कबीर सागर में 23वां (तेइसवां) अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 92 पर है। इस अध्याय में पृष्ठ 101 तक सृष्टि रचना का अधूरा तथा मिलावटी ज्ञान है। सृष्टि रचना का यथार्थ ज्ञान आप इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक पढ़ें।
कबीर बानी पृष्ठ 102 तथा 103 का सारांश:-
धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रश्न किया कि हे परमेश्वर! मुझे आपने अंश तथा वंश दोनों का ज्ञान दिया है। अंश है नाद यानि वचन के पुत्रा अर्थात् शिष्य परंपरा। वंश है बिन्द यानि शरीर के पुत्रा। (जो धर्मदास जी के वंश हैं) धर्मदास जी ने पूछा है कि जो मेरे वंश वाले दीक्षा देंगे, वो किस लोक में जाएंगे और जो अंश वाले से दीक्षा लेगा, उसके अनुयाई किस लोक या द्वीप
में जाएंगे?
धर्मदास-उवाच
धर्मदास विनती असलाई। तुम्हरे चरण मुक्ति गति पाई।।
उत्पत्ति कारण हम पावा। वंश-अंश दोनों निरतावा।।
लोक द्वीप ठौर बतायो। बैठक अस्नेह हंस हंस चिन्हायो।।
कैसा स्वरूप समर्थ है, कैसे हैं सब हंस।
केहि करनी ते पाईए, कैसे कटै काल की फंस।।
‘‘सतगुरू वचन‘‘ चैपाई
कहें कबीर सुनो धर्मदासा। अल्प बुद्धि घट मांह निवासा।।
सत्य लोक है अधर अनूपा। तामें है सत्ताविस (27) दीपा।।
सत्त शब्द का टेका दीना। अगम पोहुमीरचीतिन लीन्हा।।
सागर सात ताहि विस्तारा। हंस चलै तहां करै विस्तारा।।
अग्रवास वह सुवरन कांती। तहां बैठे हंसन की पांती।।
पुहुपद्वीप है मध्य सिहांसन। कल्पदीप हंसन को आसन।।
अविगत भूषण अविगत सिंगारा। अविगत वस्त्रा अविगत अहारा।।
कमल स्वरूप भौमी है भाई। वहाँ की उपमा देउ बताई।।
आभा चन्द्र सूर्य नहिं पावहिं। भूल चूक के शीश नवावहिं।।
कला अनेक सुख सदा होई। वह सुख भेद यहंा लहे न कोई।।
निरतै हंस पुरूष के संगा। नखशिख रूप बन्यो बहु अंगा।।
पुरूष रूप को बरनै भाई। कोटि भानु शशि पार न जाई।।
छत्रा सरूप को वरणै भाई। अविगत रूप सदा अधिकाई।।
सत्ताइस द्वीप में करे अनन्दा। जो पहुँचे सो काटें फन्दा।।
हंस हिरम्भर और सोहंगा। श्वेत अरूण रूप दोउ अंगा।।
विमल जोत को है उजियारा। झलकै कला पुरूष में भरा।।
चारि शब्द का लोक बनावा। पांच सरूप लै हंस समावा।।
सत्य शब्द की भूमि बनाई। क्षमा शब्द आसन निरमाई।।
धिर्ज शब्दसों छत्रा उजियारा। सुमत शब्दसों वस्त्रा पसारा।।
प्रेम शब्दसों हंस निरमाई। आप शब्दते लोक समाई।।
दीपन करै दीप हंस बिहारा। तहां पुरूष निर्मल उजियारा।।
जब विहंसे मुख मोड़ सुहाई। निरत हेरि विहंसे चितलाई।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तेरी बुद्धि फिर से अल्प हो गई है यानि मंद बुद्धि की बातें कर रहा है। अब सुन, तेरे प्रश्न का उत्तरः- सतलोक में सताईस (27) द्वीप हैं। सात सागर हैं। उन द्वीपों में बहु संख्या में मुक्त भक्त यानि हंस रहते हैं। सुंदर वस्त्रा पहनते हैं। श्रृंगार किए हैं। आभूषण पहने हैं। परमेश्वर के रूप की शोभा बताऊँ सुन! करोड़ सूर्य और चन्द्रमा जितनी शोभा यानि प्रकाश एक रोम (शरीर के बाल) का है। सिर का छत्रा भी स्वप्रकाशित है।
कबीर बानी पृष्ठ 104, 105 का सारांश:-
