानों मर्मा।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि गुरू के चार लक्षण हैं। एक तो यह है कि वह सर्व वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए। दूसरे परमात्मा की भक्ति करे, अन्य देवी या देव की भक्ति नहीं करता। केवल एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति करता तथा करवाता है। तीसरा लक्षण है कि वह सब शिष्यों को एक दृष्टि से देखता है यानि धनी या निर्धन में अंतर नहीं समझता। सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। चैथा लक्षण पूर्ण सतगुरू का है कि वह सर्व भक्ति कर्म वेद विधि के अनुसार करता तथा करवाता है यानि जो प्रमाणित वेदों में भक्ति क्रियाऐं लिखी हैं, वही भक्ति करता तथा अनुयाईयों से करवाता है। संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा हैः-

गरीब, सतगुरू के लक्षण कहूँ मधुरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्र कह अठारा बोधा।।

भावार्थ:- सतगुरू सर्व शास्त्रों का ज्ञाता होता है। उन्हीं से सत्संग करके ज्ञान कहता है।

पूर्ण सतगुरू के अन्य लक्षण:-

सोई गुरू पूरा कहावै जो दो अखर का भेद बतावै। एक लखावै एक छुड़ावै जब प्राणी निज घर जावै।।

संत नानक जी ने भी कहा है कि:-

जे तू पढ़या पंडित बिन दोय अखर बिन दोय नावां। प्रणवत नानक एक लंघाए जेकर सच्च समावां।।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

कह कबीर अक्षर दोय भाख, होगा खसम तो लेगा राख।।

दो अखर (अक्षर) का भेद उपरोक्त महापुरूषों श्री नानक देव जी तथा परमेश्वर कबीर जी तथा संत गरीबदास जी के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था या अब मुझ दास पर कृपा हुई है। सतनाम में दो अक्षर हैं। एक ओं (ॐ) है, दूसरा अक्षर उपदेशी को दीक्षा के समय बताया जाता है। श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 17 मंत्र 23 में कहा है कि सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि परमेश्वर की भक्ति तीन मंत्रों {ॐ (ओम्) तत् सत्) का जाप करने का निर्देश है। सृष्टि की आदि में तत्त्वदर्शी संत यही भक्ति करते तथा कराते थे। मनुष्य भी जीव है। यह जीव विशेष में गिना जाता है। अन्य सामान्य जीव हैं। मानव जीव को अपना मोक्ष कराने का अवसर प्राप्त होता है जो अन्य जीवों को नहीं होता। जीव धर्म बोध में मानव के लिए प्रेरणा है। मानव को बताया गया है कि जो भक्ति नहीं करते, वे अपना मानव जीवन नष्ट करके जाते हैं। जो भक्ति करते हैं, उनकी भक्ति शास्त्र अनुकूल नहीं है तो भी उनका मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। जिनको पूर्ण सतगुरू नहीं मिला। वे भक्ति करके भी असफल रहते हैं। जो भक्त एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति न करके अन्य देवी-देवताओं या तीर्थों, व्रतों तक सीमित हैं, वे भी मानव जीवन का वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते। जो ब्रह्म की साधना करते हैं, वे भी पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं करते जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में बताया है:- गीता ज्ञान दाता ने कहा कि हे अर्जुन!
तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा।(गीता अध्याय 18 श्लोक 62) परम शांति उसे कहते हैं जब जीव का जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है, उसका जन्म नहीं होता।

गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि तत्त्वदर्शी संत मिलने के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आता। उस परमेश्वर की भक्ति करो जिसने इस संसार रूपी वृक्ष की रचना की है।(गीता अध्याय 15 श्लोक 4) गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि जो ब्रह्म साधना करते हैं, वे ब्रह्म लोक में जाते हैं। ब्रह्म लोक गए प्राणी भी पुनरावर्ती (जन्म-मरण को बार-बार प्राप्त करने वाली स्थिति को पुनरावर्ती कहा है) में हैं। ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुण्य समाप्त होने के पश्चात् पुनः लौटकर संसार में आते हैं, वे जन्म-मरण में रहते हैं।

उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि परमेश्वर की भक्ति के अतिरिक्त यदि किसी अन्य प्रभु की भक्ति इष्ट रूप में की जाती है तो उससे न तो सनातन परम धाम (सत्यलोक) प्राप्त होगा, न जन्म-मरण समाप्त होगा यानि परम शांति प्राप्त नहीं होगी। परमशांति, सनातन परम धाम केवल परमेश्वर यानि सत्य पुरूष जी की भक्ति से प्राप्त होते हैं जो पूर्ण सतगुरू ही यथार्थ साधना तथा ज्ञान बताता है। जीव धर्म बोध में बस विशेष ज्ञान तो इतना ही है, परंतु इसमें अधिक विस्तार से ज्ञान दिया है जिसको कबीर पंथियों ने बहुत खराब भी कर रखा है। मिलावट की हद पार कर रखी है। उदाहरण के लिए कबीर सागर में जो ज्ञान है, वह कबीर साहब का बताया हुआ ही सत्य है। कबीर सागर धर्मदास जी ने विक्रमी संवत् 1550 (सन् 1497) के आसपास लिखा था। उसके पश्चात् तो धर्मदास बहुत वृद्ध हो गए थे। कबीर सागर के कई अध्यायों में अंग्रेजों तक का ज्ञान दिया है। अंग्रेज तो सन् 1749 से सन् 1947 तक थे। उससे पहले सन् 1497 में अंग्रेजों का नामो-निशान भी नहीं था। तो अंग्रेजों की गतिविधि तथा उनके द्वारा किया गया कोई आध्यात्मिक बिगाड़ का वर्णन कबीर सागर में नहीं आ सकता। जैसे जीव धर्म बोध पृष्ठ 2054 पर लिखा है कि अंग्रेजों के ग्रंथों में लिखा है कि दो बंदर बिना पूँछ (दुम) के हैं। दो पैरों से मनुष्य की तरह चलते हैं। दोनों हाथों से कार्य करते हैं। फिर लिखा है कि अंग्रेजी के अखबार में लिखा है कि दो मनुष्य पूँछ (दुम) वाले देखे गए हैं।

अंगरेजों के ग्रंथन मांही। बिन पूछ वानर यह आही।।
अंगरेजी के अखबार बखाने। द्वै मानुष दुमदार लखाने।।
दोनों पगते नर ज्यूं चालें। दोनों हाथ काम में डालें।।
हबश देश के जंगल जवहां। द्वै मानुष दुम युत रहैं तहंवा।।

जीव धर्म बोठा पृष्ठ 2055 पर लिखा है कि अमेरिका में एक दादुर (मैंढ़क) है, जब वह रोता है, तब अमेरिका में क्लेश यानि झगड़ा होता है।

दादुर एक अमेरिका देशा। रूदन करे जब लहै क्लेशा।।

विचार करें:- परमेश्वर कबीर जी सशरीर सतलोक सन् 1518 में गए। उस समय तक न तो कोई अखबार प्रचलित था और न अंग्रेजी भाषा थी। न कोई अमेरिका देश का नाम जानता था। इससे सिद्ध है कि कबीर सागर में यह मिलावट की गई है। परमेश्वर कबीर जी कृपा से अब यथार्थ ज्ञान प्रकाशित किया जा रहा है। इसी प्रकार अन्य पृष्ठों पर गड़बड़ी कर रखी है जो त्यागने योग्य है। इसलिए ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ’’ पुस्तक बनाई है जो सत्य-असत्य को भिन्न-भिन्न करके बनाई है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 5-6 पर दोहे हैं:-

कौन धर्म है जीव को, सब धर्मन सरदार। जाते पावै मुक्ति गति, उतरे भव निधि पार।।
जबलों नहीं सतगुरू मिले, तबलों ज्ञान नहीं होय। ऋषि सिद्धि तपते लहै, मुक्ति का पावै कोय।।

भावार्थ:- जीव क्या धर्म यानि गुण है? मनुष्य का धर्म यानि मानव धर्म सब धर्मों का मुखिया है।

जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।

यह दोहा मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा निर्मित किया गया है। मनुष्य जन्म प्राप्त जीव का धर्म मानवता है। यदि मानव में मानवता (इंसानियत) नेक चाल चलन अच्छा व्यवहार नहीं है तो वह अन्य जीवों जैसा तुच्छ प्राणी है। अन्य जीव यानि पशु-पक्षी, जलचर क्या करते हैं? दुर्बल का आहार छीनकर खा जाते हैं। दुर्बल के साथ मारपीट करते हैं, मारकर भी खा जाते हैं। किसी असहाय पशु को जख्म (घाव) हो जाता है तो कौवे नोंच-नोंचकर खाते हैं। वर्तमान में डिस्कवरी फिल्मों में देखने को मिलता है कि जंगल में घास चर रहे भैंसे को 5.6 शेर-शेरनी घेरकर उसके ऊपर चढ़कर तथा आगे-पीछे से फाड़कर खाते हैं। भैंसा गिर जाता है, चिल्ला रहा है। सिंह मस्ती से जीवित को खा रहे थे। अन्य पशुओं जैसे गाय, जंगली मृग, नील गाय आदि। नीलगाय को तो गर्दन दबाकर पहले मारते हैं, उसकी गर्दन को तब तक दबाए रखते हैं, जब तक मर न जाए, फिर खाते हैं। परंतु भैंसे की गर्दन उनसे दब नहीं सकती थी। इसलिए जिन्दा को खा रहे थे। इसी प्रकार वे मनुष्य हैं जो दुर्बल की संपत्ति पर कब्जा कर लेते हैं, लूट लेते हैं। चोरी कर लेते हैं। दुर्बल परिवार की बहन-बेटियों से भी बदसलूकी (दुव्र्यवहार) करते हैं। इज्जत तक लूट लेते हैं। ऐसे धर्मगुण वाला मानव पशु श्रेणी में आता है। भले ही वह मानव दिखाई देता है। उसका नाम मानव है, उसमें गुण मानव के नहीं हैं। जब तक जीव में मानवता नहीं है तो वह मानव शरीर में भी जानवर है। इस जीव धर्म बोध अध्याय का बस इतना ही सारांश है। फिर भी प्रत्येक पृष्ठ का थोड़ा-थोड़ा विश्लेषण करता हूँ:-

