अध्याय कर्म बोध का सारांश
Kabir Sagar » कर्म बोध

कबीर सागर में 24वां अध्याय कर्म बोध पृष्ठ 162 पर है।

परमेश्वर कबीर जी ने कर्मों का उल्लेख किया है:-

मेरे हंसा भाई शुद्ध स्वरूप था जब तू आया।
कर्मों के बंधन में फंस गया तातें जीव कहाया।।

परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि सत्यलोक से जीव स्वेच्छा से काल ब्रह्म के षड़यंत्र में फंसकर यहाँ आ गया। इसलिए जीव कहलाया। सत्यलोक में बिना कर्म किए सर्व पदार्थ उपलब्ध थे। यहाँ काल ब्रह्म ने कर्म का विधान बनाया है कि कर्म करेगा तो फल मिलेगा।

श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में कहा है कि सर्व प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न खाने से बीज (वीर्य) बनता है जिससे सर्व प्राणी उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से यानि शास्त्र अनुकूल कर्म से होती है। कर्म काल ब्रह्म से उत्पन्न हुए यानि कर्म का विधान ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने बनाया। जैसे कर्म जीव करेगा, वैसे ही भोगेगा। ब्रह्म (क्षर पुरूष) की उत्पत्ति अक्षर यानि अविनाशी परमेश्वर से हुई। अविनाशी परमेश्वर ही सदा यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतिष्ठित है यानि ईष्ट देव रूप में मानकर पूजा करनी होती है।

प्रश्न:- कर्म कितने प्रकार के हैं?

उत्तर:- कर्म दो प्रकार के हैं। एक शुभ कर्म, दूसरा अशुभ यानि एक पुण्य और दूसरा पाप कर्म कहा जाता है।

1) पुण्य कर्म:- शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म, दान, परमार्थ, भूखों को भोजन देना, असहाय की हर संभव सहायता, दया भाव रखना, अपने से दुर्बल से भी मित्र जैसा व्यवहार करना। परनारी को माता तथा बहन के भाव से देखना, सत्य बोलना, अहिंसा में विश्वास रखना, साधु-संतों, भक्तों की सेवा व सम्मान करना, माता-पिता तथा वृद्धों की सेवा करना आदि-आदि शुभ यानि पुण्य कर्म हैं।

2) पाप कर्म:- शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना आचरण करके भक्ति कर्म करना, चोरी, परस्त्री से बलात्कार, परस्त्री को दोष दृष्टि से देखना, माँस-मदिरा, नशीली वस्तुओं का सेवन, रिश्वत लेना, डाके मारना, हिंसा करना आदि-आदि अशुभ कर्म हैं यानि पाप कर्म हैं।

प्रश्न:- कर्म बंधन कैसे बनता है?

उत्तर:- काल ब्रह्म ने जीव के कर्मों को तीन प्रकार से बाँटा है।

  1. संचित कर्म 
  2. प्रारब्ध कर्म 
  3. क्रियावान कर्म

1) संचित कर्म:- संचित कर्म वे पाप तथा पुण्य कर्म हैं जो जीव ने जन्म-जन्मातरों में किए थे। उनका भोग प्राप्त नहीं हुआ है। वे जमा हैं।

2) प्रारब्ध कर्म:- प्रारब्ध कर्म वे कर्म हैं जो जीव को जीवन काल में भोगने होते हैं जो संचित कर्मों से औसत करके बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि पाप कर्म एक हजार (1000) हैं और पुण्य कर्म पाँच सौ (500) हैं तो दोनों से औसत में लिए जाते हैं। प्रारब्ध कर्म यानि जीव का भाग संचित कर्मों से average में लेकर बनाया जाता है। यदि 20-20 प्रतिशत लेकर प्रारब्ध बना तो पाप कर्म 50 और पुण्य कर्म 25 बने। इस प्रकार प्रारब्ध कर्म यानि जीव का भाग्य बनता है। इनको प्रारब्ध कर्म कहते हैं।

3) क्रियावान कर्म:- अपने जीवन काल में जो कर्म प्राणी करता है, वे क्रियावान कर्म कहे जाते हैं। ये 75% तो प्रारब्ध कर्म होते हैं यानि जो संस्कार यानि भाग्य में लिखे हैं, वे किए जाते हैं, 25% कर्म करने में जीव स्वतंत्र है। 75% कर्म करने में जीव बाध्य है क्योंकि वे प्रारब्ध में लिखे होते हैं, परतंत्र हैं। परंतु पूर्ण संत मिलने पर परिस्थिति बदल जाती है।