धर्मदास जी ने प्रश्न किया था कि किस करनी (भक्ति साधना) से सत्यलोक तथा किस करनी (भक्ति साधना) से अन्य द्वीपों की प्राप्ति होती है। उसका उत्तर देते हुए परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि दीक्षा तीन चरणों में दी जाती है। (पाठकजन याद रखें कि कबीर सागर में मिलावट है, उसी की झलक आप पृष्ठ 104 पर भी पढ़ सकते हैं। अब यथार्थ ज्ञान बताया जा रहा है।) जो तीनों चरणों की दीक्षा प्राप्त करके मर्यादा में रहकर साधना करके शरीर त्यागकर जाते हैं, वे सत्यलोक में जाते हैं। जो नकली गुरूओं से दीक्षा लेकर साधना करते हैं, वे काल के द्वारा निर्मित नकली लोकों में चले जाते हैं जो ब्रह्मलोक में बनाए हैं, काल जाल में रह जाते हैं।
पृष्ठ 105 पर धर्मदास तथा उनकी पत्नी आमिनी देवी को दीक्षा देने का प्रकरण है:-
तीनि अंश की लगन विचारी। नारी तथा पुरूष उबारी।।
नारी-पुरूष होए एक संगा। सतगुरू वचन दीन्ह सोहंगा (सोहं)।।
सोहं शब्द है अगम अपारा। ताका धर्मनि मैं कहूँ विचारा।।
सोहं पेड़ का तना और डारा। शाखा अन्य तीन प्रकारा।।
अमृत वस्तु बहु प्रकारा। सोहं शब्द है सुमरन सारा।।
सोहं शब्द निश्चय हो पावै। सोहं डोर गह लोक सिधावै।।
जा घट होई सोहं मत सारा। सोई आवहु लोक हमारा।।
सुरति नाम सोहं में राखो। परचे ज्ञान तुम जग में भाषो।।
एति सिद्धि (शक्ति) सोहं की भाई। धर्मदास तुम लेओ चितलाई।।
धर्मदास लीन्हा परवाना। भए आधीन छुटा अभिमाना।।
सोहं करनी ऊँच विचारा। सोहं शब्द है जीव उजियारा।।
पृष्ठ 106 का सारांश:-
कबीर, धर्मदास उन-मन बसो, करो सत्य शब्द की आश।
सोहं सार सुमरन है, मुनिवर मरें पियास।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को तीन चरण में दीक्षा क्रम पूर्ण होने की बात
कही तो धर्मदास को दीक्षा लेने की लगन लगी। स्त्राी तथा पुरूष यानि पति-पत्नी (धर्मदास तथा
आमिनी देवी) ने दीक्षा ली। सोहं शब्द की दीक्षा ली और बताया कि:-
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, क्षर पुरूष (निरंजन) वाकी डार। तीनों देवा शाखा भये, पात रूप संसार।।
वृक्ष का भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, वह तना तो अक्षर पुरूष है, उसका मंत्र सोहं है। डार को क्षर पुरूष यानि निरंजन जानो। उसका भी मंत्र दिया जाता है। तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) उस वृक्ष की शाखा जानों। जो पृथ्वी के अंदर वृक्ष की मूल (जड़ें) है, उसको सत्य पुरूष जानो, उसका भी मंत्र जाप का दिया जाता है, वह मंत्र गुप्त रखा जाता है। उपदेशी को बताया तथा सुनाया, समझाया जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने प्रथम मंत्र देकर फिर सत्यनाम की दीक्षा दी थी। इस सत्यनाम में दो अक्षर हैं, एक ऊँ तथा दूसरा सोहं। धर्मदास जी को प्रथम मंत्र के पाँचों नामों तथा सत्यनाम के ओम् (ऊँ) मंत्र तक तो कोई शंका नहीं हुई, अपितु हर्ष हुआ कि जिस विष्णु-लक्ष्मी जी को मैं चाहता था, उन्हीं के मंत्र मिले हैं। ऊँ नाम भी जाना-माना तथा विश्वसनीय माना, परंतु सोहं शब्द को सुनकर अजीब सा महसूस किया।
परमेश्वर कबीर जी अंतर्यामी हैं, सब समझ गए कि धर्मदास जी को शंका है। तब कहा कि यह सोहं मंत्र सार सुमरण है, यह विशेष मंत्र है। इसके बिना तो ऋषि-मुनि भी प्यासे मर रहे हैं अर्थात् मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके।
पृष्ठ 108, पृष्ठ 109 पर सामान्य ज्ञान है जो पहले वर्णन किया जा चुका है।
कबीर बानी पृष्ठ 110 पर सामान्य ज्ञान है। गुरू के प्रति शिष्य की कैसी भावना होनी चाहिए, यह खास ज्ञान है।
गुरू के प्रति शिष्य का भाव कैसा हो?
