अध्याय ज्ञान स्थिति बोध का सारांश

कबीर सागर में 26वां अध्याय ज्ञान स्थिति बोध पृष्ठ 77 पर है। ज्ञान स्थिति बोध में कुछ भी भिन्न नहीं है। ज्ञान प्रकाश बोध तथा ज्ञान बोध, मुक्ति बोध में विस्तार से कहा है। इस अध्याय ज्ञान स्थिति में केवल पृष्ठ 83 पर सत्य पुरूष के शरीर का वर्णन विशेष है। परमेश्वर नर आकार (मानव सदृश) स्पष्ट किया है। हाथ, पैर, नाक, कान, सिर, मस्तक सबकी शोभा बताई है। गले में पुष्प की माला पहने हैं। कृपा पढ़ें ज्ञान स्थिति बोध के पृष्ठ 83 पर लिखी वाणी:-

सत पुरूष साकार (नराकार) है

साखी-अब मैं कहब तोहि सों चित करो विचार।
कहै कबीर परूष को, याही रूप निज सार।।

चैपाई

कहै कबीर सुनो धर्मदासा। अग्रमूल बिदेह परकाशा।।
इच्छा पुरूष काया बंधाना। लीलागर दीप कीन्ह अस्थाना।।
सुजन हंस जन कीन्ह विश्रामा। धरै ध्यान पुरूषकर नामा।।
तहँवा पुरूष कीन्ह अस्थाना। अस्थल रूपको कहों ठिकाना।।
कंठमाल पुहुपन की राजे। सिर प्रभु के छत्रा विराजे।।
हाथ अमी अंकूर बिचारी। जगर मगर शोभा उजियारी।।
उपमा काकहि बरनों भाई। कोटि भानु सो जायें लजाई।।
भालरूप बरनन कहि कैसा। बीस सहस्त्रा भानु लखि जैसा।।
श्रवण (कान) शाभा देहु बताई। रवि सहस्त्रा तहाँ रहे लजाई।।
चक्षु अमीकर चितवन कैसी। सुधा सिंधु लारें उठ जैसी।।
नासा ग्रीवा कंठ कपोला। शोभा इनकी आइ अतोला।।
मुखारविंद अरविंदहि जानी। उदय कोटि सूरजकी खानी।।
उभय हंस अधरमो विहरै। दामिनि दर्शन उठत जनु लहरै।।
भुजा बाँह मन चिकुर बनाई। हृदय राखि उर कलित लजाई।।
साखि-कटि नाभि पिंडुरी जंघनि, नख सिख बहुत अनूप।
झलझलात झलकत महा, शब्दहि रूप सुरूप।।

चैपाई

निगम नेति नेतिहि करिधावै। तिनको रूप बरन को पावै।।
मन बुधि चित पहुँचे नहिं तहाँ। अबरण पुरूष विराजे जहाँ।।
जहाँ लों निजमन दर्शन पावा। तहाँ लगि वरणि कबीर सुनावा।।
अगम अगाध गाधमो नाहीं। ज्योंके त्यों प्रभु सदा रहाहीं।।
अग्र नाम पुरूष के बरणी। भवसारकी है यह तरणी।।

पृष्ठ 82 पर वाणी में लिखा है:-

पुरूष गले पुष्प की माला। हाथ अमर अंकुर रिसाला।।

भावार्थ:- उपरोक्त वाणियों में स्पष्ट है कि परमेश्वर का मानव जैसा शरीर है। उसका प्रत्येक अंग प्रकाशमान है। परमात्मा अविनाशी है। अमर लोक में विद्यमान है।

पाँच नाम का वर्णन

पृष्ठ 86 पर लिखा है कि मोक्ष मार्ग में पाँच तथा सात नाम का मंत्रा भी सहयोगी है।

पाँच नाम ताही को परवाना। जो कोई साधु हृदय में आना।।
सप्त नाल सातों नामा। बीरा बिहंग करैं सब कामा।।

पृष्ठ 101 पर:-

यह गुण ज्ञान स्थिति ही के, जो पावै निज नाम।
अजपा जपै कबीर को, सो पहुँचे निज धाम।।
नाम हृदय धरै और जपै सही जाप।
मूल शब्द की रटना करै, मूल शब्द प्रभु आप।।

ओहं-सोहं का वर्णन

पृष्ठ 105 पर:-

ओहं-सोहं ताको जापा। लिखत परै नहीं पुण्य और पापा।।
मूल शब्द (सार शब्द) काहु नहीं पावा। मूल नाम मैं गुप्त छिपावा।।

पृष्ठ 107 पर:-

सार नाम जिन हिये समोई। काल जाल सब जाय बिगोई।।

पृष्ठ 126 पर:-

ओहं सोहं के होई सवारा। छोड़ जब देह जावै दरबारा।।

अक्षर तथा निःअक्षर भिन्न नहीं है

पृष्ठ 144 पर:-

अक्षर निर अक्षर दुजा नाहीं। दूजा कहै हो बिगुचन ताही।।
कह कबीर धर्मदास सों, अक्षर सुमिरहू सार।
निःअक्षर सों प्रीत कर, उतरहू भवजल पार।।

उपरोक्त वाणियों में परमात्मा के नराकार स्वरूप तथा वास्तविक मोक्ष मंत्रों का संकेत है।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान स्थिति बोध’’ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

Sat Sahib