जीव धर्म बोध पृष्ठ 7 से 21 तक का सारांश:-

पृष्ठ 6 का सारांश ऊपर कर दिया है। अब पृष्ठ 7 से 21 तक का सारांश वर्णन करता हूँ।

पृष्ठ 7 से 21 तक बताया है कि जीव को काम (भोग-विलास की इच्छा), क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार विशेष प्रभावित करते हैं। ये पाँच विकार कहे गए हैं। इनके सूक्ष्म स्वरूप को इनकी प्रकृति कहा जाता है जो सँख्या में प्रत्येक की पाँच-पाँच है जो 25 प्रकृति कहलाती हैं। जीव धर्म बोध पृष्ठ 7 पर विशेष ज्ञान है जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 13 से मेल करता है।

नाम शरीर क्षेत्र सो जाना। तेही अंदर बाहर का ज्ञान।।
जो विकल्प कारण गाई। चित (मन) शक्ति क्षेत्रज्ञ कहाई।।
नाम तासु क्षेत्रज्ञ कहीजै। सो सब वासना से भीजै।।

इस पृष्ठ पर एक वाणी पुराने कबीर सागर में है जो नहीं लिखी गई:-
{क्षेत्री नाम जीव कहलाई। जाको यह देही दीन्ही सांई।।}

भावार्थ:- शरीर को क्षेत्र (खेत) कहते हैं। जिस जीव को शरीर प्राप्त होता है, वह क्षत्री कहा जाता है। जो इस क्षेत्र यानि शरीर की रचना को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। क्षेत्रज्ञ मन यानि काल-निरंजन कहा जाता है क्योंकि जब तक मानव शरीरधारी जीव सतगुरू शरण में नहीं आता, तब तक मन सर्व भोग का आनंद शरीर के द्वारा लेता है। इसलिए वाणी में लिखा है कि मन सब वासना में भीजा (भीगा) रहता है। जब पूर्ण सतगुरू मिल जाता है तो इस क्षेत्र रूपी शरीर का यथार्थ प्रयोग प्रारंभ होता है।

श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 13 श्लोक 1ए 2 तथा 33 में उपरोक्त प्रमाण है।

गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन ने बताया है कि:-

हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र इस नाम से कहा जाता है। तत्त्वदर्शी संत कहते हैं कि जो इसको
जानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।(अध्याय 13 श्लोक 1)

हे अर्जुन! सर्व क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही जान और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। भावार्थ है कि शरीर=क्षेत्र तथा काल ब्रह्म=क्षेत्रज्ञ का ज्ञान कराने वाला ही वास्तविक ज्ञान है। यह गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरा विचार है।(अध्याय 13 श्लोक 2) हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक (पृथ्वी लोक) को प्रकाशित करता है।उसी प्रकार क्षेत्री (जीवात्मा) संपूर्ण क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है।(अध्याय 13 श्लोक 33) विचार करें:- गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित तथा अन्य सर्व अनुवादकों द्वारा गीता अध्याय 13 श्लोक 1 में क्षेत्रज्ञ का अर्थ किया है कि जो क्षेत्र को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। फिर गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में क्षेत्रज्ञ का अर्थ जीवात्मा किया है। यह अज्ञानता का प्रमाण है। फिर गीता अध्याय 13 के श्लोक 33 में क्षेत्री का अर्थ जीवात्मा किया है। इससे एक बात तो यह स्पष्ट हुई कि गीता का अनुवाद करने वालों को भी ज्ञान नहीं तथा दूसरी बात यह स्पष्ट हुई कि परमेश्वर कबीर जी का ज्ञान प्रमाणित सद्ग्रन्थों से मेल करता है तथा जो इनमें नहीं है, वह ज्ञान भी परमेश्वर कबीर जी ने बताया है, वह स्वतः सत्य मानने योग्य है। यही ज्ञान परमेश्वर कबीर जी द्वारा जीव धर्म बोध पृष्ठ 7 में कहा है। पृष्ठ 8 से 12 तक अभिमान की जानकारी बताई है कि:-

पृष्ठ 8:- ज्यों ज्यों जीव में तुच्छता आई। त्यों त्यों अधिक अहंकार समाई।।
ज्यों ज्यों श्रेष्ठ पद को पावै। त्यों त्यों तामें दीनता आवै।।

भावार्थ:- जीव में ज्यों-ज्यों नीचता आती है, उसमें अहंकार बढ़ता चला जाता है तथा ज्यों-ज्यों भक्ति करके आत्मा में अध्यात्म शक्ति बढ़ती है, त्यों-त्यों उस भक्त में आधीनी यानि दीनता आती है।

जीव धर्म बोध के पृष्ठ 9 पर कहा है कि अहंकार किसी को शरीर की शक्ति का होता है। किसी को राज्य का, किसी को धन का, किसी को परिवार में अधिक सदस्यों का हो जाता है। वह नाश का कारण बनता है। इसी प्रकार पृष्ठ 12 तक ज्ञान है कि परमेश्वर की दरगाह यानि परमात्मा के न्यायालय में न्याय होगा। हजरत सुलेमान की वाणी है कि जो तपस्वी तप करते हैं, उसका अभिमान करते हैं। यदि राई भर यानि जरा-सा भी अभिमान जीव को किसी भी प्रकार का है, वह बहिश्त (स्वर्ग) में पैर भी नहीं रख सकेगा। फिर मकबूल नाम के रसूल ने कहा कि जो दीन यानि आधीन होते हैं। उनको बड़ी पदवी प्राप्त होती है। पृष्ठ 11 पर कहा है कि कोई धन का अभिमान करता है। वह भी नरक का भागी होता है।

कबीर, सब जग निर्धना, धनवन्ता ना कोई। धनवन्ता सो जानियो, राम नाम धन होई।।
प्रथम अमीर (धनवंता) कबीर भया, पुनि अकबर अल्लाह। सो कबीर अकबर सोई, कहे कि ब्रिया ताह।।
अल्लाह जब बनि बैठिऊ, पहुँची उनकी मौत। दोजख में दाखिल भये, राजा सहित सब फौज।।

भावार्थ:- संसार में कोई धनवान नहीं है, सब निर्धन हैं। यदि कोई सांसारिक धनवान है तो मृत्यु के तुरंत बाद वह निर्धन है। केवल भक्त ही धनवान है, और कोई धनवान नहीं है। संसार में या तो कबीर धनवान है, या अकबर अल्लाह है। कबीर या अल्लाह अकबर एक ही है। अन्य व्यक्ति जो अपने आपको परमात्मा मानता है, जैसे वर्तमान में जज अपने आपको लाॅर्ड मानते हैं।

यदि कोई वकील खासकर हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों को डल स्वतक यानि मेरे मालिक कहकर संबोधित नहीं करते तो उनको कोर्ट से लाभ मिलने का अवसर कम होता है। जीव को होना चाहिए आधीन। बिना आध्यात्मिक ज्ञान के कारण जीव स्वयं को परमात्मा के तुल्य मानता है तो उसकी भारी भूल है। वह नरक में डाला जाता है। पृष्ठ 12 पर कहा है कि जिन्होंने सिर उठाया यानि अभिमान किया, उनका सिर टूटा है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 13 से 16 तक काम (sex) के अवगुण बताए हैं। इनमें कुछ वाणी छोड़ी गई हैं, कुछ जोड़ी गई हैं। यथार्थ ज्ञान संत गरीबदास जी ने बताया है जो संत गरीबदास जी की अमृतवाणी में ‘‘नारी के अंग‘‘ में लिखी हैं। इस जीव धर्म बोध में केवल नारी को दोषी बताया है। यह कबीर पंथियों का गलत नजरिया रहा है जिन्होंने कबीर जी के ग्रन्थ का नाश किया है।
जो घर त्यागकर या तो आश्रमों में रहते थे या विचरण करते थे। जिन्होंने विवाह नहीं किया था, उन्होंने अपने आपको उत्तम सिद्ध करने के लिए एकतरफा वाणी लिखी हैं जो नारी पक्ष की वाणी थी, वे काट दी गई हैं। संत गरीबदास जी ने अपनी वाणी में परमेश्वर कबीर जी की विचारधारा लिखी है।

