अध्याय ‘‘ज्ञान बोध‘‘ का सारांश
कबीर सागर में ज्ञान बोध 18वां अध्याय पृष्ठ 16 (862) पर है।
सतगुरू कबीर परमेश्वर जी ने ज्ञान बोध में धर्मदास जी को पात्रा बनाकर विश्व के मानव को काल का जाल समझाया है तथा बताया है कि काल के जाल से कैसे निकला जा सकता है। कुछ भ्रमित साधक साधना करते हैं काल ब्रह्म तथा इसके तीनों पुत्रों श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी की तथा दावा करते हैं काल जाल से निकलने का। जब तक सतगुरू नहीं मिलेगा, तब तक सार शब्द नहीं मिल सकता, न ही सतनाम मिल सकता। सतनाम तथा सार शब्द बिना काल जाल से छूटा नहीं जा सकता। जिनको सतगुरू नहीं मिला, वे कैसा दावा कर रहे हैं कि हम मोक्ष प्राप्त कर लेंगे?
ज्ञान सागर पृष्ठ 16 (862) का सारांश:- आदि अनाम ब्रह्म है न्यारा अर्थात् पूर्ण परमात्मा तो भिन्न है। उसका नाम जाप आपके शास्त्रों में नहीं है। इसलिए अनाम कहा है। वह सब प्रभुओं से भिन्न है। बिन सतगुरू के उसकी भक्ति विधि नहीं मिल सकती। जिस कारण से सब प्राणी संसार सागर में डूब रहे हैं यानि पार नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए जगत के प्राणियों को समझाओ कि संसार सागर से सतनाम की नौका में बैठाकर सतगुरू खेवट बनकर पार करेगा। जो आदि ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म सबसे भिन्न है। उसकी भक्ति करो। जब शरीर त्यागकर जाओगे तो सीधे सतलोक में चले जाओगे।
पृष्ठ 17 का सारांश:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा, हे धर्मदास! मैंने आदि नाम का ज्ञान करवाया। आदि ब्रह्म की जानकारी दी, परंतु तत्त्वज्ञानहीन अज्ञानी जीव नहीं मानते, उल्टा कहते हैं कि यह जुलाहा (धाणक) मतिहीन यानि अज्ञानी है। हमारे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की आलोचना करता है यानि इनको महिमाहीन कहता है। कहता है ‘‘तीन देव की जो करते भक्ति, उनकी कदे न होवे मुक्ति।‘‘ यह जुलाहा जो कभी-कभी जिन्दा बाबा का वेश बनाकर पाखण्ड करता है। यह क्या जाने श्री रामचन्द्र जी की महिमा जिसने लंका के राजा रावण का चिन्ह मिटा दिया। रावण ने राम की पत्नी सीता का अपहरण किया था। जिस कारण से रावण का नाश राम जी ने किया था और क्या-क्या महिमा कहूँ भगवान विष्णु उर्फ रामचन्द्र जी की। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! यह भोला प्राणी अज्ञानता के वश ऐसी भाषा मेरे प्रति बोलता है। ‘‘आदि नाम
मैं भाख सुनाई, यह जग जीव न चेता भाई।‘‘
भावार्थ:- कबीर जी ने कहा कि आदिनाम यानि सारशब्द मैंने बोलकर सुनाया, परंतु काल लोक का जीव सचेत नहीं हुआ। आदिनाम को भूल गए हैं। काल ब्रह्म के मायाजाल में लिपटे हैं। सच्चा साहब यानि सत्य साहब (सच्चा मालिक) किसी को मिला नहीं। ये राम-कृष्ण की भक्ति में लगे हैं। जो साधक निज नाम यानि वास्तविक भक्ति मंत्रा (सतनाम, सार शब्द) लेवेगा, वही अमर लोक में पहुँचेगा।
ज्ञान बोध के पृष्ठ 18 का सारांश:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आदि नाम हम भाख सुनाया, मूर्ख जीव मर्म नहीं पाया। जगत के व्यक्ति काल ब्रह्म के भेजे दूत संतों द्वारा भ्रमित होकर कहते हैं कि यह जुलाहा (धाणक) कबीर अज्ञानी है। यह परमात्मा का ज्ञान नहीं रखता। यह नीच जाति का है। इसको अक्षर ज्ञान नहीं है। काल ब्रह्म के भेजे भ्रमित ब्राह्मण कहते हैं कि वेद, शास्त्रा, गीता को हमने अच्छी तरह जाना है। वेद-शास्त्रा कहते हैं कि ब्रह्मा-विष्णु तथा शिव से भिन्न कोई प्रभु नहीं है।
