अध्याय भवतारण बोध का सारांश

अध्याय ‘‘भवतारण बोध‘‘ का सारांश

कबीर सागर में 19वां (उन्नीसवां) अध्याय ‘‘भवतारण बोध‘‘ पृष्ठ 42 पर है। इस अध्याय में कोई भिन्न ज्ञान नहीं है। इसमें जो जानकारी है, वह पहले अध्यायों की है। इसमें परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास के माध्यम से साधक समाज को समझाया है कि:-

साधक को चाहिए कि भक्ति सच्चे मन से करे। इसको भाव भक्ति कहा है। संत यानि अच्छी आत्माओं का सत्कार करे, भोजन-पानी श्रद्धा से कराए।

जो योगी है यानि हठ योग करते हैं, योग-आसन तक ही सीमित हैं, सार शब्द सतगुरू से मिला नहीं है, वे कभी भव से यानि संसार से पार नहीं हो सकते।

जो दान देते हैं और सतगुरू से सच्चा भक्ति मंत्रा प्राप्त नहीं है तो उनका मोक्ष नहीं है। केवल दान का फल अगले जन्म में मिल जाएगा। आवश्यक नहीं है कि वह फल मनुष्य जन्म में ही मिलेगा। वह फल कुत्ते, घोड़े, गाय, भैंस आदि के जन्म में मिलेगा। यदि सतगुरू से सत्य साधना प्राप्त है और भक्ति करता है, दान भी देता है तो उसका मोक्ष हो जाता है। उसको दान का फल इसी जन्म में भी आवश्यकता अनुसार मिलता है। यदि किसी कारण से मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ तो पुनर्जन्म मानव का मिलता है, वह दान अगले जन्म में मानव शरीर में मिलता है।

तीर्थ के ऊपर जाकर स्नान करने का क्या लाभ-हानि है, वह बताया है:-

पाठकजन ध्यान दें कि कबीर सागर में काल प्रेरित कबीर पंथियों ने अपनी बुद्धि अनुसार वाणी मिलाई तथा काटी हैं। इस अध्याय में पृष्ठ 43 पर लिखी वाणियों का अर्थ है कि जो तीर्थ पर स्नान करने जाते हैं, उनको सुंदर शरीर मिलता है। ऊँचे कुल में, ब्राह्मण, क्षत्रिय के घर में जन्म होता है। यह बिल्कुल गलत है। जैसा कि आप जी को पूर्व में बताया है कि परमेश्वर कबीर जी ने अपनी महिमा का तथा भक्ति का यथार्थ ज्ञान संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला झज्जर, हरियाणा प्रान्त) को दिया है। उनका ज्ञान योग (दिव्य दृष्टि) खोल दिया था। तब संत गरीबदास जी ने यथार्थ ज्ञान लिखाया है। तीर्थ पर जाने वालों को क्या मिलता है?

गरीब, तीर्थ बाट चलै जो प्राणी। सोतो जन्म-जन्म उरझानी।।
जा तीर्थ पर कर है दानं। ता पर जीव मरत है अरबानं।।
गोते-गोते पड़ि है भारं। गंगा जमना गए केदारं।।

भावार्थ:- जो श्रद्धालु तीर्थ स्नान के लिए जाता था। वह पैदल जाता था। वर्तमान में गाड़ी से, मोटरसाईकिल से जाते हैं। रास्ते में जितने जीव यात्रा में मरते हैं, वे तीर्थ यात्राी के पाप कर्मों में लिखे जाते हैं। तीर्थ के अंदर जल में स्नान करने से कोई लाभ नहीं होता। यदि वहाँ दान करते हैं, वह दान कहीं कर लो, उसका फल अवश्य मिलता है चाहे पशु-पक्षी के जीवन में मिले। तीर्थ पर जाकर किए दान के साथ अरबों जीव मरने का पाप भी साथ लिपट गया। अब आप विचार करें कि तीर्थ स्नानार्थ जाने वाले को क्या लाभ या हानि होती है। गीता अध्याय 17 श्लोक 22 में कहा है कि कुपात्रा को दिया दान लाभ के स्थान पर हानि करता है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है किः- 

कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो बेद पुराण।।

इन्द्रियों को हठ करके साधते हैं, वह व्यर्थ प्रयत्न है। नाम साधना करने से इन्द्रियों पर अपने आप आवश्यक संयम हो जाता है।

व्रत करने से आध्यात्मिक कुछ भी लाभ नहीं है। गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में कहा है कि हे अर्जुन! यह योग यानि भक्ति न तो बिल्कुल न खाने वाले की यानि व्रत रखने वाले की सफल होती है और न अधिक खाने वाले की, न अधिक सोने वाले की, न बिल्कुल न सोने वाले की सफल होती है। सूक्ष्म वेद यानि कबीर परमेश्वर जी की वाणी में कहा है कि:-

गरीबदास जी ने कहा है कि मुझे मेरे सतगुरू कबीर जी ने बताया है किः-

गरीब, प्रथम अन्न जल संयम राखै, योग युक्त सब सतगुरू भाखै।

भावार्थ:- अन्न तथा जल को सीमित खावै, न अधिक और न ही कम, यह भक्ति की विधि मेरे सतगुरू बताते हैं।

‘‘तीनों देवताओं तथा ब्रह्म साधना का फल‘‘

यदि आप विष्णु जी की भक्ति करते हो और उसी को कर्ता मानते हो तो आप विष्णु-विष्णु का नाम जाप करके विष्णु जी के लोक में चले जाओगे, अपना पुण्य समाप्त करके फिर पृथ्वी पर जन्म पाओगे। एक दिन विष्णु जी की भी मृत्यु होगी। इसलिए श्री विष्णु जी की भक्ति से गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 वाली मुक्ति व सनातन स्थान प्राप्त नहीं हो सकता।

कबीर, हरि नाम विष्णु का होई। विष्णु विष्णु जपै जो कोई।।
जो विष्णु को कर्ता बतलावै। कहो जीव कैसे मुक्ति फल पावै।।
बहुत प्रीति से विष्णु ध्यावै। सो जीव विष्णु पुरी में जावै।।
विष्णु पुरी में निर्भय नाहीं। फिर के डार देय भूमाहीं।।
जब मरे विष्णु मुरारि। कहाँ रहेंगे विष्णु पुजारी।।
यह फल विष्णु भक्ति का भाई। सतगुरू मिले तो मुक्ति पाई।।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी का पुजारी ब्रह्मा जी के लोक में (ब्रह्मापुरी में) तथा शिव जी का पुजारी शिव लोक में तथा ब्रह्म काल का पुजारी ब्रह्मलोक में जाता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि ब्रह्म लोक पर्यन्त सब लोकों में गए साधक जन्म-मरण में रहते हैं। वे पुनः लौटकर पृथ्वी के ऊपर आते हैं। इनसे भी गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 वाली मुक्ति नहीं मिली जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते। सनातन परम धाम तथा परम शांति प्राप्त होगी। परम शांति उसी को प्राप्त होती है जिसका फिर जन्म कभी न हो, सदा युवा बना रहे, कभी मृत्यु नहीं हो। सब सुर यानि देवता तथा ऋषि-मुनि उपरोक्त प्रभुओं की पूजा (सेवा) करते हैं। इसलिए उनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

ध्रुव-प्रहलाद ने भी विष्णु की भक्ति की। उनका भी जन्म-मरण रहेगा। चार मुक्तियों की जानकारी बताई है। 1) सामिप्य 2) सायुज्य 3) सारूपय 4) सालोक्या, ये चारों मुक्तियों को प्राप्त भी जन्म-मरण में रहते हैं।

इन्द्र का शासनकाल 72 चतुर्युग का होता है। उपरोक्त विवरण पृष्ठ 42 से 52 तक का है। उसके पश्चात् देवताओं का राजा इन्द्र भी मृत्यु को प्राप्त होकर पृथ्वी पर गधे का शरीर धारण करता है।

पृष्ठ 53 पर लिखा है:-

है अनाम अक्षर के मांही। निह अक्षर कोई जानत नाहीं।

भावार्थ:- अनाम कहा जाने वाला ‘‘सार शब्द‘‘ अक्षर में है, परंतु वह वेदों, गीता, पुराण में लिखे अक्षर ज्ञान में नहीं है। इसलिए निह अक्षर कहा जाता है।