संत गरीबदास जी की वाणी - कामी नर के अंग से

गरीब, कामी कर्ता ना भजै, हिरदै शूल बंबूल। ज्ञान लहरि फीकी लगै, गये राम गुण भूल।।1
गरीब, कामी कमंद चढै नहीं, हिरदै चंचल चोर। जाका मुख नहीं देखिये, पापी कठिन कठोर।।2
गरीब, कामी तजै न कामना, अंतर बसै कुजान। साधु संगति भावै नहीं, जुगन जुगन का श्वान।।3
गरीब, कामी तजै न कामना, हिरदा जाका बंक। जमपुर निश्चय जायगा, ज्ञानी मिलो असंख।।4
गरीब, कामी तजै न कामना, काला मौंहडा ताहि। जमपुर निश्चय जायगा, मौसी गिनैं न माय।।5
गरीब, कामी तजै न कामना, ना हिरदै हरि हेत। जमपुर निश्चय जायगा, सारे कुटुंब समेत।।6
गरीब, कामी जमपुर जात है, सतगुरु सैं नहीं साट। मसक बांध जम ल े गया, कुलकूं लाया काट।।7
गरीब, हमरी बानी ना सुनैं, जम किंकर की मान। छाती तोरै देख तैं, होगी खैंचा तान।।8
गरीब, हमरी बानी ना सुनैं, पूजैं घोर मसीत। मसक बांधि जम ले गये, नहीं छुटावंै भीत।।9
गरीब, हमरी बानी ना सुनैं, देवल पूजन जाय। मसक बांधि जम ले गये, जुगन जुगन डहकाय।।10
गरीब, हमरी बानी ना सुनैं, ना सतगुरु का भाव। मसक बांधि जम ले गये, देकर बहुत संताव।।11
गरीब, कामी केला वृक्ष है, अंदर सैं थोथा। सतगुरु सतगुरु कहत है, ज्यूं पिंज्जर तोता।।12
गरीब, कामी का गुरु कामिनी, जैसी मीठी खांड। जोगनि जमपुर ले गई, मारे भडवे भांड।।13
गरीब, कामी कीड़ा नरक का, अंतर नहीं बिवेक। जोगनि जमपुर ल े गई, क्या जिन्दा क्या शेख।।14
गरीब, कामी कीड़ा नरक का, क्या बैराग सन्यास। जोगनि जमपुर ले गई, बीतैं बहुत तिरास।।15
गरीब, कामी कीड़ा नरका का, क्या षट् दरशन भेष। जोगनि जमपुर ल े गई, टुक आपा भी देख।।16
गरीब, साकट कै तो हरता करता, संतौं कै तो दासी। ज्ञानी कै तो धूमक धामा, पकरलिया जग फांसी।।17
गरीब, साकट क ै तो हरता करता, संतौं क ै तो चेरी। ज्ञानी क ै तो दारमदारा, जगकूं देहै लोरी।।18
गरीब, तीन लोक में नाहिं अघाई, अजब चरित्रा तेरे। सुरनर मुनिजन ज्ञानी ध्यानी, कीन्हैं सकल मुजेरे।।19
गरीब, इन्द्र क ै अर्धंगी नारी, भई उर्बशी हूरं। तीन लोक में डंका डाकनि, मार लिये सब घूरं।।20
गरीब, लोकपाल तौ लूट लिये हैं, नारद से मुनी ध्यानी। पाराऋषि श्रृंगी ऋषि मोहे, सुनिले अकथ कहानी।।21
गरीब,अजयपालका कियाअलूफा,पकरि मच्छंदर खाया। कच्छदेश में गोरख पकरे,सतगुरुआंनछुटाया।।22
गरीब, गोपीचंद भरथरी होते, छाड़ि गये अर्धंगी। शुकदेव आगै हुरंभा आई, हो नाची ह ै नंगी।।23
गरीब, बोलै शुकदेव सुनरी दूती, तूं हमरै क्यूं आई। हमतो बाल जती बैरागी, तूं ह ै हमरी माई।।24
गरीब, मैं तुमरी अर्धंगी नारी, तूं हमरा भर्तारं। स्वर्ग लोक सैं हम चलि आई, देखो नाच सिंगारं।।25
गरीब, तुमरी नजर कुटिल है दूती, कड़वे नैंन कटारे। माता को तो नाता राखौं, हम हैं पुत्रा तुम्हारे।।26
गरीब,सुलतानी तज बलख बुखारा, सोला सहंस सहेली। ठारा लाख तुरा जिन छाड्या, बंके बाग हवेली।।27
गरीब, नारी नांही नाहरी, बाघनि बुरी बलाय। नागनि सब जग डसि लिया, सतगुरु करै सहाय।।28
गरीब, नारी नांही नाहरी, बाघनि बुरी बलाय। नागनि सब जग डसि लिया, सतगुरु लिये छुटाय।।29
गरीब, सब जग घाणैं घालिया, बड़ी मचाई रौल। तपी उदासी ठगि लिये, ले छोड़े जम पौल।।30
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, खाती है दरवेश। बिष्णु बिसंभर से रते, मोहे शंकर शेष।।31
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, शिर टौरा रविचंद। तेतीसांे देवा डसे, पकरि लिये हैं इन्द।।32
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, बाघनि है महमंत। ब्रह्मा का मन डिग्या, कहा करेंगे पंथ।।33
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, बाघनि है महमंत। जीव बापरे की कौन चलावै, पकरि लिये भगवंत।।34
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, बाघनि किये संघार। अनाथ जीव की कौन चलावै, पकर लिये अवतार।।35
गरीब, नारी नाहीं नाहरी, बाघनि है महमंत। सतगुरु के प्रताप सैं, उबरे कोईक संत।।36
बाघनि आईरे बघनी, बाघनि आईरे बघनी। नागनि खाती है ठगनी, नागनि खाती है ठगनी।।37
मुनियर मोहे हंै दूती, मुनियर मोहे हैं दूती। सतगुरु कै काली कूती, सतगुरु कै काली कूती।।38
इन्द्र कै तो पटरानी, इन्द्र कै तो पटरानी। ब्रह्मा भरता है पानी, ब्रह्मा भरता है पानी।।39
शंकर पलकौं पर राखै, शंकर पलकौं पर राखै। वृषभ पर चढि कर हांकै, वृषभ पर चढि कर हांकै।।40
बिष्णु बिलावल बीना है, बिष्णु बिलावल बीना है। लक्ष्मी स्यूं ल्यौ लीना है, लक्ष्मी स्यूं ल्यौ लीना है।।41
त्रिगुण ताना है तूरा, त्रिगुण ताना है तूरा। साधू निकसैंगे शूरा, साधू निकसैंगे शूरा।।42
याह मल मुत्रा की काया, याह मल मुत्रा की काया। दुर्बासा गोता खाया, दुर्बासा गोता खाया।।43
डाकनि डांडैरे डोबै, डाकनि डांडैरे डोबै। बैठी पास नहीं शोभै, बैठी पास नहीं शोभै।।44

(क)।। पूज्य कबीर जी तथा माया का संवाद।।

माया सतगुरु सूं अटकी, माया सतगुरु सूं अटकी। जोगनि हमरै क्यूं भटकी, जोगनि हमरै क्यूं भटकी।।45
हम तो भगलीगर जोगी, हम तो भगलीगर जोगी। हम नहीं मायाके भोगी, हम नहीं मायाके भोगी।।46
तोमैं झगरा है भारी, तोमैं झगरा है भारी। मारे बड़ छत्राधारी, मारे बड़ छत्राधारी।।47
सेवा करिसूं मैं नीकी, सेवा करिसूं मैं नीकी। हमकूं लागत है फीकी, हमकूं लागत है फीकी।।48
हमरी सार नहीं जानी, हमरी सार नहीं जानी। अरीतैंतोघालि दई घानी, अरीतैंतोघालि दई घानी।।49
चलती फिरती क्यूं नांहीं,चलती फिरती क्यूं नांहीं। हम रहते अबिगत पद मांही,हम रहते अबिगतपद मांहीं।।50
अरी तूं गहली है गोली, अरी तूं गहली है गोली। दाग लगावैगी चोली, दाग लगावैगी चोली।।51
मेरा अंजन है नूरी, मेरा अंजन है नूरी। अंदर महकै कस्तूरी, अंदर महकै कस्तूरी।।52
तुम किसी राजा प ै जावो, तुम किसी राजा पै जावो। हमरे मन नांहीं भावो, हमरे मन नाहीं भावो।।53
मैं तो अर्धगीं दासी, मैं तो अर्धगीं दासी। हम हैं अनहदपुर बासी, हम हैं अनहदपुर बासी।।54
हमरा अनहद में डेरा, हमरा अनहद में डेरा। अंत न पावैगी मेरा, अंत न पावैगी मेरा।।55
हमतो आदि जुगादिनिजी, हमतो आदि जुगादिनिजी। अरी तुझे माता कहूंकधी,अरी तुझे माता कहूंकधी।।56
अब मैं देऊंगी गारी, अब मैं देऊंगी गारी। हमतो जोगी ब्रह्मचारी, हमतो जोगी ब्रह्मचारी।।57
आसन बंधूंगी जिंदा, आसन बंधूंगी जिंदा। गल में डारौंगी फंदा, गल में डारौंगी फंदा।।58
आसन मुक्ता री माई, आसन मुक्ता री माई। तीनूं लोक न अघाई, तीनूं लोक न अघाई।।59
हमरै द्वारै क्यूं रोवौ, हमरै द्वारै क्यूं रोवौ। किसी राजाराणेकूं जोवौ, किसी राजाराणेकूं जोवौ।।60
हमरै भांग नहीं भूनी, हमरै भांग नहीं भूनी। माया शीश कूटि रूंनी, माया शीश कूटि रूंनी।।61
तूंतो जोगनि है खंडी, तूंतो जोगनि है खंडी। मौहरा फेरि चली लंडी, मौहरा फेरि चली लंडी।।62
हेला दीन्हारि भाई, हेला दीन्हारि भाई। हंसा परसत ही खाई, हंसा परसत ही खाई।।63