वेद-पुराण हमने जाना। ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माना।।
सार बेद में देखा भाई। रजगुण, सतगुण, तमगुण साँई।।
गीता, भागवत पुस्तक नाना। कहें निस दिन जाप करो इन्हीं भगवाना।।
आदि भवानी तीनों देवा। इनकी सब मिल साधें सेवा।।
ऐसा ज्ञान हमारा होई। जुलाहा का कहा न मानो कोई।।
ज्ञान बोध पृष्ठ 19 का सारांश:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! इन काल ब्रह्म के दूत गुरूओं ने उपरोक्त ज्ञान चला रखा है। इस काल से भ्रमित जगत के व्यक्तियों की उल्टी रीति है। ये वास्तविक नाम तथा सच्चे परमात्मा से परिचित नहीं हैं। काल ब्रह्म से प्रेम किए हैं जो इन सबको खाता है। जैसे गीता अध्याय 15 के श्लोक 1 से 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! यह संसार एक पीपल के वृक्ष के तुल्य जानों। जिस संसार रूप वृक्ष की मूल (जड़) यानि मूल मालिक तो ऊपर के लोकों में है तथा नीचे को तीनों गुण रूपी (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव रूपी) शाखा हैं। इससे अधिक मैं आपको नहीं बता सकता क्योंकि इसके आदि-अंत को मैं नहीं जानता। इसके लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 32, 34 में स्पष्ट ही कर दिया है कि सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान तो (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अपने मुख कमल से बोली वाणी में दिए तत्त्वज्ञान में विस्तार के साथ बताता है। उसको जानकर सब पापों से मुक्ति मिल जाती है। वह तत्त्वज्ञान है।(गीता अध्याय 4 श्लोक 32)
गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तू उस ज्ञान को तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करके नम्रतापूर्वक कपट छोड़कर प्रश्न करने से वे परमात्म तत्त्व को जानने वाले महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।(गीता अध्याय 4 श्लोक 34)
गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि हे अर्जुन! तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते। जिस परमात्मा ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है। उसी की भक्ति कर।
गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में दो पुरूष कहे हैं। एक क्षर पुरूष, यह गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म है तथा दूसरा अक्षर पुरूष है। ये दोनों नाशवान हैं। इनके अंतर्गत जितने प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। आत्मा तो सबकी अमर है। वह तो कुत्ते-गधे की भी अमर है।
गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में अन्य पूर्ण परमात्मा बताया है जो संसार रूप वृक्ष की जड़ (मूल) है। जिसका ज्ञान गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को गीता अध्याय 8 श्लोक 1 के प्रश्न किया कि तत् ब्रह्म क्या है? उसका उत्तर गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 के ही श्लोक 3 में दिया है। कहा है कि जिसे तत् ब्रह्म कहते हैं, वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ है।
गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है जो क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष अध्याय 15 के श्लोक 16 में कहे हैं। उनसे भिन्न उत्तम पुरूष यानि पुरूषोत्तम तो कोई अन्य है जिसे परमात्मा कहा जाता है। वही तीनों लोकों (क्षर पुरूष का 21 ब्रह्माण्ड का क्षेत्रा यानि काल लोक, दूसरा अक्षर पुरूष का सात शंख ब्रह्माण्ड तथा ऊपर के चारों लोकों सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक का क्षेत्रा अमर लोक कहा जाता है, ऐसे तीनों लोकों का वर्णन यहाँ पर है) में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह मूल मालिक है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। परमेश्वर कबीर जी ने भी कहा है कि:-
अक्षर पुरूष एक पेड़ है, क्षर पुरूष वाकी डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
भावार्थ:- पृथ्वी से बाहर जो भाग होता है, उसको वृक्ष कहते हैं। पृथ्वी के अंदर जो भाग होता है, उसे मूल यानि जड़ कहते हैं। वृक्ष को मूल से आहार मिलता है। उससे तना, मोटी डार, शाखा तथा पत्तों का पोषण होता है। इससे स्पष्ट हुआ कि जो मूल रूप परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म सबका पालक है तथा संसार का सृजनहार है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।(गीता अध्याय 18 श्लोक 62)
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को ज्ञान बोध में यह बताया है कि काल ब्रह्म के द्वारा दिए शास्त्रा विरूद्ध ज्ञान अर्थात् लोकवेद के आधार से भ्रमित जनता संसार रूप वृक्ष के मूल को छोड़कर डार तथा शाखाओं की पूजा कर रहे हैं। ज्ञान बोध पृष्ठ 19 का सारांश चल रहा है। इसमें लिखा है:-
कबीर मूल राम ना काहू पाये। शाखा डार में जगत भ्रमाये।।
डार शाखा में ध्यान जो धरहीं। निश्चय जाय नरक में परही।।
बेद पढ़ै और भेद न जाने। डार शाखा को पुरूष (प्रभु) बखाने।।
पढ़ें पुरान और बेद बखाने। सतपुरूष का भेद न जाने।।
बेद पुराण यह करे पुकारा। सबही से एक पुरूष (प्रभु) नियारा।।
ताहि न यह जग जाने भाई। तीन देव में ध्यान लगाई।।
तीन देव की करि हैं भक्ति। उनकी कबहु ना होवे मुक्ति।।
तीन देव का अजब ख्याला। देवी देव प्रपंची काला।।
इनमें मत भटको अज्ञानी। काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।
तीन देव पुरूष गम्य ना पाई। जग के जीव सब फिरैं भुलाई।।
जो कोई सतपुरूष भजै भाई। ताको देख डरै जम राई।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! मूल राम यानि उत्तम पुरूष (पुरूषोत्तम) अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म का ज्ञान किसी को नहीं हुआ। डार यानि क्षर पुरूष तथा शाखाओं अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति में संसार भटक रहा है। जो इनमें आस्था रखता है, वह नरक में निश्चित गिरेगा। विद्वान बनकर पंडितजन वेद-पुराणों को पढ़ते हैं और उन पर व्याख्यान यानि प्रवचन करते हैं। उनको पुराणों तथा वेदों का ठीक से ज्ञान नहीं है। जिस कारण से व्यर्थ में मेरे से झगड़ा करते हैं। ये कहते हैं कि श्री विष्णु जी, श्री शिव जी, श्री ब्रह्मा जी परमात्मा हैं। गीता चारों वेदों का सारांश है। वेद तथा गीता में लिखा है कि परमात्मा तो सबसे भिन्न है। उसी की भक्ति करो। उसको यह संसार नहीं जानता। मैं कहता हूँ कि जो तीन देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की भक्ति करते हैं, उनकी कभी मुक्ति नहीं हो सकती। देवी तथा देवताओं व काल ब्रह्म में आस्था मत रखो, आपको काल अचानक झपट कर ले जाएगा। तीनों देवताओं यानि ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को भी परम अक्षर पुरूष का गम्य यानि भेद नहीं मिला। अन्य जीव जो इनके साधक हैं, उनको कैसे परमेश्वर मिलेंगे? अर्थात् कभी मुक्ति नहीं हो सकती। जो सतपुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म को भजता है, उसको देख (जम राई) काल राजा यानि काल पुरूष भी भय मानता है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 20 का सारांश:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि पंडितजन अपने आपको विद्वान तथा परमात्मा के भक्त कहते हैं और मूर्ति पूजा करते हैं। पत्थर-पानी की पूजा करके अपना अनमोल जन्म नष्ट कर रहे हैं। तीनों देवता सगुण (व्यक्त) हैं, काल निरंजन (निर्गुण) अव्यक्त है। इनसे पार पूर्ण परमात्मा है।
बेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचैं पुराण अठारा। पत्थर की पूजा करें, भूल गए सिरजनहारा।।
ब्राह्मण भूले बावरे सरगुण मत के जोर। लाख चैरासी भोगेहीं पार ब्रह्म के चोर।।
तीनों गुण सरगुण होई। ब्रह्मा विष्णु शिव है सोई।।
चैथा निरगुण निरंजन राई। निज उत्पत्ति बना के खाई।।
ताके परे इक राम नियारा। सो निर्गुण सरगुण के पारा।।
ज्ञान बोध पृष्ठ 21 का सारांश:- परमेश्वर कबीर जी अपना भेद स्वयं ही बताया करते हैं। वे कह रहे हैं कि जो सबसे भिन्न पार ब्रह्म है यानि परम अक्षर ब्रह्म है, उसको यह संसार नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव में सर्व संसार आस्था लगाए है। सत्य कबीर नाम के जाप का आनन्द नहीं लेता।
ब्रह्मा विष्णु शिव ही जग झांकै। सत कबीर नाम रस ना छाकै।।
नाम अमल रस चाखै कोई। ताका जरा मरण ना होई।।
सतगुरू भक्ति करै जो कोई। जाति वर्ण दुर्मति सब खोई।।
आदि नाम का जाप करावै। भव सागर बहुर नहीं आवै।।
आदि नाम की गहे जो आशा। सतगुरू काटे काल की फांसा।।
आदिनाम है गुप्त अमोला। धर्मदास मैं तुम से खोला।।
धर्मदास यह जग बौराना। कोई ना जाने पद निर्वाणा।।
यही कारण मैं कथा पसारा। जग से कहिए एक राम नियारा।।
यही ज्ञान जग जीव सुनाओ। सब जीवों का भ्रम नशाओ।।
‘‘सृष्टि रचना की वाणी‘‘ (ज्ञान बोध पृष्ठ 21-22 से)
भ्रम गए जब बेद पुराणा। आदि राम का भेद ना जाना।।
राम-राम सब जगत बखाने। आदि राम कोई बिरला जाने।।
राजा राम को यह जग जाने। सबको ताका भेद बखाने।।
अब मैं तुमसे कहूं चिताई। त्रायदेवन की उत्पत्ति भाई।।
कुछ संक्षेप कहूं गोहराई। सब संशय तुम्हरे मिट जाई।।
ज्ञानी सुने सो हृदय लगाई। मूर्ख सुने तो गम्य नहीं पाई।।
माँ अष्टंगी पिता निरंजन। वे जम दारूण वंशन अंजन।।
पहले कीन निरंजन राई। पीछे से माया उपजाई।।
माया रूप देख अति शोभा। देव निरंजन तन मन लोभा।।
कामदेव धर्मराय सताये। देवी कूं तुरंत धर खाये।।
पेट से देवी करी पुकारी। हे साहब मोहे लेवो उबारी।।
टेर सुनि सतगुरू तहं आए। अष्टंगी को बंद छुड़वाये।।
धर्मराय ने हिकमत कीन्हा। नख रेखा से भग कर लीना।।
धर्मराय कीन्हें भोग विलासा। माया को रही तब आशा।।
तीन पुत्रा अष्टंगी जाये। ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।।
