अध्याय अमर मूल का सारांश
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कबीर सागर में 25वां अध्याय ‘‘अमर मूल‘‘ पृष्ठ 191 पर है। अमर मूल अध्याय में जो उल्लेख है, वह पूर्व के अध्यायों में सब आ चुका है। यह उल्लेख बार-बार बताया जा चुका है। यहाँ अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। थोड़ा ही विवरण लिख रहा हूँ जो पर्याप्त है।

सत्यलोक में स्त्री-पुरूष प्रेम से रहते हैं

पृष्ठ 191 से 201 तक पहले लिखा गया वर्णन है। पृष्ठ 202 पर सतलोक में कैसी सृष्टि है? कैसा जीवन है? स्त्री-पुरूष हैं। आपस में प्रेम से रहते हैं। कोई भी अहित की वाणी नहीं यानि बुरे वचन नहीं बोलता।

सतलोक में सब व्यक्तियों (स्त्री-पुरूष) का अविनाशी शरीर है। मानसरोवर पर मनुष्य के शरीर की शोभा तथा स्त्रिायों की शोभा 4 सूर्यों जितनी है। परंतु अमर लोक में प्रत्येक स्त्री, पुरूष के शरीर की शोभा 16 सूर्यों के प्रकाश जितनी है। सतपुरूष का भी अविनाशी शरीर है। परमेश्वर के शरीर के एक बाल (रोम) का प्रकाश करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चाँद के प्रकाश से भी अधिक प्रकाश है। अमर लोक में परमात्मा रहता है।

सतलोक में सतनाम के सहारे सब हंस गए हैं। सतलोक में अमृत फल का भोजन खाते हैं। काल लोक में युगों से भूखे प्राणियों की भूख तृप्त सतलोक में होती है। सब आत्माऐं स्त्री-पुरूष सुधा यानि अमृत पीते हैं। जन्म-जन्म की प्यास समाप्त हो जाती है। कामिनी रूप यानि जवान स्त्रिायां हैं। वे अपने-अपने पतियों के लिए प्राणों से भी प्यारी हैं। सत्यलोक के निवासी पुरूष सब स्त्रिायों को प्रेम भाव से निहारते (देखते) हैं। दोष दृष्टि से नहीं देखते। कोई भी व्यक्ति अनहित यानि कटु वचन व्यंग्यात्मक वचन या अभद्र भाषा नहीं बोलते। सब प्रेम भाव से अपनी-अपनी प्रिय रानी यानि पत्नी के साथ मधुर भाव से रहते हैं। उन स्त्रिायों की शोभा मन को बहुत लुभाने वाली है। सब स्त्रिायां (कामिनी) हंस रूप यानि पवित्र आत्माऐं हैं। उनका रंग चढ़ा रहता है यानि सदा यौवन बना रहता है। वहाँ स्त्री वृद्ध नहीं होती, न पुरूष वृद्ध होते हैं। सदा जवान रहते हैं।

यह उपरोक्त प्रमाण ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 57-58 तथा मुहम्मद बोध पृष्ठ 20-21 पर दश मुकामी रेखता में भी है तथा ज्ञान स्थिति बोध पृष्ठ 82-83 पर परमेश्वर के प्रत्येक अंगों का वर्णन है।

‘‘सार शब्द के विषय में‘‘

है निःशब्द शब्द से कहेऊ। ज्ञानी सोई जो वह पद लेहऊ।।
धर्मदास मैं तोही सुझावा। सार शब्द का भेद बतावा।।

अमर मूल पृष्ठ 203 का सारांश:-

सार शब्द निःअक्षर भाई। गहै नाम तेहि संशय नाहीं।।
सार शब्द जो प्राणी पावै। सतलोक माहीं जाय रहावै।।
कोटि जन्म को पातक (पाप) होई। नाम प्रताप से जाय सब खोई।।

पृष्ठ 204 से 208 तक सामान्य ज्ञान है।

अमर मूल पृष्ठ 209 पर:-

धर्मदास जी ने प्रश्न किया है कि हे परमेश्वर! क्या नारी (स्त्री) भी पार हो सकती हैं?