(ख)।। बुरी नारी के विषय में।।

गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, बोले मधुरे हेत। फेट परै छोडैं नहीं, क्या मगहर कुरुखेत।।64
गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, बोलै मधुरे बोल। फेट परै छोडै़ं नहीं, काढै घूंघट झोल।।65
गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, बोले मधुरे बोल। कोईक साधू ऊबरे, मुनिजन पीये घोल।।66
गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, जामें अनगिन खोट। फांसी डारै बाहि कर, करै लाख में चोट।।67
गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, बोलै मुधरे बैंन। जाकूं नहीं पतीजिये, घूंघट घट में सैंन।।68
गरीब, बद नारी लंगर कामिनी, बोले मधुरे बैंन। जाके पास न बैठिये, जाका कैसा दैंन।।69
गरीब, बद नारी नाहीं नाहरी, है जंगल का शेर। बाहर भीतर मारि है, मुनि जन कीये जेर।।70
गरीब, सतगुरु हेला देत हैं, सुनियों संत सुजान। बद नारी पास न बैठिये, बद नारी आई खान।।71
गरीब, नैंनौं काजर बाहि कर, खाय लिये हैं हंस। हाथौं महंदी लाय कर, डोबि दिये कुल बंश।।72
गरीब, उलटि मांग भराय कर, मंजन करि हैं गात। मीठी बोलै मगन होय, लावै बौह बिधि घात।।73
गरीब, पूत पूत करि खा गई, भाई बीरा होय। खसम खसम करि पीगई, बदनारी विष की लोय।।74
गरीब, क्या बेटी क्या बहन है, क्या माता क्या जोय। बदनारी काली नागिनी, खाते होय सो होय।।75
गरीब, माया काली नागनी, अपने जाये खात। कुंडली में छोडै़ नहीं, सौ बातौं की बात।।76
गरीब, कुंडली में सैं नीकले,रहदास दत्त संग कबीर। शुकदेव ध्रु प्रहलाद से, नहीं निकलेरणधीर।।77
गरीब, कुंडली में सैं नीकले, सुलतानी बाजीद। गोपीचंद ना भरथरी, लाई डाक फरीद।।78
गरीब, जनक विदेही नहीं ऊबरे, नागनी बंधी डाढ। नानक दादू ऊबरे, ले सतगुरु की आड।।79
गरीब, तीन लोक घाणी घली, चैदाह भुवन विहंड। माया नागनि खा लिये, सकल द्वीप नौ खंड।।80
गरीब, बदनारी काली नागनी, देखत ही डसि खाय। बोले से तप खंड होय, परसे सरबस जाय।।81
गरीब, बदनारी काली नागनी, मारत है भरि डंक। सुरनर मुनिजन डसि लिये, खाये राव रु रंक।।82
गरीब, बदनारी काली नागनी, मारत है भरि डंक। शब्द गारङू जो मिले, जाकूं कछु न शंक।।83
गरीब, नाग दमन कूं नमत है, घालि पिटारे खेल। साचा सतगुरु गारङू, लहरि न व्यापै पेल।।84
गरीब, कामी कोयला हो गया, चढै न दूजा रंग। पर नारी स्यूं बंधि गया, कोटि कहो प्रसंग।।85
गरीब, पर नारी नहीं परसिये, मानों शब्द हमार। भुवन चतुरदश तास पर, त्रिलोकी का भार।।86
गरीब, परनारी नहीं परसिये, सुनों शब्द सलतंत। धर्मराय के खंभ सैं, अधमुखी लटकंत।।87
गरीब, आवत मुख नहीं देखिये, जाती की नहीं पीठ। क्या अपनी क्या और की,सब ही बद नारि अंगीठ।।88
गरीब, क्या अपनी क्या और की, सब का एकै मंत। पारस पूंजी जात है, पारा बिंद खिसंत।।89
गरीब, क्या अपनी क्या और की,सब एक सी बदनार। पारस पूंजी जात है, खिसता बिंद सिंभार।।90
गरीब, बोलूंगा निर्पक्ष हो, जो चाहै सो कीन। क्या अपनी क्या और की, सब ही बदनारि मलीन।।91

(क)।। नेक नारी की महिमा।।

गरीब, नारी नारी भेद है, एक मैली एक पाख। जा उदर ध्रुव ऊपजे, जाकी भरिये साषि।।92
गरीब, कामनि कामनि भेद है, एक मैली एक पाख। जा उदर प्रहलाद थे, जाकूं जोरौं हाथ।।93
गरीब, कामनि कामनि भेद है, एक उजल एक गंध। जा माता प्रणाम है, जहां भरथरि गोपीचंद।।94
गरीब, कामनि कामनि भेद है, एक हीरा एक लाल। दत्त गुसांई अवतरे, अनसूया कै नाल।।95
गरीब, कामनि कामनि भेद है, एक रोझं एक हंस। जनक बिदेही अवतरे, धन्य माता कुलबंश।।96
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी बहु गुण भेव। जा माता कुरबान है, जहां उपजे शुकदेव।।97
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी कंचन कूप। नारी सेती ऊपजे, नामदेव से भूप।।98
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी भक्ति बिलास। नारी सेती ऊपजे, धना भक्त रैदास।।99
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी कंचन सींध। नारी सेती ऊपजे, बाजीदा रु फरीद।।100
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी में बौह भांत। नारी सेती ऊपजे, शीतलपुरी सुनाथ।।101
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी कूं निरताय। नारी सेती ऊपजे, रामानंद पंथ चलाय।।102
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी नर की खान। नारी सेती ऊपजे, नानक पद निरबान।।103
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी सरगुण बेल। नारी सेती ऊपजे, दादू भक्त हमेल।।104
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी का प्रकाश। नारी सेती ऊपजे, नारदमुनि से दास।।105
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी निर्गुण नेश। नारी सेती ऊपजे, ब्रह्मा बिष्णु महेश।।106
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी मूला माय। ब्रह्म जोगनी आदि है, चरण कमल ल्यौ लाय।।107
गरीब, नारी नारी क्या करै, नारी बिन क्या होय। आदि माया ऊँकार है, देखौ सुरति समोय।।108
गरीब, शब्द स्वरूपी ऊतरे, सतगुरु सत्य कबीर। दास गरीब दयाल हैं, डिगे बंधावैं धीर।।109

भावार्थ:- संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त ज्ञान को अपने शब्दों में इस प्रकार बताया है कि जो पुरूष कामी (debauchee) यानि दुराचारी है। वह भी पाप का भागी है और नारी यदि व्याभिचारिणी है तो वह भी पाप की भागी है। जिन माताओं के गर्भ से उच्च संतों का जन्म हुआ है, वे नारी आदरणीय हैं। नारी से ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जन्म हुआ, नारी से दत्तात्रोय जैसे महापुरूष का जन्म हुआ। नारी से धना भक्त, नानक देव, स्वामी रामानंद, संत दादू जी आदि महापुरूषों का जन्म हुआ।

गरीब, नारी नारी क्या करे, नारी नर की खान। नारी सेती उपजे, नानक पद निरबान।।

भावार्थ:- नारी-नारी के पीछे क्यों पड़े हो? नारी तो नर की खान है। खान का भावार्थ है कि सौ-सौ पुत्रों को जन्म एक नारी ने दिया है। यदि नारी न होती तो नारी को जो बुरी कहते हैं, वे कहाँ से जन्म लेते? भावार्थ स्पष्ट है कि दुराचारी चाहे स्त्राी हो या पुरूष, दोनों ही पाप के भागी हैं। यदि भक्ति करते हैं तो उनके पाप क्षमा हो जाते हैं। सत्संग विचारों तथा भक्ति के प्रभाव से विकार समाप्त हो जाते हैं। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि यदि आप किसी व्यक्ति को इस कारण से गंदा मानते हो कि उसने किसी परनारी से संबंध किया है।

कबीर, आग पराई आपनी, हाथ दियें जल जाये। नारी पराई आपनी, परसें बिन्द नसाया।।

भावार्थ:- जैसे अग्नि अपने घर की हो, चाहे दूसरे घर की, हाथ देने से हाथ जलेगा। इसी प्रकार स्त्राी अपनी हो या अन्य की, मिलन करने से एक जैसी ही हानि होती है। परंतु भक्ति मार्ग पर लगने से सुधार हो जाता है। दोनों ही पार हो जाते हैं।

गीता अध्याय 9 श्लोक 30 में भी कहा है कि यदि कोई अतिश्य दुराचारी भी क्यों न हो, यदि वह परमात्मा में विश्वास रखता है तो साधु मानने योग्य है। सत्संग में आने से सुधार हो जाता है और कल्याण को प्राप्त हो जाता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 17 (1925) से 18 (1926) तक क्रोध तथा लोभ का वर्णन है।

पृष्ठ 17-18 की वाणियों का भावार्थ:-

क्रोध के विषय में कहा है कि क्रोध को महाकाल कहा जाता है। यह बुद्धि का नाश करता है। क्रोध सदा अपने से निर्बल पर आता है। अपने से बलवान पर नहीं आता। प्रत्येक जीव में क्रोध परिपूर्ण है। किसी कीड़े को यदि कोई छूता है तो वह छटपटाता है। वह मन में विचार करता है कि जिसने मुझे छूआ है, उसको मार डालूं। जब बलवान दिखता है तो चुप हो जाता है। यह क्रोध का प्रभाव है।

लोभ

लोभ करने वाला कभी शुभ कर्म नहीं कर सकता। धन जोड़कर रख जाता है। फिर नरक का भागी बनता है। उसका धन या तो उसके सामने ही किसी कारण से नष्ट हो जाएगा या कोई चोर, डाकू, लुटेरा उसको मार-कूटकर छाती पर पैर रखकर छीन ले जाएगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य बताया है कि वह भक्ति करे, गुरू बनाए और फिर दान अवश्य करे। महाभारत ग्रन्थ में एक प्रकरण है कि राजा परिक्षित ने कलयुग को वश कर लिया था। कलयुग ने कहा था मुझे दो स्थानों पर रहने की आज्ञा दे दो। एक तो स्वर्ण (gold) पर, दूसरे शराब पर। राजा परीक्षित ने उसको यह शर्तें मानकर छोड़ दिया। एक दिन राजा सिर पर स्वर्ण लगा मुकुट धारण करके शिकार करने जंगल में गया। कलयुग ने मारवी का रूप बनाया और राजा परिक्षित के स्वर्ण के मुकुट पर बैठ गया। जिस कारण से राजा परीक्षित का मन कलयुग के प्रभाव से दूषित हो गया।राजा ने एक भीण्डी नाम के ऋषि से जंगल से बाहर जाने का मार्ग पूछा। ऋषि साधना में लीन था, सुना नहीं। जिस कारण से कोई उत्तर नहीं दिया। राजा ने एक मृत सर्प शरारतवश ऋषि के गले में डाल दिया। ऋषि का पुत्रा बच्चों में खेल रहा था। बच्चों ने उसे बताया कि राजा परीक्षित ने आपके पिता के गले में सर्प डाल दिया है। ऋषि के बच्चे ने शाॅप दे दिया कि आज से सातवें दिन परीक्षित राजा को तक्षक सर्प डसेगा, उसकी मृत्यु हो जाएगी। ऐसा ही हुआ। इसलिए भक्तों को चाहिए कि वे सोने (gold) का प्रयोग कभी न करें।