प्रश्न:- कहते हैं कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है।

उत्तर:- जीव 25% कर्म तो स्वतंत्र रूप से करता है। अपने जीवन काल में 75% कर्म तो प्रारब्ध वाले करने में परतंत्र है, विवश है। केवल 25% कर्म करने में स्वतंत्र है। पंरतु पूर्ण संत मिलने के पश्चात् परिस्थिति बदल जाती है। प्रारब्ध में सुसंगत तथा कुसंगत भी लिखी होती है।

उदाहरण:- जैसे राजा दशरथ जी ने यज्ञ किया था। सुयोग्य पुत्र प्राप्ति के लिए यह क्रियावान स्वतंत्र कर्म था। अन्य संतान तीन पुत्र (भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न) तथा पुत्री शारदा थे, प्रारब्ध से मिले थे।

श्री रामचन्द्र जी का सीता से विवाह प्रारब्ध था, 14 वर्ष का बनवास सीता, राम, लक्ष्मण का प्रारब्ध था। जंगल में बनवास के समय पशु शिकार करके मारे, वह स्वतंत्र कर्म था। स्वरूपणखां का नाक काटना लक्ष्मण का स्वतंत्र कर्म था। सीता का अपहरण प्रारब्ध कर्म सीता तथा रावण दोनों का था। यह कारण अन्य भी हो सकता था जो शुर्पणखा बनी थी।

तेतीस करोड़ देवताओं का कैद में रहना प्रारब्ध कर्म था। सुग्रीव के भाई बाली को राम ने मारा, यह स्वतंत्र कर्म था। फिर वह संचित कर्मों में जमा होकर प्रारब्ध बना और श्री कृष्ण रूप में श्री रामचन्द्र जी वाली आत्मा को भोगना पड़ा। जो शिकारी था, जिसने श्री कृष्ण के पैर में विषाक्त तीर मारकर हत्या की, वह शिकारी बाली वाली आत्मा थी। रावण की मृत्यु, तेतीस करोड़ देवताओं को कैद से मुक्ति प्रारब्ध था।

श्री कृष्ण जी ने जो आठ विवाह किए, वह प्रारब्ध था। राधा से प्रेम भी प्रारब्ध था। गोपियों के साथ भोग-विलास यह प्रारब्ध कर्म था यानि परतंत्र होकर किया कर्म था, परंतु 16 हजार स्त्रिायों को एक राजा की कैद से छुड़वाकर अपने पास रखकर उनसे भोग-विलास करना यह स्वतंत्र कर्म था। कुब्जा को स्वस्थ करना प्रारब्ध कर्म था। उसके साथ भोग-विलास करना स्वतंत्र कर्म था। कंस को मारना प्रारब्ध कर्म था। केशी, चाणूर, पुतना का वध स्वतंत्र कर्म था क्योंकि वे कंस के द्वारा प्रलोभन या दबाव से भेजे गए थे। इस प्रकार कर्मों का लेखा जानें, कम लिखे को अधिक समझें।

प्रश्न:- क्या स्वतंत्र कर्म फल भी वर्तमान जीवन में प्राप्त होता है?

उत्तर:- कुछ कर्मों का फल वर्तमान जीवन में भी प्राप्त होता है, परंतु यह विशेष परिस्थिति में भोगना पड़ता है।