भवतारण बोध पृष्ठ 54 पर धर्मदास जी ने कहा कि मैंने सत्य कबीर नाम आपका जाना, आपने कबीर नाम किसलिए रखा? भवतारण बोध पृष्ठ 55 पर परमेश्वर कबीर जी ने उत्तर दियाः-

कबीर, देह नहीं और दर्शै देही। रहो सदा जहां पुरूष विदेही।।
आदि पुरूष निह अक्षर जाना। देही धर मैं प्रकट आना।।

भावार्थ है कि जैसे निह अक्षर कहा है, वह अक्षर है, परंतु निराला है। वह वेदों, गीता, पुराणों में नहीं है। इसलिए निह अक्षर कहा है। उसी प्रकार मेरी देही (शरीर) विचित्रा है, अन्य किसी देव तथा मानव का नहीं, इसलिए विदेही कहा जाता है। इसी प्रकार कबीर नाम समझ। चार युगों में प्रकट होने का वर्णन है। परमात्मा का सत्ययुग में सत सुकृत नाम रहा है। त्रोतायुग में मुनीन्द्र, द्वापर में करूणामय और कलयुग में कबीर नाम होता है।

ऋषि मुनि और असंखन भेषा। सत्य ठौर सपने नहीं देखा।।

भावार्थ:- ऋषि-मुनि तथा अन्य जितने भेष यानि पंथ हैं, किसी ने भी सत्य ठौर यानि सत्यलोक के दर्शन स्वपन में भी नहीं हुए हैं अर्थात् इनको मुक्ति प्राप्त नहीं हुई है। भवतारण बोध पृष्ठ 56 पर विशेष ज्ञान नहीं है, सामान्य ज्ञान है। भवतारण बोध पृष्ठ 57 का सारांश:-

इसमें आठ कमलों तक का ज्ञान है:-

1) प्रथम कमल:- मूल कमल गुदा द्वार के पास है। यह चार पंखुड़ियों का कमल है, देवता गणेश है।

2) अनाहत यानि स्वाद कमल:- मूल कमल से ऊपर है। छः पंखुड़ियों का कमल है। सावित्राी-ब्रह्मा देव हैं।

3) नाभि कमल:- यह नाभि के सामने रीढ़ की हड्डी पर बना है। आठ पंखुड़ियों का कमल है। लक्ष्मी तथा विष्णु जी देवता हैं।

4) हृदय कमल:- यह सीने के दोनों स्तनों के मध्य में रीढ़ की हड्डी के ऊपर है। यह 12 पंखुड़ियों का कमल है। पार्वती और शिव देव हैं।

5) कण्ठ कमल:- यह गले में रीढ़ की हड्डी पर बना है। सोलह पंखुड़ियां हैं। देवी दुर्गा (अविद्या बाई) देव है।

6) छठा कमल त्रिकुटी के तीर यानि किनारे है। त्रिकुटी से पहले है। तीन पंखुड़ियां हैं। परमात्मा कबीर रूप में परमेश्वर देव हैं।

7) सातवां कमल त्रिकुटी में है। इसकी दो पंखुड़ी (काली तथा सफेद) हैं।

8) अष्टम कमल:- आठवां कमल ब्रह्माण्ड के मांही यानि सिर के ऊपरी भाग को ब्रह्माण्ड कहा जाता है, उस आठवें कमल की 1000 (हजार) पंखुड़ियां हैं। इसका निरंजन काल देव है। काल के इक्कीस (21) ब्रह्माण्ड हैं। सात सुन्न हैं। सात सूरति हैं। आठवें कमल में निरंजन की सुरति यानि साकार शरीर नहीं दिखता, गुप्त है। केवल एक हजार पंखुड़ियों में ज्योतियां ही
दिखाई देती हैं। कमलों का ज्ञान कबीर सागर के अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 151 पर भी आठ कमलों का वर्णन है। कमलों का ज्ञान कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ के पृष्ठ 111 पर भी है। वहाँ पर नौवें कमल का भी ज्ञान है। कृप्या कमलों का संपूर्ण ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक में अनुराग सागर के सारांश में पृष्ठ 151 के सारांश में पृष्ठ 152 से 161 तक।