फिर कहा है कि मुसलमान धर्म में भी कहा है कि स्वर्ण में शैतान का निवास है। इबलिस नाम का शैतान बताया है। वह कहता है कि जो सूम यानि कंजूम जो धर्म नहीं करता, वह मेरा मित्र है। उसको नरक लेकर जाऊँगा।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि यदि जप, तप साधु भी करता है और दक्षिणा से पुण्य नहीं करता तो उसका वह प्रयत्न व्यर्थ है।

जो कछु पाप करे सो दाता। दान किये सो सकल निपाता।।

दान से पाप नष्ट हो जाता है। सभी धर्मों का यही मत है कि जो लोभ करता है, दान नहीं करता, वह नरक में गिरता है।

मोह

जिस परिवार में प्राणी जन्म लेता है, उसी में मोह हो जाता है। संपत्ति, माता-पिता, भाई-बहन फिर पति-पत्नी तथा संतान के मोह में जकड़ जाता है। जब सतगुरू मिलता है तो सर्व ज्ञान हो जाता है। फिर केवल अपना फर्ज तथा कर्ज जानकर सांसारिक कर्म करता है तथा भक्ति तथा शुभ कर्मों पर अधिक धन लगाता है। इस प्रकार उपरोक्त विकारों से छुटकारा पाकर कल्याण को प्राप्त होता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 20 से 28 तक का सारांश:-

कर भला हो भला, करे बुरा हो बुरा

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि कर भला यानि दूसरे का भला करने से अपना भला होता है। दूसरा का बुरा करने से अपना बुरा होता है।

उदाहरण:- एक सेठ के पास एक बैल था। उसके ऊपर सामान लादकर बाजार ले जाया करता। पुराने जमाने में ऐसे ही सामान लाने-ले जाने की सुविधा होती थी। उस समय बैलगाड़ी का विकास नहीं हुआ था। व्यापारी लोग बैलों पर गधे की तरह बोरा (थैला) रखकर सामान का लाना-ले जाना करते थे। उस सेठ के पड़ोस में एक धोबी रहता था। उसके पास एक गधा था। गधा कभी-कभी ऊँचे स्वर में बोलता था। सेठ माया का जोड़ करता था। गधा बोलने लगता, सेठ गिनती भूल जाता। सेठ कहता था कि धोबी का गधा मर जाए तो शांति हो जाए। एक दिन सेठ का बैल मर गया। फिर वह मोगल नामक सेठ परमात्मा को दोष देने लगा कि हे भगवान! तूने यह क्या किया?

एक किसान दूसरे किसान की फसल खेत के बीच से काटकर अपने घर ले जाता था। दूसरा किसान उसकी फसल की रखवाली अपनी फसल के साथ-साथ करता था। कोई पशु उसके खेत में फसल खाने के लिए घुस जाता तो दूसरा किसान उसकी फसल से आवारा पशु को निकालता था। जो चोरी करता था, उसकी फसल को रोग लग गया। दूसरे किसान की फसल सामान्य से अधिक निकली। तब उस चोर को अहसास हुआ तथा अपनी गलती मानी। तब दूसरे किसान ने कहा, हे भाई! सतगुरू जी कहते हैं कि चोर कभी धनवान नहीं होता। चोरी करता है सौ रूपये की, उसको हानि होती है हजार रूपये की। उसको जिसके धन की चोरी चोर करता है, उसको परमात्मा अधिक देता है। इस प्रकार भला करने वाले का भला तथा बुरा करने वाले का बुरा होता है।

कर्म बंधन तथा छुटकारा

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि सर्व प्राणी कर्मों के वश जन्मते-मरते तथा कर्म करते हैं। कर्मों के बंधन को सतगुरू छुड़ा देता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 29 (1937) -30 (1938):- 

सार शब्द गुप्त रखने को कहना

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से प्रतिज्ञा कराई थी कि सार शब्द को गुप्त रखना है। अपने परिवार को भी नहीं बताना है। यदि यह सार शब्द बाहर चला गया तो बिचली पीढ़ी (यानि कलयुग के पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीतने पर जो भक्ति युग प्रारम्भ होगा, वह बिचली पीढ़ी परमेश्वर कबीर जी ने कही है।) के हंस पार नहीं हो पाएंगे क्योंकि यदि काल द्वारा चलाए गए कबीर जी के नाम से बारह पंथ तथा सतलोक और सतपुरूष के नाम पर चल रहे राधा स्वामी पंथ (आगरा, ब्यास, दिनौंद जिला-भिवानी में तथा धन-धन सतगुरू पंथ सच्चा सौदा सिरसा तथा जगमाल वाली जिला-सिरसा तथा मथुरा में जय गुरूदेव पंथ ये सब राधा स्वामी पंथ से निकले पंथ हैं और सब सतलोक तथा सतपुरूष की चर्चा करते हैं।) के संतों को सत्यनाम तथा सार शब्द का पता चल गया तो ये भी यही नाम मंत्रा दीक्षा में दिया करेंगे। ये अधिकारी होंगे नहीं, जिस कारण से सत्यनाम तथा सार शब्द उनसे प्राप्त करके जाप करने से लाभ नहीं होगा। उस समय सन् 1997 तक ये सब पंथ चरम पर होंगे। करोड़ों अनुयाई बन चुके होंगे। जब हम जाऐंगे या अपना निजी दास भेजेंगे तो नाम तो वे ही देने हैं। उनके बिना मोक्ष नहीं हो सकता। सब मानव भ्रमित हो जाएंगे कि दीक्षा मंत्र तो एक जैसे हैं, वे पंथ पुराने हैं क्योंकि वे काल द्वारा पहले चलाए जाऐंगे। अनुयाईयों की सँख्या भी अत्यधिक है। इसलिए उन्हीं से दीक्षा लेनी चाहिए। इस प्रकार सार शब्द का भेद अन्य को लगने से मेरे मिशन (योजना) का नाश हो जाएगा। तुझे महापाप लगेगा। फिर बताया है कि हे धर्मदास! आपने जन्म-जन्मांतर में भक्ति की थी जिस कारण से यह सार शब्द तुझे दिया है। कलयुग की बिचली पीढ़ी को पहले गायत्राी पाँच नाम मंत्रा को सात नाम का बनाकर दिया जाएगा। उसकी साधना कराई जाएगी। सत्यनाम की दीक्षा दी जाएगी। उसकी साधना कराई जाएगी। इस प्रकार भक्ति युक्त करके सार शब्द देकर अनगिन जीवों को उस समय (जब कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा और एक यथार्थ पंथ चलाएंगे) पार करेंगे। जो तेरे परिवार की बिंद पीढ़ी चूड़ामणी को पाँच नाम गायत्राी मंत्रा के दिए हैं। यदि इन नामों का जाप मर्यादा में रहकर करते रहेंगे तो तेरी संतान तथा जो इन से दीक्षा लेकर इन पाँच नामों का जाप करते रहेंगे तो उनको मनुष्य (स्त्राी-पुरूष) का जन्म प्राप्त होता रहेगा। फिर वे उस समय (जब कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा) यानि सन् 1997 के पश्चात् तेरी पीढ़ी वाले भी उसी पंथ से दीक्षित होकर कल्याण को प्राप्त हो जाएंगे। तेरा वंश बयालीस (42) पीढ़ी तक अवश्य चलेगा, परंतु तेरी छठी गद्दी (पीढ़ी) वाले को काल द्वारा चलाए टकसारी पंथ वाला भ्रमित करेगा। जिस कारण से वह छठी पीढ़ी वाला तेरा बिंद वाला यथार्थ भक्ति त्यागकर टकसारी वाला पान-प्रवाना प्रारम्भ करेगा। आरती-चैंका भी वही प्रारम्भ करेगा। जब हम यथार्थ पंथ चलाएंगे, उस समय तेरे वंश वाले उस पंथ से दीक्षा लेकर कल्याण कराएंगे। उस समय सारा विश्व ही मेरी यथार्थ भक्ति उस मेरे अंश से दीक्षा लेकर करेगा। तब तेरे बिंद वाले भी दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त करेंगे। इसलिए इस सारशब्द (मुक्ति शब्द) को तथा मूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) को उस समय तक छुपा कर रखना है, यह मेरी लाख दुहाई (निवेदन) है। यही प्रमाण कबीर सागर में कबीर बानी अध्याय के पृष्ठ 136-137 पर भी है जिसमें बारह पंथो का वाणी में प्रमाण है। पढ़ें वह प्रकरण इसी पुस्तक में कबीर बानी अध्याय के सारांश में पृष्ठ 337 पर।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 31(1939) से 41(1949) तक सामान्य ज्ञान है।

पृष्ठ 35(1943) पर लिखा है कि:-

साखी-तीर्थ गए एक फल संत मिल फल चार। सतगुरू मिले अनेक फल कहै कबीर विचार।।

भावार्थ:- तीर्थ पर जाने का एक फल यह है कि कोई पूर्ण संत मिल जाता है। जिस कारण से उस भ्रमित आत्मा को सच्चा मार्ग मिल जाता है। संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि:- 

गरीब, मेलै ठेलै जाईयो, मेले बड़ा मिलाप। पत्थर पानी पूजते, कोई साधु संत मिल जात।।

भावार्थ:- संत गरीबदास जी ने कहा है कि तीर्थों पर जो भक्तों के मेले लगते हैं। वहाँ जाते रहना। हो सकता है कभी कोई संत मिल जाए और कल्याण हो जाए। जैसे धर्मदास जी तीर्थ भ्रमण पर मथुरा-वृदांवन गया था। वहाँ स्वयं परमेश्वर कबीर जी ही जिन्दा संत के रूप में मिले और धर्मदास जी का जन्म ही सुधर गया, कल्याण को प्राप्त हुआ।

संत मिले फल चार का भावार्थ है कि संत के दर्शन से परमात्मा की याद आती है। यह ध्यान यज्ञ है। संत से ज्ञान चर्चा करने से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है। यह दूसरा फल है। तीसरा फल जब संत घर पर आएगा तो भोजन की सेवा का फल मिलेगा तथा चैथा फल यदि संत नशा नहीं करता है तो उसको रूपया या कपड़ा वस्त्रा दान अवश्य देता है। इस प्रकार संत मिले फल चार। जब सतगुरू मिल गए तो सर्व मिल गए, मोक्ष भी मिल गया।