तीन देव संसार चलाये। इनमें यह जग धोखा खाये।।
सतपुरूष का भेद कैसे कोई पाए। काल निरंजन जग भ्रमाए।।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा। सुन्न निरंजन बासा लीन्हा।।
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना।।
तीन देव सो उसको ध्यावैं। निरंजन का वे पार न पावैं।।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा। तीन लोक जीव करत आहारा।।
ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये। सकल खाय पुन धूल उड़ाये।।
तिनके सुत हैं तीनों देवा। आंधर जीव करत हैं सेवा।।
अकाल पुरूष काहू नहीं चीन्हा। काल पाय सबही गह लीन्हा।।
ऐसा राम सकल जग जाने। आदि ब्रह्म (तत् ब्रह्म) को ना पहचाने।।
तीनों देव और अवतारा। ताको भजै सकल संसारा।।
गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार।
कहैं कबीर निज राम बिना, कैसे उतरो पार।।
भावार्थ:- उपरोक्त वाणियों में परमेश्वर कबीर जी ने सृष्टि का आंशिक ज्ञान दिया है। सम्पूर्ण ज्ञान आप इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक पढ़ें। इसमें बताया है कि दुर्गा देवी तथा ज्योति निरंजन ने भोग-विलास (ैमग) करके तीन पुत्रा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की उत्पत्ति की। काल प्रतिदिन एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है। अपने तीनों पुत्रों को भी खाता है। संत गरीबदास जी को भी परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी की तरह मिले थे। उनको सत्यलोक लेकर गए थे, फिर वापिस छोड़े थे। उसके पश्चात् संत गरीबदास जी ने भी परमात्मा से प्राप्त ज्ञान बताया।
माया आदि निरंजन भाई। अपने जाये आपै खाई।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर माया और धर्मराया कहिए।
इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, वाणी हमरी लहिए।।
ज्ञान बोध पृष्ठ 23 का सारांश:-
कबीर, ऐसा राम कबीर ने जाना। धर्मदास सुनिये दे काना।।
जग जीवों को दीक्षा देही। सतनाम बिन पुरूष द्रोही।।
ज्ञानहीन जो गुरू कहावै। आपन भूला जीवन भुलावै।।
ऐसा ज्ञान चलाया भाई। सत साहब की सुध बिसराई।।
या दुनिया दोरंगी भाई। जीव गह शरण काल की जाई।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! कान देकर यानि ध्यान से सुन ले। जो सबसे भिन्न परमात्मा है, वह मैंने जाना है। जो सतनाम की दीक्षा नहीं लेता और जो गुरू सतनाम नहीं जानता या जो अधिकारी न होकर सतनाम की दीक्षा देता है, वह परमेश्वर का द्रोही है। यह दुनिया दोगली है। हमारा ज्ञान सुनकर नाम दीक्षा लेकर फिर से वही पूजा काल वाली करने लगती है। ऐसा ज्ञान संसार में फैला दिया। सत साहब यानि सच्चे परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) का नाम ही भुला रखा है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 24 से 26 तक सामान्य ज्ञान है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 25 पर एक वाणी है:-
सार शब्द ब्राह्मण नहीं जाने। आदि नाम शुद्र ही बखाने।।