भवतारण बोध पृष्ठ 58 पर सामान्य ज्ञान है।

भवतारण बोध पृष्ठ 59.60 का सारांश:- परमेश्वर कबीर जी ने गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तथा अध्याय 14 श्लोक 5 वाले तीनों गुणों को स्पष्ट किया है।

कबीर, रज, सत, तम तीनों गुण जाना। ब्रह्मा, विष्णु, महेश बखाना।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि रजगुण ब्रह्मा है, सतगुण विष्णु तथा तमगुण महेश है। यही प्रमाण मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित केवल हिन्दी सचित्रा मोटा टाईप) के पृष्ठ 123 है। लिखा है कि ब्रह्म (काल निरंजन) की तीन प्रधान शक्तियां हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश। ये ही तीन देवता हैं, ये ही तीनों गुण हैं। देवी पुराण (श्री वैंकेटेश्वर प्रैस मुंबई से प्रकाशित संस्कृत-हिन्दी सहित) के तीसरे स्कंद में पाँचवें अध्याय के आठवें श्लोक में कहा है:- श्री शिव जी ने कहा कि हे मातः यदि आप हम पर दयावान हैं तो मुझे तमगुण, ब्रह्मा को रजगुण तथा विष्णु को सतगुण क्यों बनाया?

विवेचन:- विचार करें पाठकजन! जो ज्ञान पुराणों, गीता, वेदों में अंकित है, जिसको धर्मगुरू, ब्राह्मण नहीं जान सके, उस ज्ञान को काशी वाला जुलाहा (धाणक) कबीर जी जानते हैं। जिनको वे ब्राह्मण अशिक्षित तथा अज्ञानी कहते थे तो अब कबीर जी को आप क्या कहेंगे? परमेश्वर सर्वज्ञ परमात्मा, सच्चा सतगुरू कहेंगे, जगत गुरू कहेंगे। और विचार करते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कबहु ना होवै मुक्ति।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि जो साधक भूलवश तीनों देवताओं रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, उनकी कभी मुक्ति नहीं हो सकती। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में भी है। कहा है कि साधकों ने त्रिगुण यानि तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) को कर्ता मानकर उनकी भक्ति करते हैं। अन्य किसी की बात सुनने को तैयार नहीं हैं। जिनका ज्ञान हरा जा चुका है यानि जिनकी अटूट आस्था इन्हीं तीनों देवताओं पर लगी है, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए हैं, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म (बुरे कर्म) करने वाले मूर्ख हैं। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि वे मेरी (काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन की) भक्ति नहीं करते। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति दे रखी है। परंतु इनकी पूजा करने वाले अल्पबुद्धियों (अज्ञानियों) की यह पूजा क्षणिक सुख देती है। स्वर्ग लोक को प्राप्त करके शीघ्र जन्म-मरण के चक्र में गिर जाते हैं।

पृष्ठ 59 की वाणियों में स्पष्ट किया है कि भक्ति उसी की सफल होती है जो काल के लोक में भोले व्यक्ति कुल मर्यादा का बंधन बनाकर रहते हैं, उस लोक लाज यानि कुल मर्यादा से ऊपर उठकर भक्ति करता है। भक्ति करनी चाहिए।

पृष्ठ 60 पर सामान्य ज्ञान है।

भक्ति करे मुक्ति फल पावै। हमरे सत्यलोक में आवै।।

भवतारण बोध पृष्ठ 61-62 पर वाणी है:-

माया और ब्रह्म काल अरू, रज सत तम हैं त्रायदेव।
इन सबही को छोड़कर करो निह अक्षर की सेव (पूजा)।।

भावार्थ:- दुर्गा देवी तथा काल ब्रह्म तथा तीनों देवताओं को इष्ट मानकर भक्ति त्यागकर निःअक्षर यानि पूर्ण परमात्मा की भक्ति आदि नाम (सारनाम) से करो।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘भवतारण बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

।।सत साहेब।।

Sat Sahib