कबीर सागर में ज्ञान का अज्ञान बनाने का प्रमाण जीव धर्म बोध पृष्ठ 37 (1945) पर लिखी वाणी में है:-

कबीर खड़े बाजार में, गलकटों के पास। जो कोई करे सो भरेंगे, तुम क्यों भये उदास।।

वास्तविक वाणी इस प्रकार है:-

कबीरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास। करेंगे सो भरेंगे, तू क्यों भया उदास।।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 38 (1946) पर:-

काल कराल आप ही जानी। ब्रह्मा विष्णु महेश भवानी।।

संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि:-

तीनों देवा काल हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश। भूले चुके समझियो, सब काहु आशीष।।
गरीब, ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराया (काल) कहिए।
इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, वाणी हमरी लहिए।।

कबीर परमेश्वर जी ने जीव धर्म बोध पृष्ठ 40(1948) पर कहा है कि:-

सबही संत श्रुति कहे बखानी। नर स्वरूप नारायण जानी।।
लिखो भेद बेद वेदान्ता पुराना। जबूर, तौरेत, इंजिल, कुराना।।
सब ही मिल करते निरधारा। नर प्रभु निज स्वरूप संवारा।।
निश्चय नर नारायण देही। ऋषि मुनि प्रभु कूं निराकार कहेही।।
बेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचैं पुराण अठारा।
सब ग्रन्थ कहैं प्रभु नराकार, ऋषि कहैं निराकारा।।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 41 (1949) पर वाणी:-

उत्तम धर्म जो कोई लखि पाये। आप गहैं औरन बताय।।
तातें सत्यपुरूष हिये हर्षे। कृपा वाकि तापर बर्षे।।
जो कोई भूले राह बतावै। परम पुरूष की भक्ति में लावै।।
ऐसो पुण्य तास को बरणा। एक मनुष्य प्रभु शरणा करना।।
कोटि गाय जिनि गहे कसाई। तातें सूरा लेत छुड़ाई।।
एक जीव लगे जो परमेश्वर राह। लाने वाला गहे पुण्य अथाह।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि एक मानव (स्त्राी-पुरूष) उत्तम धर्म यानि शास्त्र अनुकूल धर्म-कर्म में पूर्ण संत की शरण आता है, औरों को भी राह (मार्ग) बताता है। उसको परमेश्वर हृदय से प्रसन्न होकर प्यार करता है। जो कोई एक जीव को परमात्मा की शरण में लगाता है तो उसको बहुत पुण्य होता है। एक गाय को कसाई से छुड़वाने का पुण्य एक यज्ञ के तुल्य होता है। करोड़ गायों को छुड़वाने जितना पुण्य होता है, उतना पुण्य एक जीव को काल से हटाकर पूर्ण परमात्मा की शरण में लगाने का मध्यस्थ को होता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 42 (1950) से 61 (1969) तक का सारांश:-

पृष्ठ 42-43 पर सामान्य ज्ञान है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 44 (1952) पर:-

परमात्मा की कृपा बिना परिश्रम (कर्म) भी साथ नहीं देता

चैपाई

पुरूषारथकी ऐसी बातें। कर अवश्य पुरूषारथ ताते।।
यथा कृषान कृषानी करई। उपजैं अन्न पेट निज भरई।।
हलबाही अवश्य तेहि करना। भली भांति निजखेत सँवरना।।
बीज बोय रखवाली कीजै। पशु पंछी से बचाव करीजै।।
करि निज श्रम बिनवै प्रभुपाही। भरे खेत वर्षाकरि ताहि।।
जौ ईश्वर वर्षा नहिं करई। वृथा कृषानी ताकी परई।।
जौ बरषैं बर्षा सुकाला। तो कृषान सो होय निहाला।।
जौ आलस करिके नर कोई। संशय पै हल जोतै नहिं सोई।।
बीज न बोय न कर रखवारी। बर्षै घन अरू भरे कियारी।।
ताहि अन्न फल हाथ न आये। मूरख मिथ्या आस लगाये।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि यदि कोई भक्ति करता है और उसके ऊपर परमेश्वर कृपा नहीं करता है तो उसकी साधना व्यर्थ हो जाती है। कहने का तात्पर्य है कि भक्ति करता है और मन में अभिमान भी रखता है तो उस पर परमेश्वर की कृपा वर्षा नहीं होती। जिस कारण से उसकी भक्ति नष्ट हो जाती है।

उदाहरण:- जैसे पूर्व समय में खेती (कृषि) पूर्ण रूप से वर्षा पर निर्भर थी। इसलिए कहा कि जैसे किसान खेत में बीज बोता है। परिश्रम करता है, यदि परमेश्वर समय पर वर्षा न करे तो उसकी फसल व्यर्थ हो जाती है। भले ही किसान फसल बीजने के लिए हल चलाता है, बीज बोता है। पशु-पक्षी से भी रक्षा करता है। बहुत परिश्रम करता है। वर्षा न होने से उसका सर्व
परिश्रम कर्म व्यर्थ गया।

कर्म न यारी देत है, भसमागीर भस्मन्त।
कर्म व्यर्थ है तास का, जे रीझै नहीं भगवन्त।।

जो खेत में बीज नहीं बोता है। फिर वर्षा हो जाती है। यदि वह मूर्ख फसल पाने की आशा लगाता है तो भी व्यर्थ है।

भावार्थ है कि भक्ति कर्म भी करे और परमेश्वर का कृपा पात्रा भी बना रहे तो जीव को लाभ मिलता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 46(1954) पर:-

मनुष्य को नित्य कर्म वर्णन-चैपाई

भोरहि उठि नित कर्म करीजै। करि तन शुद्ध भजन चित दीजै।।
प्रभु प्रति बिनय बचनते मांगे। महा दीन ह्नै ताके आगे।।
मोर मनोरथ कर प्रभु पूरा। दीनबन्धु कीजै दुख दूरा।।
सर्व समय तुहि जग करता। तेरो हुकुम सर्वपर बर्ता।।
मोर उधार करो प्रभु सोई। विघ्न बिहाय कृपा तौ होई।।
गुरू अचारजको निज टेरे। सदा सहायक अपनो हेरे।।
बार बार कर प्रभु प्रति बिनती। यद्यपि सो न करे कछु गिनती।।
कबहुके दाया प्रभुकी होई। दुःखदरिद्र सब डारे खोई।।
लाभ-अलाभ एक सम गनिये। सदाकाल प्रभु गुनगन भनिये।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि भक्त को सुबह उठकर नित्य कर्म करना चाहिए।

प्रथम वाणी में यानि पृष्ठ की वाणी नं. 12 में लिखा है कि:-

भोर हि उठि नित कर्म करीजै। करि तन शुद्ध भजन चित दीजै।।

सुबह उठते ही मंगलाचरण पढ़े। यदि याद है तो मौखिक मन-मन में या बोलकर उच्चारण करे। उसके पश्चात् निम्न शब्द बोले:-

समर्थ साहेब रत्न उजागर। सतपुरूष मेरे सुख के सागर।।
जूनी संकट मेटो गुसांई। चरण कमल की मैं बलि जांही।।
भाव भक्ति दीजो प्रवाना। साधु संगति पूर्ण पद ज्ञाना।।
जन्म कर्म मेटो दुःख दुन्दा। सुख सागर में आनन्द कंदा।।
निर्मल नूर जहूर जुहारं। चन्द्रगता देखूं दिदारं।।
तुम हो बंकापुर के वासी। सतगुरू काटो यम की फांसी।।
मेहरबान हो साहिब मेरा। गगन मण्डल में दीजो डेरा।।
चकवै चिदानंद अविनाशी। रिद्धि सिद्धि दाता सब गुण रासी।।
पिण्ड प्राण जिन दीन्हे दाना। गरीबदास जाकूं कुरबाना।।

मंगलाचरण में गुरू यानि आचार्य तथा परमेश्वर दोनों की वंदना स्तुति हैं:-

गरीब, नमो-नमो सतपुरूष कूं नमस्कार गुरू कीन्ही।
सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्ही।।
सतगुरू साहेब संत सब डण्डवतं प्रणाम।
आगे पीछे मध्य हुए तिन कूं जा कुर्बान।।

इस प्रकार प्रति सुबह मंगलाचरण तथा उपरोक्त शब्द पढ़ें। फिर प्रथम मंत्र का एक-दो या इससे अधिक बार समय अनुसार जाप करें। (एक सौ आठ बार जाप को एक मंत्रा माला कहा है।) फिर सुबह का पाठ भक्ति बोध वाला करें। दिन में यदि सत्यनाम प्राप्त नहीं है तो प्रथम मंत्रा का जाप करते रहें। दोपहर 12 बजे के पश्चात् दिन में असुर निकंदन रमैणी करें।

सुबह का नित्य नियम रात्रि के 12 बजे के बाद सुविधा अनुसार दिन के 12 बजे तक कर सकते हैं। मंत्रा जाप कभी भी कर सकते हैं। वैसे नित्य नियम यानि सुबह के नित्य कर्म सूर्योदय से एक घण्टा पहले या बाद में किया जाता है। यदि आगे-पीछे भी करना पड़े तो समान लाभ ही मिलता है।

जिनको सत्यनाम प्राप्त है, वे दिन में सत्यनाम का जाप करें। जिनको सारनाम प्राप्त है, वे दिन में सारनाम का जाप करें। यदि इच्छा हो तो प्रथम मंत्रा भी कर सकते हैं, परंतु सत्यनाम प्राप्त होने के पश्चात् सत्यनाम का जाप अधिक करना चाहिए। सारनाम में सतनाम का लाभ भी मिलता है। इसलिए सारनाम मिलने के उपरांत सतनाम के जाप की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। यदि सारनाम के जाप में कठिनाई आए तो पहले कुछ मिनट अकेला सतनाम जाप करना चाहिए। फिर शीघ्र ही सारनाम का जाप करना चाहिए।