उदाहरण:- राजा दशरथ रात्रि के समय एक सरोवर पर रखवाली कर रहे थे। उस सरोवर का ऋषि लोग पानी पीते थे। उसे वन्य (जंगली) जानवर खराब कर देते थे। यह सेवा स्वयं राजा ने ली थी क्योंकि राजा दशरथ मान रहे थे कि ऋषियों के आशीर्वाद से उनको श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न पुत्र प्राप्त हुए थे। वैसे श्री राम का जन्म उनके यज्ञ की देन नहीं थी। यह प्रारब्ध में थे। यज्ञ ऋषियों के द्वारा किया गया था। जिस कारण से वे महिमा के पात्र थे। एक श्रवण नामक श्रेष्ठ पुत्र अपने अंधे माता-पिता को बहंगी (एक बाँस के दोनों सिरों पर पालने बाँधकर बहंगी बनाई जाती थी) में बैठाकर तीर्थ स्नान के लिए निकला था। माता-पिता को प्यास लगी। अन्धेरी रात्रि में श्रवण पानी का लोटा लेकर सरोवर पर गया और पानी का लोटा भरने लगा। उसकी आवाज सुनकर राजा दशरथ ने कोई जंगली जानवर समझकर शब्द भेदी बाण मारा जो श्रवण को लगा और वह हाय राम कहकर गिर गया। राजा दशरथ ने पशु समझकर तीर मारा था। हाय राम की आवाज सुनकर राजा समझ गया कि किसी व्यक्ति को तीर लगा है। श्रवण दर्द के कारण तड़फ रहा था। हाय-हाय कर रहा था। राजा दशरथ ने जाकर नाम-गाँव पूछा और सच्चाई बताई तो श्रवण ने कहा कि मैं तो बचूँगा नहीं, मेरे माता-पिता अंधे हैं, बहुत प्यास लगी है। आप उनको पानी पिला देना। उनको पानी पिलाने से पहले नहीं बताना कि तुम्हारा श्रवण मर गया है। वे पानी नहीं पीएंगे और प्यासे मर जाएंगे। इतनी बात कहकर श्रवण प्राण त्याग गया। राजा दशरथ जल का लोटा भरकर श्रवण के माता-पिता के पास गये। पैरों के कदमों की आवाज सुनकर पिता बोला कि बेटा श्रवण! पानी मिल गया। राजा दशरथ बिना बोले ही पानी पिलाने लगा। माता-पिता ने कहा कि बेटा बोलता क्यों नहीं? लगता है तू हमसे तंग आ गया है, सच्ची बात बता, यदि दुःखी हो चुका है तो हमें यहीं छोड़कर घर लौट जा बेटा, हम तुझे दुःखी नहीं देख सकते। जब तू बोलकर माँ-पिता नहीं कहेगा, हम पानी नहीं पीएंगे। विवश होकर राजा दशरथ ने सच्चाई बतानी पड़ी। तब दोनों ने हाय-हाय करना शुरू कर दिया तथा राजा दशरथ को शाॅप दे दिया कि आज हम अपने पुत्र के वियोग में प्राण त्याग रहे हैं, एक दिन राजा तू भी अपने पुत्र के वियोग में मरेगा। यह कहकर रो-रोकर प्राण त्याग दिए। राजा दशरथ ने बहुत कहा कि मैं आपका पोषण करूँगा, नौकर-नौकरानी सेवा में रख दूँगा, आप ऐसा न कहें और न मरें। परंतु कुछ ही घण्टों में दोनों तड़फ-तड़फकर मर गए। उस कर्म का फल राजा दशरथ को उसी जीवन में भोगना पड़ा जो शाॅप का प्रभाव था। श्री रामचन्द्र जी जब बनवास को चले तो राजा दशरथ अपने महल की सबसे ऊँची छत (चैबारे) पर चढ़कर देखता रहा। जब रामचन्द्र जी कुछ ओझल हुए तो चैबारे की मंडेर पर खड़े हो गए। पंजों के बल ऐडी उठाकर खड़े होकर पुत्र को देखने लगे तो वहाँ से गिरकर मर गए। यह राजा दशरथ का प्रारब्ध कर्म नहीं था। श्रवण तथा उसके माता-पिता के श्राप से राजा दशरथ की दुर्घटना के कारण अकाल मृत्यु हुई थी। जिस कारण से भूत-पितर योनि को प्राप्त हुए। जब सीता जी ने बनवास काल में अपने पूर्वजों के श्राद्ध किए तो राजा दशरथ भी पितरों की पंक्ति में बैठे दिखाई दिए। राजा दशरथ की मृत्यु क्रियावान यानि वर्तमान कर्म का फल था।

