ज्ञान बोध पृष्ठ 35 का सारांश:-
‘‘चार गुरूओं का ज्ञान‘‘
इस पृष्ठ पर स्पष्ट किया है कि चार गुरू चारों युगों में नियुक्त किए थे। 1) सत्ययुग में ‘सहते जी‘ 2) त्रोता में ‘बंके जी‘ 3) द्वापर में ‘चतुर्भुज जी‘ 4) कलयुग में ‘धर्मदास जी‘, ये जानकारी है।
विवेचन:- इस पृष्ठ पर उपरोक्त विवरण के तुरंत पश्चात् धर्मदास जी के बयालीस (42)
पीढ़ी के विषय में वाणी है, ये मिलावटी है। इनमें कहा है कि:- धर्मदास वंश बयालीस तुम्हरे सारा और सकल सब झूठ पसारा। इन्हें सौंप देव तुम भारा।
भावार्थ:- इस वाणी का भावार्थ यह है कि परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी से कह रहे हैं कि तेरे बयालीस वंश ही वास्तविक हैं और सब झूठ है। इनको तुम मोक्ष का भार सौंप दो। विचार करें कि कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को गुरू पद नहीं दिया था। फिर उसको यह कहना कि तुम अपने वंश को मोक्ष का भार सौंप देना निरर्थक है। कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी के दूसरे पुत्रा चूड़ामणि (मुक्तामणि) जी को स्वयं दीक्षा देकर गुरू पद दिया था। केवल प्रथम मंत्र दिया था। फिर यह भी स्पष्ट कर दिया था कि इस गुरू परंपरा में छठी पीढ़ी वाला वास्तविक भक्ति मंत्र त्यागकर टकसारी वाले नकली कबीर पंथी वाले भक्ति मंत्रा तथा आरती चैंका करेगा तथा कराएगा। यह काल का छल होगा जो तेरे वंश की बयालीस पीढ़ी से वास्तविक भक्ति विधि समाप्त हो जाएगी। काल की साधना शुरू होगी। {प्रमाण:- अनुराग सागर पृष्ठ 140 पर।} फिर परमेश्वर कबीर जी ने इसी ज्ञान बोध के पृष्ठ 35 पर अंतिम वाणियों में स्पष्ट किया कि हे धर्मदास! जिसके पास नाम का भेद है यानि जिसके पास वास्तविक भक्ति मंत्रा है, वही हमारा वंश है। नहीं दुनिया यानि जनता बहुत है, आपकी बयालीस पीढ़ी से कोई लेना-देना नहीं। यदि वास्तविक भक्ति है तो तेरे वंश वाले भी हमारा वंश है जिनके पास सत्य साधना नहीं है तो वह अन्य जनता में गिने जाएंगे। वह संसार वाले हैं, भवसागर में डूब मरते हैं।
धर्मदास मैं कहो विचारी। यहि विधि निबहै सब संसारी।।
साखी:- नाम भेद जो जानहीं, सोई वंश हमार।
नातर दुनिया बहुत है, बूड़ मरा संसार।।
फिर परमात्मा कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा है कि सारशब्द मैंने तुझे दिया है। इस मंत्र के प्रभाव से काल तेरे आधीन रहेगा।
‘सार शब्द मैं तुमको दीन्हा, काल तुम्हारे रहे आधीना।‘
फिर परमेश्वर कबीर जी ने कबीर सागर के ‘‘कबीर बानी‘‘ अध्याय के पृष्ठ 137 (983) पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ के पृष्ठ 1937 पर कहा है कि हे धर्मदास! यह सार शब्द किसी को नहीं बताना। इस सार शब्द को तब तक छुपाना है, जब तक कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष न बीत जाए तथा काल के द्वादश (12) पंथ चलकर मिट न जाऐं। विचार करें उस समय तो एक भी पंथ नहीं चला था। इसलिए धर्मदास के पुत्रा चूड़ामणि (मुक्तामणि) जी को सार शब्द नहीं दिया गया था।
ज्ञान बोध पृष्ठ 36 से 39 का सारांश:-