परमेश्वर कबीर जी ने उत्तर दिया कि:-

नारी तिरै सुनों धर्मदास। कहैं कबीर नाम विश्वास।।
गुरू के चरण निछावर जाई। तन मन धन सब देय चढ़ाई।।
गुरू की सेवा निशदिन करही। सो त्रिया भवसागर तरही।।

अमर मूल पृष्ठ 210 से 214 तक सामान्य ज्ञान है।

अमर मूल पृष्ठ 215 पर धर्मदास की पत्नी ने नाम लिया, पलंग बिछाकर सतगुरू कबीर जी को बैठाया और आमिनी देवी ने परमेश्वर कबीर जी के चरणों की चरण चंपी यानि पैर दबाकर सेवा की।

आमिनी तब ही पलंग बिछावा। सतगुरू तहां आन पौढ़ावा।।(लेटाया)
धर्मदास तब पंखा डुलावैं। आमिनी चरण चापि सुख पावै।।
साहेब तब ही दाया कीन्हा। मस्तिक हाथ आमिनी के दीन्हा।।

अमर मूल पृष्ठ 216 से 232 तक सामान्य ज्ञान है।

अमर मूल में काल प्रेरित कबीर पंथियों ने अपने खाने व धन लेने के लिए आरती करने में कन्चन यानि सोने के थार (थाली), सोने की झारी (सुराही), सोने का घड़ा लाने को कहा है। यह गलत है।

अमर मूल पृष्ठ 234 से पृष्ठ 244 तक सामान्य ज्ञान है।

अमर मूल पृष्ठ 245 का सारांश:-

एक काल (समय) जब आवै भाई। सबै सृष्टि लोक सिधाई।।

भावार्थ:- एक काल यानि जब कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच बीतेगा। वह काल यानि समय जब आवैगा, तब सब सृष्टि सतलोक जाएगी।

अमर मूल पृष्ठ 246 से 258 तक सामान्य ज्ञान है।

अमर मूल पृष्ठ 259 पर सुमरन की महिमा है।

‘‘सुमरन करना चाहिए‘‘

चैपाई

तुम कहँ शब्द दीन्हा टकसारा। सो हंसन सों कहो पुकारा।।
शब्द सार का सुम्रन करिहै। सहजै सत्यलोक निस्तरिहै।।
सुम्रन का बल ऐसा होई। कर्म काट सब पलमहँ खोई।।
जाके कर्म काट सब डारा। दिव्य ज्ञान सहजै उजियारा।।
जा कहँ दिव्यज्ञान परकाशा। आपहि में सब लोक निवासा।।
लोक अलोक शब्द हैं भाई। जिन जाना तिन संशय नाहीं।।
तत्त्व सार सुमरण है भाई। जातें यमकी तपन बुझाई।।
सुमरण सों सब कर्म बिनाशा। सुमरण सों दिव्यज्ञान प्रकाशा।।
सुमरण सों जाय है सतलोका। सुमरण सों मिटे है सब धोका।।
धर्मन सुमरण देहु लखाई। जासों हंस सबै मुक्तिाई।।

उपरोक्त वाणियों से स्पष्ट है कि स्मरण करना चाहिए।

अमर मूल पृष्ठ 260 से 264 तक सामान्य ज्ञान है जो पहले वर्णन हो चुका है।

दीक्षा तीन चरणों में पूरी की जाती है

अध्याय ‘‘अमर मूल’’ के पृष्ठ 265 पर तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा करने का प्रमाण है। कबीर जी ने दीक्षा क्रम तीन चरणों में पूरा करने को कहा है:-

साहिब कबीर-वचन

तब कबीर अस कहिबे लीन्हा। ज्ञान भेद सकल कहि दीन्हा।।
धर्मदास मैं कहौं विचारी। जिहितैं निबहै सब संसारी।।
प्रथमहि शिष्य होय जो आई। ता कहँ पान देहु तुम भाई।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना। ता कहँ कहहू शब्द प्रवाना।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै। ता कहँ ज्ञान अगाध सुनावै।।
अनुभवका जब करै विचारा। सो तौ तीन लोकसों न्यारा।।
अनुभव ज्ञान प्रगट जब होई। आतमराम चीन्ह है सोई।।
शब्द निहशब्द आप कहलावा। आपहि बोल अबोल सुनावा।।

चैपाई

यह मति हम तौ तुम कहँ दीन्हा। बिरला शिष्य कोइ पावै चीन्हा।।
धर्मदास तुम कहौ सन्देशा। जो जस जीव ताहि उपदेशा।।
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासौं कहहू वचन प्रवाना।।(1)
जा कहँ सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता कहँ सुम्रन देहु लखाई।।(2)
ज्ञान गम्य जा कहँ पुनि होई। सार शब्द जा कहँ कहु सोई।।(3)
जा कहँ दिव्य ज्ञान परवेशा। ता कहँ तत्त्व ज्ञान उपदेशा।।
तत्त्वज्ञान जाहि कहँ होई। दूसर कितहु न देखै सोई।।

यही प्रमाण अध्याय बीर सिंह बोध पृष्ठ 113-114-115 पर भी प्रत्यक्ष प्रमाण है कि राजा बीर देव सिंह बघेल को तीन बार दीक्षा का क्रम पूरा किया था, पढ़ें इसी पुस्तक में अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध’’ के सारांश में इसी पुस्तक के पृष्ठ 190 से 208 तक।

कबीर सागर के अध्याय ‘अमर मूल‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

Sat Sahib