अन्य उदाहरण:- राजा दु्रपद की पुत्री द्रोपदी वैसे उसका नाम कृष्णा था, राजा द्रोपद की बेटी होने के कारण द्रोपदी नाम से प्रसिद्ध हुई थी। द्रोपदी कंवारी थी। उसके पिता जी ने एक नदी के किनारे स्त्रियों के स्नान के लिए जनाना घाट बनवा रखा था। गर्मी का मौसम था। द्रोपदी प्रतिदिन की तरह अपनी सैंकड़ों सहेलियों के साथ उस दरिया के घाट पर स्नान करने गई तो देखा एक साधु दरिया के अंदर सीने तक गहरे जल में खड़ा था। हाथ इधर-उधर चला रहा था। द्रोपदी ने कुछ देर संत की क्रिया को देखा तो लगा कि साधु स्नान नहीं कर रहा, किनारे पर देखा तो वस्त्र नहीं रखे थे, वह साधु अँधा था। घाट से लगभग सौ फुट दूरी पर दरिया में स्नान करने के उद्देश्य से आया था। उसको यह नहीं ज्ञान था कि आसपास कोई जनाना घाट (ladies ghat) है। जब लड़कियों की आवाज सुनाई दी, तब उसको समझते देर नहीं लगी कि तू गलत स्थान पर आ गया है। राजा की स्त्रियों के स्नान का स्थान आसपास है। शर्म के मारे वह संत दरिया में गहरे पानी में चला गया। छाती तक गहरे पानी में जाकर खड़ा हो गया। उसके पास एक कोपीन (छः इन्च चौड़ा दो फुट लंबा कपड़ा जो पर्दे पर साधु बाँधते हैं, उसको कोपीन कहते हैं।) थी। दूसरी नहीं थी। अन्य कोई वस्त्र नहीं था। स्नान करके उसको कुछ देर घास पर डालकर सुखाकर पुनः बाँध लेता था या गर्मी के मौसम में पहने-पहने ही सूख जाती थी। उस दिन वह कोपीन दरिया के पानी में बह गई, संत नग्न जल में खड़ा-खड़ा आसपास हाथों को हिला रहा था कि कोई कपड़ा बहता हुआ आ जाए तो बाहर जाने योग्य बनूँ। उस घाट से नीचे की ओर यानि जिधर पानी बहकर जा रहा था। उस ओर पानी में संत स्नान कर रहा था। द्रोपदी बुद्धिमान तथा भक्त आत्मा थी। पहले तो द्रोपदी ने विचार किया था कि स्नान करके संत से परमात्मा की चर्चा करूँगी। स्नान करने के पश्चात् भी देखा कि संत तो उसी स्थिति में खड़ा है तो समझते देर नहीं लगी। बहन द्रोपदी ने अपनी साड़ी से आठ-नौ इंच चौड़ा और तीन-चार फुट लंबा टुकड़ा फाड़कर दरिया में छोड़ दिया। परंतु संत के हाथ नहीं लगा। ऐसे-ऐसे सात-आठ टुकड़े साड़ी से फाड़-फाड़कर डाले, परंतु व्यर्थ रहे क्योंकि संत को दिखाई नहीं दे रहा था। लड़की होने के नाते द्रोपदी बोलना नहीं चाहती थी कि कहीं मेरे बोलने से संत शर्म के मारे और गहरा दरिया में चला न जाए, आगे दरिया बहुत गहरी है। पानी का बहाव भी बहुत तेज है। बहन द्रोपदी जी ने एक टुकड़ा और फाड़ा (यानि साड़ी आधे से अधिक फाड़ दी) और जंगल से एक लंबी लकड़ी उठाकर उसके सिरे से कपड़े का टुकड़ा लपेटकर संत के हाथों के पास कर दिया। संत के हाथों से कपड़ा लगा तो तुरंत पकड़ लिया। पहले तो सोचा कि किसी बहन-बेटी का कोई कपड़ा बहकर आ गया होगा। परंतु कोपीन आकार का कपड़ा हाथों से पहचानकर समझ गया कि किसी बेटी ने अपनी साड़ी फाड़कर कोपीन बनाई है। संत ने कहा, हे बेटी! तेरा भला करे करतार, तूने मेरे पर्दे की ओट करके मेरी लाज रखी है, तेरे को परमात्मा अनन्त वस्त्र दे तथा तेरे पर्दे (गुप्तांग) की लाज रखे। कहते हैं:-