शाम के समय संध्या आरती करनी चाहिए। इसको करने का सही समय सूर्य अस्त के समय है। यदि किन्हीं कारणों से आगे-पीछे करनी पड़े तो भी समान लाभ मिलता है। विशेष परिस्थिति में संध्या आरती सूर्य अस्त से एक घण्टा पहले तथा रात्रि के 12 बजे से पहले तक भी कर सकते हैं। असुर निकंदन रमैणी भी विशेष परिस्थितियों में दिन के 12 बजे से रात्रि के 12 बजे तक कर सकते हैं, समान लाभ मिलेगा। लेकिन इसको प्रतिदिन करने का अभ्यास न बनाऐं। यदि आप यात्रा में हैं तो आप यात्रा में तीनों संध्या कर सकते हैं, मंत्रा भी कर सकते हैं। यदि आप सुबह भ्रमण के लिए जाते हैं और आपको सुबह का नित्य कर्म याद है तो सैर करते-करते भी कर सकते हैं। इसी प्रकार तीनों संध्या आप सैर करते-करते भी कर सकते हैं यदि याद है तो। यदि याद नहीं है तो भक्ति बोध पढ़ते हुए भी किसी पार्क या एकान्त सुरक्षित स्थान पर जहाँ दुर्घटना का भय न हो, चलते-चलते कर सकते हैं। यदि आप घर पर हैं तो बैठकर करें। यह विधान है नित्य कर्म का।

विशेष:- सुबह उठते ही आप सर्व मंत्रा तथा नित्य नियम बिना स्नान किए भी कर सकते हैं। यदि स्नान करके करना चाहें तो नित्य नियम यानि वाणी पाठ स्नान करके कर सकते हैं। अन्य मंत्र कभी भी बिना स्नान किए, बिना मुख धोए भी कर सकते हैं। रात्रि में जब भी नींद से जागें, तुरंत किसी भी मंत्रा का जाप लेटे-लेटे, बैठकर, चलते-फिरते कर सकते हैं। यदि आप रोग ग्रस्त हैं तो तीनों संध्या भी लेटे-लेटे कर सकते हैं। स्वस्थ होने पर बैठकर करना चाहिए।

मजदूर तथा किसान सुबह स्नान नहीं करते क्योंकि उनको कुछ देर बाद मिट्टी-धूल में कार्य करना होता है। वे शाम को ही स्नान करते हैं। उनको चाहिए कि वे अपना नित्य भक्ति करने वाली साधना बिना स्नान के भी करें, समान लाभ होगा। कबीर जी ने कहा है:-

नहाहे धोए क्या भया, जे मन का मैल न जाय। मीन सदा जल में रहे, धोए बांस न नसाए।।

शरीर की स्वच्छता के लिए स्नान करना अनिवार्य है। सो आप समय लगने पर स्नान करें। भक्तजन मंत्रों का जाप नित्य अवश्य करें। किन्हीं परिस्थितियों में तीनों समय की संध्या स्तुति न हो पाए तो कोई बात नहीं, परंतु मंत्रों के जाप को कभी न छोड़ें। जितना बन सके करें और भी अधिक करें। इस प्रकार अपना जीव धर्म समझकर भक्ति कर्म करके जीवन धन्य बनाऐं। पृष्ठ 47 (1957) से 51 (1959) तक सामान्य ज्ञान है जो पहले कई अध्यायों में वर्णन किया जा चुका है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 52 (1960) पर गुरू के लक्षण का वर्णन है।

भावार्थ:- यह कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ के पृष्ठ 52(1960) की फोटोकाॅपी है जिसमें गुरू महिमा तथा पूर्ण गुरू की पहचान तथा उसके लक्षण बताए हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि गुरू को परमात्मा के तुल्य मानकर अपनी भक्ति करें। दूसरे शब्दों में कहें तो गुरू तो परमात्मा से भी बड़े हैं। जैसे हैंडपंप से जल मिलता है। इसी प्रकार गुरू से परमात्मा मिलता है। इस प्रकार गुरू तो परमात्मा से प्रथम सेवा करने योग्य है। पूर्ण गुरू की पहचान बताई है:-

गुरू के लक्षण चार बखाना। प्रथम बेद शास्त्रा को ज्ञाना।।
दूजे हरि भक्ति मन कर्म बानी। तृतीयें सम दृष्टि कर जानी।।
चैथे बेद विधि सब कर्मा। यह चार गुरू गुण जानों मर्मा।।

भावार्थ:- पूर्ण संत सर्व वेद-शास्त्रों का ज्ञाता होता है। दूसरे वह मन-कर्म-वचन से यानि सच्ची श्रद्धा से केवल एक परमात्मा समर्थ की भक्ति स्वयं करता है तथा अपने अनुयाईयों से करवाता है। तीसरे वह सब अनुयाईयों से समान व्यवहार (बर्ताव) करता है। चैथे उसके द्वारा बताया भक्ति कर्म वेदों में वर्णित विधि के अनुसार होता है। ये चार लक्षण गुरू में होते हैं। जो इन गुणों से युक्त नहीं है, उसको पूर्ण गुरू नहीं कहा जाता।

गुरू के प्रति शिष्य का व्यवहार

भावार्थ:- यह कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ के पृष्ठ 54 (1962) की फोटोकाॅपी है। इसकी वाणी पढ़ने से ही स्पष्ट हो जाती है।

पृष्ठ 53 से 69 तक सामान्य ज्ञान है जो पूर्व के अध्यायों में वर्णित है।

जीव धर्म बोध के पृष्ठ 70 (1978) से 88 (1996) तक सामान्य ज्ञान है जो बार-बार पहले के अध्यायों में वर्णन किया जा चुका है। जिनमें भिन्न-भिन्न प्रकार की हठयोग साधनाओं का ज्ञान है जो शास्त्राविधि त्यागकर साधक करते हैं जिनसे मोक्ष नहीं होता, अन्य सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। जिनके कारण संसार में प्रसिद्धि तो प्राप्त कर लेता है, परंतु मोक्ष से वंचित रहकर पशु योनि को प्राप्त होता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 88(1996) पर बताया है कि सहज समाधि लगाएं और पूरे गुरू से सत्य साधना मंत्रा प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करें।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 89 से 90 तक सामान्य ज्ञान है जो पहले के अध्यायों में बताया जा चुका है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 91 (1999) से 96 (2004) पर:-

इन पृष्ठों पर बनावटी वाणी हैं, कुछ-कुछ ठीक हैं। सामान्य ज्ञान है जो पूर्व के अध्यायों में कई बार वर्णन हो चुका है।

पृष्ठ 93 (2001) पर वाणी:-

वेद विधि से जो कोई ध्यावै। अमर लोक में बासा पावै।।
स्वस्मबेद सब बेदन का सारा। ता विधि भजैं उतरै पारा।।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 97 (2005) पर वाणी:-

कबीर जे चण्डाल में सदगुण होई। विकार कर्म करे ना कोई।।
ताको निश्चय ब्राह्मण जानो। सत्संग में जो जन आनो।।
सत्संग सब एकै जाती। लिखा भागवत में यही भांति।।

पृष्ठ 98 (2006) पर वाणी:-

ब्रह्मा विष्णु शिव गुण तीन कहाया। शक्ति और निरंजन राया।।
इनकी पूजा चलै जग मांही। परम पुरूष कोई जानत नांही।।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 99 (2007) से 104 (2012) तक कुछ ज्ञान पहले बताया है, कुछ वाणी बनावटी हैं।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 105 (2013) पर कुछ विशेष ज्ञान है:-

परशुराम को किसने मारा?

वाणी:- परसुराम तब द्विज कुल होई। परम शत्राु क्षत्राीन का सोई।।
क्षत्राी मार निक्षत्राी कीन्हें। सब कर्म करें कमीने।।
ताके गुण ब्राह्मण गावैं। विष्णु अवतार बता सराहवैं।।
हनिवर द्वीप का राजा जोई। हनुमान का नाना सोई।।
क्षत्राी चक्रवर्त नाम पदधारा। परसुराम को ताने मारा।।
परशुराम का सब गुण गावैं। ताका नाश नहीं बतावैं।।

भावार्थ:- ब्राह्मणों ने बहुत-सा मिथ्या प्रचार किया है। सच्चाई को छुपाया और झूठ को फैलाया है। जैसे परशुराम ब्राह्मण था। एक समय ब्राह्मणों और क्षत्रियों की लड़ाई हुई तो ब्राह्मण क्षत्रियों से हार गए। उसका बदला परशुराम ने लिया। लाखों क्षत्रियों को मार डाला। यहाँ तक प्रचार किया, परंतु यह नहीं बताया कि परशुराम को किसने मारा?