भावार्थ:- ऊँची जाति वाले ब्राह्मण सारशब्द नहीं जानते। जिस कारण से अपना अनमोल जीवन नष्ट कर रहे हैं। उस सार शब्द यानि आदिनाम को भेद शुद्र यानि छोटी जाति वाला कबीर जुलाहा बखान करता है यानि वर्णन करता है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 27 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने सत्यलोक तथा अपनी महिमा आप ही बताई है। कहा है कि अनामी पुरूष का ज्ञान बताया है। निहअक्षर अर्थात् जो अक्षर से भिन्न है, उसको मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानता। अमर लोक यानि सतलोक में परमेश्वर का अमर शरीर है। उस लोक में अकाल पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा स्वयं रहता है।
धर्मदास जहां वास हमारा। काल महाकाल न पावै पारा।।
निर्भय घर बोही है भाई। रोग न ब्यापे काल न खाई।।
ऐसा है वह देश हमारा। जहां से हम आए संसारा।।
ताकी भक्ति करे जो कोई। भव ते छूटै जन्म न होई।।
वहां जाय जीव करै विलासा। अमर लोक में नहीं जीव का नाशा।।
कहै कबीर सुनो धर्मदासा। आदि नाम कहों तुम पासा।।
मूर्ख सतगुरू मर्म ना पावै। भव सागर में भटका खावै।।
उपरोक्त वाणियों का भावार्थ समझाने की आवश्यकता नहीं है, अपने आप ही स्पष्ट हैं।
पृष्ठ 28 ज्ञान बोध में गुरू की महिमा का कुछ ज्ञान है, ज्ञान बोध पृष्ठ 29 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने अपने को छुपाकर कहा है कि सतपुरूष ने मुझे जीवों को समझाने के लिए भेजा है। वास्तव में कबीर जी ही परमेश्वर हैं।
हम हैं सतलोक के बासी। दास कहाय प्रकटे काशी।।
कलियुग में काशी चलि आए। जब हमरे तुम दर्शन पाये।।
तब हम नाम कबीर धराये। काल देख तब रह मुरझाय।।
देह नहीं और दरशै देही। जग ना चीन्हे पुरूष विदेही।।
नहीं बाप ना माता जाये। अबगत से हम चल आये।।
होते विदेह देह धरि आए। आदि नाम जग टेर सुनाये।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि हम पूर्ण परमात्मा हैं और काशी नगर (भारतवर्ष) में दास बनकर प्रकट हुआ हूँ। मेरी पाँच तत्त्व की देह अर्थात् शरीर नहीं है। इसको विदेह कहा जाता है। यह देह दिखाई दे रही है। मेरी देही तेरी जैसी देह नहीं है। इसको विदेह कहते हैं। विदेह का अर्थ यही माना जाता है कि देह रहित परंतु मेरी देह यानि शरीर आप देख रहे हैं। मेरा जन्म माता-पिता से नहीं हुआ, मैं स्वयंभू हूँ। हम विदेह थे यानि विशेष शरीर में थे जो चर्म दृष्टि से देखा नहीं जा सकता यानि अधिक प्रकाशमय विलक्षण शरीर है। उसके ऊपर अन्य चोला (शरीर) पहनकर हम आए हैं। मैं चारों युग में आया हूँ। चारों युग के चार नाम रहे हैं।
चारों युग के चारों नामा। माया रहित रहे तिहि ठामा (स्थान)।।
सतजुग में सत सुकृत कहाये। त्रोता नाम मुनिन्द्र धराए।।
द्वापर में करूणामय कहाए। कलियुग नाम कबीर रखाये।।
आदिनाम चारों युग टेरा। सज्जन जीव सुनत ही आया नेरा।।
जो जो जीव शरण में आये। तिनको हमने नाम सुनाये।।
भावार्थ की आवश्यकता नहीं है। वाणी स्वयं बोलती है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 30 का सारांश:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से भक्तों यानि साधकों के लक्षण जानना चाहा तो कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि संसार में बहुत भक्त हुए हैं।
धर्मदास वचन
कह धर्मदास सुनो प्रभु राई। भक्त भाव मोहि देव बताई।।
कबीर वचन
भक्तों की यह कथा पसारा। धर्मदास सुनियो चित्त धारा।।
जग में भक्त भये अधिकारी। जोगी सन्यासी लटा धारी।।
शीव गोरख अरू बहु ब्रह्मचारी। मायाने सबको ठगडारी।।
इनको ठग जब हम पर धाई। गुप्त नाम हम टेर सुनाई।।