साधु बोलै सहज सुभाय। साधु का बोला मिथ्या न जाय।।

विचार करने की बात है। राजा की लड़की के साथ दो-चार नौकरानी भी होती हैं। द्रोपदी उनको भी कह सकती थी कि तुम अपनी साड़ी से कपड़ा फाड़कर डाल दो, परंतु उसको अध्यात्म ज्ञान था तथा पूर्व जन्म का शुभ संस्कार था। जिस कारण से उसने विचार किया कि मैं रोटी खाऊँगी तो मेरा पेट भरेगा। बांदी खाएगी तो बांदी का पेट भरेगा यानि मैं दान करूँगी तो मुझे लाभ होगा। बांदी (नौकरानी) करेगी तो उसको लाभ होगा। द्रोपदी ने इसलिए यह अवसर हाथ से नहीं जाने दिया। संत कोपीन बाँधकर चला गया। लड़कियाँ पहले चली गई थी। द्रोपदी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ। माता की आज्ञा अनुसार वह पाँचों पांडवों की पत्नी बनी। जिस समय राजा युधिष्ठर जूए के खेल में दुर्योधन से सर्व राज तथा द्रोपदी को भी हार गए, तब भरी सभा में दुर्याेधन ने द्रोपदी को नंगी करने की योजना बनाई। दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन से कहा कि द्रोपदी को नंगा करके मेरी जांघ पर बैठा। सभा में पाँचों पांडव, 101 कौरव तथा गुरू द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण, भीष्म पितामह, चाचा विदुर तथा अन्य सेनापति उपस्थित थे। दुर्योधन का आदेश पाकर दुःशासन द्रोपदी की साड़ी का पल्ला पकड़कर साड़ी उतारने लगा। द्रोपदी ने पहले तो अपने पाँचों पतियों की ओर देखा। वे जूए में हार चुके थे। मर्यादा में बँधे थे, नीचे गर्दन कर ली, देखा तक नहीं। अन्य उपस्थित महानुभावों की ओर देखा और रक्षा की प्रार्थना की, परंतु वे दुर्योधन का मलीन अन्न खाकर मलीन आत्मा हो चुके थे। उस सभा में एक संत विदुर जी विराजमान था जो इंसान बीज था। विदुर जी खड़ा हुआ और दुर्योधन से कहने लगा कि हे दुर्योधन! आप किसकी बेइज्जती कर रहे हो? आपका एक कुल-एक परिवार है। जनता कहेगी कि अपनी इज्जत आप ही खराब कर दी। कुछ विचार से काम लो। अहंकार में अँधा न हो। यह बात सुनकर दुर्योधन अपने चाचा विदुर को बुरा-भला कहने लगा कि तू गुलाम सोच का व्यक्ति है। तू तो बांदी (नौकरानी) का पुत्र है। तू तो पाण्डवों का सदा ही पक्ष लेता रहा है। यह सुनकर भीष्मपितामह, गुरू द्रोणाचार्य तथा कर्ण मुस्कुराए। दुर्योधन ने उठकर अपने चाचा के मुख पर थप्पड़ मारा। विदुर सभा छोड़कर चला गया। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य या कर्ण में से कोई एक भी खड़ा होकर यह कह देता कि दुर्योधन तुम भाई-भाई कुछ भी करो, परंतु सभा में अबला के साथ दुव्र्यव्हार ठीक नहीं, यह क्षत्राीय धर्म के विरूद्ध है तो कौरवों की क्या मजाल थी कि वे द्रोपदी के चीर को हाथ लगा दें। उन्होंने कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं की। सभा में बैठे रहे।

पाठकजन! विचार करें:- उनका सभा में बैठा रहना क्या दर्शाता है? उनके मन की घोर नीचता, सामने द्रोपदी को नंगा करने का प्रयत्न, भीष्म पितामह, कर्ण, द्रोणाचार्य सहित सर्व सभासद तमाशा देख रहे थे। वे द्रोपदी के गुप्तांग को देखने के लिए बैठे थे। यह स्पष्ट है। और क्या वहाँ रीछ नचाया जा रहा था? यही कारण था कि तीनों (द्रोणाचार्य, भीष्म तथा कर्ण) बाणों से छलनी किए गए थे। यह उनको उसी जन्म के कर्म के पाप का फल था। उनको दुर्योधन को रोकना चाहिए था। यदि नहीं तो सभा छोड़कर चला जाना चाहिए था। तब वे पाप के भागी नहीं बनते। जो अधिकारी है और वह अपने कर्तव्य से गिरता है, वह महापाप का भागी होता है। द्रोपदी ने देखा कि सांसारिक सहारा तो नकली निकला, तब सबकी आशा त्यागकर परमात्मा की आशा लगाई तो परमेश्वर ने उस अँधे महात्मा को दिए चीर के लीर (टुकड़े) के प्रतिफल में और साधु के आशीर्वाद के प्रताप से द्रोपदी चीर अनन्त कर दिया। दुशासन में सौ हाथियों जितनी शक्ति थी। द्रोपदी तो उसके सामने कमल का फूल थी। दुशासन का पसीना छूट गया। साड़ी को खींचते-खींचते थक गया। साड़ी का ढ़ेर लग गया, परंतु अंत नहीं आया। तब द्रोपदी को श्री कृष्ण जी ने बाद में बताया कि यह जो तेरा चीर बढ़ा है, यह उस अँधे महात्मा को दिए कपड़े का फल है जो तूने विवाह से पहले दरिया में स्नान करते समय दिया था।