परशुराम को हनुमान जी के नाना चक्रवर्त ने मारा था जो हनिवर द्वीप का राजा था। जो भक्ति शक्ति युक्त आत्माऐं होती हैं। वे ही अवतार रूप में जन्म लेती हैं। मृत्यु के उपरांत वे पुनः स्वर्ग स्थान पर चली जाती हैं। स्वर्ग के साथ पितर लोक भी है, उसमें निवास करती हैं। वहाँ से जब चाहें नीचे पृथ्वी पर सशरीर प्रकट हो जाते हैं। जैसे सुखदेव ऋषि शरीर छोड़कर स्वर्ग चला गया था। द्वापर युग में राजा परिक्षित को भागवत कथा सुनाने के लिए विमान में बैठकर आया था। इसी प्रकार परशुराम जी का द्वापरयुग में आना हुआ था जब भीष्म के साथ युद्ध हुआ था जो मध्यस्था करके बंद करा दिया गया था।
जीव धर्म बोध पृष्ठ 106 (2014):-

चंद्रनखा भगिनी रावण की। सरूपन खां तेहि कहें विप्रजी।।
लक्ष्मण तास से विवाह कहै नाटा। नाक चंद्रनखा का काहे कूं काटा।।
सब गलती रावण की गिनाई। लक्ष्मण की कुबुद्धि नहीं बताई।।
रामचन्द्र को राम बताया। असल राम का नाम मिटाया।।
यह ब्राह्मण की है करतुति। ज्ञान बिन सब प्रजा सूती।।

भावार्थ:- रावण की बहन का नाम चन्द्रनखा था, उसको शुर्पणखा बताया गया। वह लक्ष्मण से विवाह करना चाहती थी। लक्ष्मण ने उसका नाक काट दिया। उसके प्रतिशोध में रावण ने भी महान गलती की, परंतु ब्राह्मणों ने एक-तरफा ज्ञान कहा। कुछ लक्ष्मण की मूर्खता का भी वर्णन करना चाहिए था। रामचन्द्र को राम यानि सृष्टि का कर्ता बताया। जो वास्तव में कर्ता है, उसका नामो-निशान मिटा दिया। यह सब ब्राह्मणों की करामात है।

पृष्ठ 107 से 113 तक सामान्य तथा व्यर्थ ज्ञान है जो मिलावटी है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 114(2022) पर कुछ ठीक, कुछ गलत है। आप स्वयं पढ़कर निर्णय करेंः-

भावार्थ:- यह फोटोकाॅपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ के पृष्ठ 114 (2022) की है। इस पृष्ठ की वाणी पढ़ने से पता चलेगा कि कुछ गलत-कुछ ठीक ज्ञान है। जैसे सिद्ध करना चाहा है कि हनुमान का जन्म केसरी वानर से बताया है। इस प्रकार की मिथ्या कथा को वाणी के माध्यम से चित्रार्थ करने की कुचेष्टा की है। एक स्थान पर हनुमान जी के दुम नहीं बताई है। वास्तव में हनुमान जी के दुम थी। वह दुम सदा बाहर नहीं रहती थी। आवश्यकता पड़ने पर बाहर प्रकट कर लेते थे। उदाहरण के तौर पर गधे का गुप्तांग देखने से दिखाई नहीं देता। गधी के मिलन के समय तीन-चार फुट लंबा निकल आता है। यह उदाहरण भले ही अभद्र लगे, परंतु सटीक समझना। यह तो किसी से छुपा भी नहीं है। ऐसे पवन सुत जी अपने लंगूर (दुम) को प्रकट तथा अप्रकट करते थे। रामायण ग्रन्थ में प्रसंग है कि जब हनुमान जी लंका देश में सीता जी की खोज करने गए थे। उनको रावण के दूत पकड़कर दरबार में ले गये। रावण ऊँचे सिंहासन पर बैठा था। हनुमान जी ने अपनी दुम को बढ़ाकर उसको रस्से की तरह गोल करके रावण से ऊँचा आसन बनाकर उस पर बैठ गए थे। फिर पूँछ पर कपड़े-रूई लपेटकर आग लगाकर दुम जलाने का आदेश रावण ने दिया। जब हनुमान जी ने दुम बहुत लंबी बढ़ा दी थी। जिसके ऊपर बहुत सारे कपड़े व रूई लपेटी थी। उसी से लंका को जलाया था। लेकिन हनुमान जी वानर नहीं थे। यह सत्य है कि रीछ, वानर, नाग, बछरा, नारा ढ़ांडा आदि ये मनुष्य के गोत्र हैं। जीव धर्म बोध पृष्ठ 115 से 124 तक व्यर्थ तथा कुछ बनावटी वाणी हैं।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 125 (2033) से 127 (2035) तक का सारांश:-

आधीनी तथा जीव की स्थिति

जैसे कथा सुनते हैं कि श्री कृष्ण जी ने दुर्योधन राजा का शाही भोजन (जिसमें षटरस तथा सर्व व्यंजन थे) छोड़कर आधीन तथा निर्धन भक्त विदुर जी के घर सरसों का साग खाया था। कबीर जी कहते हैं कि हम भी इसी प्रकार अभिमानी के साथ नहीं रहते। सर्व पुराण, चारों वेद, कतेब, तौरेत, इंजिल, जबूर, कुरान भी यही बात कहते हैं।

भावार्थ:- पृष्ठ 125 (2033) पर परमेश्वर कबीर जी ने भक्त के लिए आधीन होने की बात कही है।

पृष्ठ 126 का सारांश:-

भावार्थ:- पृष्ठ 126 पर बताया है कि भक्त को आधीनता से रहना चाहिए जिसके साक्षी श्री रामचन्द्र तथा वेद व चारों कतेब भी बताए हैं।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 127 (2035) का सारांश:-

भावार्थ:- जैसे एक भक्तमति भीलनी थी। उसने प्रेम से बेर पहले स्वयं चखे कि कहीं खट्टे बेर श्री राम तथा लक्ष्मण को न खिला दूँ। फिर झूठे बेर श्री रामचन्द्र तथा लक्ष्मण को खाने को दिए। श्री रामचन्द्र जी ने तो खा लिये। लक्ष्मण जी ने आँखें बचाकर खाने के बहाने मुँह के साथ से पीछे फैंक दिये। फैंके गए झूठे बेर संजीवनी जड़ी रूप में द्रोणागिरी पर उगे। रावण के साथ युद्ध में लक्ष्मण को तीर लगने से मूर्छित हो गए थे। उन्हीं झूठे बेरों से बनी संजीवनी से लक्ष्मण को जीवन मिला। फिर बताया है कि आदम जी ने प्रभु की आज्ञा का पालन नहीं किया। जिस कारण अदन वन से निष्कासित हुए। इसलिए आधीन होना अनिवार्य है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 128 (2036) से 132 (2040) तक सामान्य ज्ञान है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 133 (2041) से 135 (2043) तक नानक जी तथा कबीर जी की वार्ता है।

जीव धर्म बोध पृष्ठ 136 (2044) से 148 (2056) तक अधिकतर बनावटी-मिलावटी वाणी लिखी हैं।

पृष्ठ 145 (2053) पर लिखी वाणी:-

आठ लाख योनि भ्रमि आवै। पुनि गह जीव मनुष तन पावैं।।

जबकि चैरासी लाख योनि हैं। इसमें आठ लाख लिखी हैं।

पृष्ठ 146 (2054) पर जीव धर्म बोध में अंगरेजी अखबार का वर्णन है। उस समय कोई अंग्रेजी नाम भी नहीं जानता था। अखबार तो कहाँ थे?

विवेक:- ऊपर दोनों पृष्ठों (146.147) की फोटोकाॅपियों को पढ़कर पाठकजन समझ जाएंगे कि परमेश्वर कबीर जी के यथार्थ ज्ञान को बिगाड़कर नाश किया है। वर्तमान में जिसको सज्जन पुरूष कैसे सत्य मान सकते हैं? इसी तरह अपनी मंदबुद्धि द्वारा सत्य को अज्ञान बनाने की कुचेष्टा की है। जैसा कि इसी ग्रन्थ के अंदर प्रथम बताया है कि काल द्वारा प्रचलित पंथों के अनुयाईयों ने काल प्रेरणा से ग्रन्थ का नाश किया है। फिर भी आवश्यक सच्चाई बच गई है। जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति संत गरीबदास जी द्वारा परमेश्वर कबीर जी ने कराई है जो संत गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में लिखी है। परमेश्वर कबीर जी की कृपा से उस सद्ग्रन्थ का भी सरलार्थ किया जाएगा। उसके पश्चात् विश्व के सब ग्रन्थों का सार निकालकर एक सांझा ग्रन्थ बनाया जाएगा। सर्व संसार भक्ति करेगा। सत्य को जानेगा, मानेगा और अपना कल्याण कराएगा।
कबीर सागर का सारांश सम्पूर्ण हुआ। 

इस पवित्र ग्रन्थ कबीर सागर का सरलार्थ परमेश्वर जी की कृपा से केवल दो महीनों में सम्पूर्ण हुआ है। यह परोपकारी शुभ कर्म परमेश्वर कबीर जी तथा परम श्रद्धेय स्वामी रामदेवानंद जी गुरू महाराज जी की असीम कृपा से हुआ है। दिन-रात कई-कई घण्टे सेवा करके प्रथम तो एक-एक पंक्ति को पढ़ा, फिर भावार्थ किया। सत्य-असत्य को जाँचा और परमेश्वर को साक्षी रखकर यथार्थ ज्ञान लिखा है। दो महीने में तो कबीर सागर पढ़ा भी नहीं जा सकता। समझना, निष्कर्ष निकालना, फिर हाथ से लिखना, बिना परमेश्वर की कृपा से कभी संभव नहीं हो सकता। जो परमेश्वर कबीर जी ने जो वचन कहा था कि:-

तेरहवें वंश मिटे सकल अंधियारा।

तथा

कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झखमार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे ना दूजी बार।।
सतगुरू नाल वड़ाइयाँ, जिन चाहे तिन दे।।

यह सब परमेश्वर कबीर जी ने ही किया है। महिमा मुझ दास (रामपाल दास) को दी है।

गरीब, समझा है तो सिर धर पाँव। बहुर नहीं रे ऐसा दाँव।।
यह संसार समझदा नांही, कहंदा शाम दोपहरे नूं।
गरीबदास यह वक्त जात है, रोवोगे इस पहरे नूं।।

भावार्थ:- हे मानव! यदि इस अमृत ज्ञान को समझ लिया है तो विलम्ब न कर। तुरंत दीक्षा ले। इतना शीघ्र दीक्षा ले, जैसे आपत्ति के समय में मानव अत्यधिक गति से दौड़ता है। जैसे रेलगाड़ी चलने वाली है, आप सौ फुट दूर हैं तो उसे पकड़ने के लिए पूर्ण गति से दौड़कर पहुँचते हैं। इसी को कहते हैं कि वह सिर पर पाँव रखकर दौड़ा, तब रेलगाड़ी में चढ़ पाया। इसी प्रकार दीक्षा लेने के लिए शीघ्रता कर। फिर इसी गति से भक्ति-साधना कर। अन्यथा यह मानव जीवन का पहर (निर्धारित समय) निकल गया तो फिर हाथ नहीं आएगा। कुत्ता बनकर गली में ऊपर को मुँह करके रोया करेगा।

Sat Sahib