लौट गइ माया बहुवारी। हम रहे जीत माया गइ हारी।।
माया जाल है कठिण अपारा। तासे मुनि गण बैठे हारा।।
माया जाल परो मत भाई। धर्मदास जग कहो गुहराई।।
भवसागर है भक्त बहुतेरा। जिनको तुमसे कहो निबेरा।।
मौनी भये मुखहु नहिं बोलें। भेष बनाये घर घर डोलें।।
अंगहि भस्म गले बिच माला। मढ़िया बैठ भये मतवाला।।
धूनि रमाय गुरिया सरकावे। गगन चढ़ाय के जग भरमावें।।
कान फाड़ शिर जटा बढ़ाये। माथे चन्दन तिलक लगाये।।
वस्त्रा रंगा जोगी बन आये। प्रभु मिले नहीं भेष बनाये।।
बहुत करैं जप तप रे भाई। आदि नाम कोई नहिं पाई।।
पाहन सेवें भक्त कहावै। चन्दन तेल सिंदूर चढ़ावैं।।
मानुष जन्म बड़े तप होई। नाम बिना झूठे तन खोई।।
साधु युक्ति अस चाल बताऊँ। धर्मदास मैं तुम्हें लखाऊँ।।
काम क्रोध लोभ अहंकारा। सोई साधु जो इतने मारा।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि जिनके पास गुप्त नाम यानि आदिनाम (सार शब्द) है, उसके ऊपर माया का वश नहीं चलता। वह माया में लिप्त नहीं होता। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, माया दासी संत की, उभय दे आशीष। विलसी और लातों छड़ी, सुमर-सुमर जगदीश।।
अन्य जिनको पूर्ण संत नहीं मिला, सार शब्द प्राप्त नहीं हुआ, उन्होंने बहुत कठिन साधनाऐं की हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार की शास्त्रा विरूद्ध साधनाऐं की हैं जो सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। जिस कारण से वे साधक जगत में सुप्रसिद्ध भी हुए हैं, परंतु मोक्ष नहीं हुआ। माया (दुर्गा देवी) ने उन सबको ठग लिया। उनकी सिद्धि शक्ति समाप्त करा दी। कुछ को स्त्राी जाल में फंसा दिया। माया (दुर्गा देवी) कई बार मेरे ऊपर जाल डालने आई, परंतु मैंने गुप्त नाम का जाप आवाज लगाकर कर दिया। (इनको ठग जब हम पर आई। गुप्त नाम हम टेर सुनाई।। लौट गई माया बहु बारी। हम रहे जीत माया रही हारी।।)
साधक शास्त्रा विधि रहित साधना करके अपना जीवन नष्ट कर जाते हैं। कोई मौन रखता
है, मुख से बोलता नहीं, घर-घर जाता है। शरीर के ऊपर भस्म (राख) लगाते हैं। कोई कानों में
छिद्र करा लेते हैं, मुद्रा डालते हैं, जिनको कनपाड़ा कहते हैं। कुछ सिर के ऊपर लंबे-लंबे बाल
रखते हैं जिनको जटाधारी कहते हैं। मस्तिक के ऊपर तिलक लगाते हैं। कोई वस्त्रों को लाल रंग
से रंगकर साधु बन जाते हैं। जनता उनको पूर्ण संत मानने लगती है, उनकी पूजा करने लगती
है। परमात्मा इस प्रकार के ऊपरी आडंबर करने से नहीं मिलता।
कबीर, मानुष जन्म बड़े पुण्य से होई। नाम बिना झूठा तन खोई।।
बहुत करें जप तप रे भाई। आदि नाम बिन मुक्ति नाहीं।।
आदिनाम यानि सार शब्द के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। वह उपरोक्त आडंबर करने वालों
के पास नहीं है। सारशब्द प्राप्त करके भक्त निराभिमानी होना चाहिए। काम (विषय वासना) लोभ,
क्रोध आदि से बचे तथा सुका-फीका जैसा भी परमात्मा भोजन दे, उसमें संतोष करे। माँस-मदिरा,
नशीली वस्तुओं का सेवन न करे और दिन-रात हमारा नाम यानि आदिनाम का स्मरण करे।
ज्ञान बोध पृष्ठ 31 का सारांश:-
तत्त्व प्रकृति और बल माया। इनहिं जीत तब साधु कहाया।।
अन्त कपट सब देय बहाई। क्षमा गंग में बैठ नहाई।।
हार जीत और अभिमाना। इनसों रहित सो साधु जाना।।
बिहंसत बदन भजन को आगर। शीतल दया प्रेम सुखसागर।।
सब षट कर्म छोड़ अज्ञाना। धर ले केवल निर्गुन ध्याना।।