एक चीर के कारणे बढ़ गया चीर अपार।
जो मैं पहले जानती तो, सर्वस देती वार।। (न्यौछावर कर देती)

यह कर्म फल द्रोपदी को उसी जन्म के कर्म का फल मिला था। यह एक-आध विशेष आत्मा के साथ ही होता है। कर्म फल को समझने के लिए उपरोक्त उल्लेख पर्याप्त है।

प्रश्न:- क्या प्रारब्ध कर्म जो भाग्य में लिखा है, बदला जा सकता है।

उत्तर:- जब पूर्ण संत जो परमेश्वर कबीर जी स्वयं या उनका कृपा पात्र संत मिल जाता है तो पाप कर्म जो प्रारब्ध में हैं या संचित कर्मों में हैं, वह सत्य साधना से समाप्त हो जाता है।

कबीर, जब ही सतनाम हृदय धर्यो, भयो पाप को नाश।
जैसे चिनगी अग्नि की, पड़ै पुरानै घास।।

गरीब, मासा घटै न तिल बधै, विधना लिखे जो लेख।
साच्चा सतगुरू मेटि कर, ऊपर मारै मेख।।

गरीब, जम जौरा जा से डरें, मिटे कर्म के लेख।
अदली असल कबीर हैं, कुल के सतगुरू एक।।

जब तक पूर्ण संत कबीर जी की भक्ति नहीं करता और करवाता है। तब तक (कबीर जी ने कहा है) कर्म रेख टारी न टरे।

वशिष्ठ मुनि से त्रिकाली योगी, सोध कै लग्न धरै।
सीता हरण मरण दशरथ का, बन-बन राम फिरै।।

भावार्थ:- ऋषि वशिष्ठ जी राजा दशरथ के कुल गुरू थे। वे त्रिकालदर्शी (भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानने वाले) माने जाते थे। उन्होंने जनकपुरी में राम-सीता के विवाह को तीन दिन आगे कर दिया था, बारात वहीं रूकी रही थी। उसी के पश्चात् बारात को तीन दिन रोकने की परंपरा शुरू हुई थी जो कालांतर में समाप्त प्रायः हो गई है। किसलिए विवाह का लग्न तीन दिन आगे किया था? ऋषि जी ने कारण बताया था कि यह मुहूर्त ठीक नहीं है, तीन दिन बाद शुभ लग्न मुहूर्त है। शुभ लग्न में किये विवाह से बच्चों के गृहस्थ जीवन में कोई आपत्ति नहीं आएगी। सुखी जीवन व्यतीत करेंगे। श्री रामचन्द्र जी तथा सीता जी का विवाह ऋषि वशिष्ठ जी के बताए अनुसार शोध की गई मुहूर्त में किया गया था। कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि उस शुभ लग्न से भाग्य (प्रारब्ध) में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विवाह के तुरंत पश्चात् श्री रामचन्द्र तथा सीता व लक्ष्मण का बनवास हुआ। बन से सीता का अपहरण हुआ। श्री रामचन्द्र जी बन-बन भटक रहा था। पुत्र वियोग में राजा दशरथ की मृत्यु हो गई। घर में कहर हो गया। पूर्ण संत बिना कर्म का फल भोगना ही पड़ता है।

कर्म बोध पृष्ठ 165 पर:-

कबीर, कर्म फांस छूटे नहीं, केतो करो उपाय।
सद्गुरू मिले तो उबरै, नहीं तो प्रलय जाय।।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘कर्म बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

Sat Sahib