पृष्ठ 36 पर सामान्य ज्ञान है। पृष्ठ 37 पर बताया है कि ‘‘मन‘‘ काल है। यह काल का दूत है। पृष्ठ 38 का सारांश है कि सतलोक में काल ब्रह्म ही नहीं जा सकता तो अन्य देव की कहाँ चलेगी? अर्थात् वे कैसे उस ऊपर के स्थान को प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर कबीर जी ने अपनी महिमा स्वयं ही बताई है। कहा है कि हमारा सतलोक महा सुखदायी है और उसको काल, दुर्गा तथा देवता भी प्राप्त नहीं कर सकते। सार शब्द प्राप्त प्राणी उस सुखसागर में आसानी से जा सकता है। उस लोक में जाने के पश्चात् पुनः लौटकर इस संसार में नहीं आता। इसी लोक में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 के श्लोक 4 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परम शांति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। जहाँ जाने के पश्चात् लौटकर संसार में कभी नहीं आते।
ज्ञान बोध पृष्ठ 39 का सारांश:-
आदिनाम की जो राखे आशा। तापै परे नहीं काल की फांसा।।
आदिनाम निरअक्षर भाई। ताहि नाम ले लोक जाई।।
अकह नाम कहा नहीं जाई। घट घट व्याप निरंतर सांई।।
हिये नयन से देखो भाई। तब तुमको वह राम लखाई।।
भावार्थ:- इस पृष्ठ पर स्पष्ट किया है कि निःअक्षर आदिनाम को ही कहते हैं। इसी नाम के जाप की कमाई यानि भक्ति धन से सतलोक में जाया जाता है। जो इस आदिनाम की आशा रखता है यानि विश्वास से भक्ति करके मोक्ष की आशा इसी नाम की भक्ति करके रखता है, उसका काल का बंधन समाप्त हो जाता है। काल का बंधन कर्म है सारशब्द यानि आदिनाम से सर्व पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। आदिनाम को अकह नाम कहा जाता है। भावार्थ है कि अकह नाम आदिनाम को इसलिए कहते हैं कि इसका जाप बोलकर यानि उच्चारण करके नहीं किया जाता। श्वांस-उश्वांस सुरति-निरति से किया जाता है। परमात्मा दिव्य नेत्रों यानि दिव्य दृष्टि से देखा जा सकता है।
ज्ञान बोध पृष्ठ 40 का सारांश:-
सोहं शब्द निरक्षर बासा। ताहि शब्द जप है निज दासा।।
सार शब्द का सुमरण करि है। सहज अमर लोक निस्तरि है।।
सुमरण का बल ऐसा होई। कर्म काट सब पल में खोई।।
सुमरण से सब कर्म विनाशा। सुमरण से होय दिव्य ज्ञान प्रकाशा।।
भावार्थ:- इस पृष्ठ पर स्पष्ट किया है कि सार शब्द का स्मरण करना होता है। जो कहते हैं कि स्मरण करने की कोई आवश्यकता नहीं, गुरू ही पार कर देगा, उनको यह पृष्ठ ध्यान से पढ़कर मिथ्या भाषण त्यागकर आदिनाम पूरे सतगुरू से लेकर स्मरण करना चाहिए। यह भी स्पष्ट किया है कि सारशब्द यानि निरक्षर में सोहं शब्द का योग है, उस शब्द का जाप करना चाहिए। स्मरण से सब पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। परमात्मा दिव्य दृष्टि (हिये नयन=हृदय नैंन) से देखा जा सकता है। जो सारशब्द का स्मरण करते हैं, वे सहज यानि सरलता से सतलोक में निवास करते हैं।
ज्ञान बोध पृष्ठ 41 का सारांश:-
याही ग्रन्थ में नाम नियारा। सूक्ष्म रीति से कहों पुकारा।।
जै आदि नाम जाने संसारा। करे भक्ति तो पहुँचे दरबारा।।
पढे़ संत होवै मतिधीरा। आदि नाम है अजर शरीरा।।
आदिनाम है सत कबीरा। जो जन गहे छूटे भव पीरा।।
आदि नाम पहचानों भाई। तब हंसा निज घर ही जाई।।
ज्ञान उपदेश कह गुरू पूरा। नाम गहे चेला सोई सूरा।।
भावार्थ:- इस ज्ञान बोध ग्रन्थ में आदि नाम लिख दिया है। वह सबसे भिन्न मंत्रा है। वह मंत्रा किसी ग्रन्थ में नहीं है। उस आदिनाम का उपदेश पूर्ण सतगुरू ही देता है। उसी से आदिनाम की दीक्षा लेकर संसार से पार हुआ जा सकता है। पूर्ण गुरू से उपदेश का लाभ पूरा शिष्य उठाता है जो प्रत्येक मर्यादा का पालन करता है।