धन्य धन्य जग साधु है सोई। जिन अपनी दुरमति सब खोई।।
ऐसी रहन साधु की भाई। जब हंसा निरभय पद पाई।।
साधु लक्षण तुम्हें सुनाया। गन मुनि कहाू भेद न पाया।।
आदि नामको नित गुनगावो। सोवत जागत ना बिसरावो।।
सत साहिब है सबसे न्यारा। ताहि जपे होवे भव पारा।।
भक्त अनेक भये जग माहीं। जोग करै पै युक्ति न पाहीं।।
भावार्थ:- भक्त को परमेश्वर के ऊपर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। संसारी हार-जीत से दुःखी तथा सुखी न होकर परमेश्वर की रजा में खुश रहे चाहे कितनी ही हानि हो जाए। परमात्मा की रजा जाने। परमात्मा प्रसन्न रहेगा तो पलभर में सर्व हानि लाभ में बदल देगा। यदि सांसारिक हानि के कारण परमात्मा से दूर हो गया तो समझो सर्वनाश ही हो गया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यह आपको साधक के लक्षण बताए हैं। आदिनाम (सार शब्द) का दिन-रात स्मरण करो। सोते समय तथा जागते समय परमात्मा को न भूलो। सत साहिब यानि अविनाशी परमात्मा सबसे भिन्न है। वह भक्त-संत धन्य है जिसकी दुर्मति यानि अज्ञान समाप्त हो गया है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 32 का सारांश:- इस पृष्ठ पर गुरूदेव की महिमा बताई है। शिष्य को गुरूदेव के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह समझाया है।
गुरू सेवा में फल सब आवै। गुरू विमुख नर पार न पावै।।
गुरू वचन निश्चय कर मानै। पूरे गुरू की सेवा ठानै।।
गुरू से शिष्य करे चतुराई। सेवाहीन नरक में जाई।।
साधक को चाहिए कि वह परस्त्राी को माता तथा बहन के समान समझे, परधन पत्थर के तुल्य जाने। जीवों के प्रति दया रखे। जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए। ना ही माँस खाना चाहिए। भक्त के हृदय में दयाभाव होना चाहिए। ऐसी साधना करनी चाहिए जिससे सारशब्द प्राप्ति हो सके।
फिर कहा है कि साधक को पाठ भी कराना चाहिए। प्रत्येक पूर्णमासी को यानि महीने में एक दिन पाठ अवश्य कराना चाहिए। यदि प्रति महीने पाठ की रजा नहीं हो सके तो छठे महीने कराना चाहिए। छठे महीने भी पाठ नहीं करा सके तो वर्ष में एक बार पाठ अवश्य कराऐं। कबीर जी का नाम यानि आदिनाम तथा सतनाम व प्रथम मंत्रा मिलकर कबीर परमेश्वर द्वारा बताए मंत्रा कबीर जी का नाम कहे जाते हैं। इनका जाप अवश्य करें। ऐसे जो करेगा, उसकी मुक्ति अवश्य होगी।
पृष्ठ 33 ज्ञान बोध का सार:-
इस पृष्ठ पर भी जीव दया का ज्ञान है। जीवों की हत्या कसाई व्यक्ति करते हैं। जो शिकार करके खुशी मनाते हैं, वे दुष्ट अन्यायी हैं।
उनको चाहिए कि बुराई तथा हिंसा त्यागकर सतगुरू शरण में आकर दीक्षा लेकर भक्ति करके अपना कल्याण कराऐं।
ज्ञान बोध पृष्ठ 34 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने आदिनाम का परिचय तथा महत्त्व बताया है।
आदिनाम है अजर शरीरा। तन मन से गह सत कबीरा।।
धर्मदास सुन जो गहे कबीरा। सो पावै सुख सागर सीरा (हिस्सा)।।
निज शब्द कबीर है सारा। जाका है निज सकल पसारा।।
इसमें कुछ वाणी मिलावटी हैं जिसमें लिखा है कि धर्मदास और कबीर में भेद न मानें। यह तो गुरू पद पर विराजमान गुरू के प्रति कहा है। फिर स्पष्ट किया है कि:-
आदिनाम मैं भाख सुनायो। यह नाम जपे से मुक्ति पायो।।
दोहा:- आदि नाम है मुक्ति का, जप जान जो कोए।
कोटि नाम संसार में, तासे मुक्ति ना होए।।