गुरूसों अंतर कबहु न राखै। प्रेम प्रीति सों दीनता भाखै।।
जे गुरूको निंदे अक्षरकू ध्यावै। बिन गुरू अक्षर कैसे पावे।।
गुरू संगाती शब्द लखावै। जाके बल हंसा धर आवै।।
गुरूस्वाती, गुरूरूप स्वरूपा। गुरू पार्स है आदि अनूपा।।
गुरूभृंगी गुरू सो बहुरंगी। कीटते करही आप हितसंगी।।
गुरू है सांचे सिद्ध समाना। गुरू मलयागिर वास प्रमाना।।
जैसे स्नेह कमल और भौंरा। जैहे स्नेह चन्द्र अरू चकोरा।।
जैसे स्नेह लहर जल अंगा। जैसे स्नेह है दीप पतंगा।।
जैसे स्नेह मृगा और जंत्राी। जैसे स्नेह चकमक और पथरी।।
जैसे स्नेह स्वाति और पपीहा। जैसे स्नेह चुम्बक अरू लोहा।।
जैसे स्नेह मीन अरू नीरा। जल बिछुरै वह तजै शरीरा।।
ऐसे गुरू शिष्य को सन्देशा। मुक्ति होय गुरू मिटायो अंदेशा।।
एते स्नेह शिष्य सहिदानी। इतने गुरू के तत्त्व बखानी।।
गुरू की दया चलौ रे भाई। बिन गुरू पार न पावै कोई।।
गुरू सोई सत्य शब्द बतावै। और गुरू कोई काम न आवै।।
साखी-उपमा कहा दीजिये, पटतर कोहू नाहि।
पलपल करो जु बन्दगी, छिन छिन देखो ताहि।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को माध्यम बनाकर सर्व भक्त समाज को गुरू जी के प्रति शिष्य का कैसा भाव, श्रद्धा होनी चाहिए, वह बताया है। कहा है कि गुरू जी के समक्ष छल-कपट न करें, शुद्ध हृदय से बात करें और विनम्र भाव से बोलें। जो गुरू की निन्दा करता है और सत्य साधना त्यागकर काल की भक्ति करता है, उसको गुरू के बिना अविनाशी परमात्मा कैसे मिल सकता है?
गुरू शिष्य पतंग दीप सम होई। ऐसा स्नेह कर जो कोई।।
जैसे फूल पर भंवरा बैठ जाता है। उसमें इतना मस्त हो जाता है, रात्रि के समय फूल बंद हो जाता है। भंवरा मर जाता है, परंतु साथ नहीं छोड़ता।
अन्य उदाहरण चाँद तथा चकोर पक्षी का बताया है कि एक चकोर पक्षी रात्रि में चन्द्रमा की ओर उसी समय से देखना शुरू कर देता है जिस समय उदय होता है। एकटक दृष्टि जमाए रहता है। चन्द्रमा ऊपर होता है तो चकोर पक्षी गर्दन ऊपर करता चला जाता है। चन्द्रमा जब पीछे को जाता है तो वृक्ष पर बैठा चकोर पक्षी गर्दन ऊपर से पीछे की ओर करता चला जाता है। एक पल भी चन्द्रमा से नजर भी नहीं हटाता है। कई बार वृक्ष से गिर जाता है, उसकी गर्दन टूट जाती है, फिर भी पृथ्वी पर पड़ा-पड़ा भी चन्द्रमा से दृष्टि नहीं हटाता। कई बार अंधेरी कृष्ण पक्ष की रात्रि में अग्नि के अंगारे को उदय होता चन्द्रमा जानकर चैंच में भर लेता है, जीभ जल जाती है, मर जाता है अंगार को छोड़ता नहीं है। ऐसा प्रेम गुरू के प्रति शिष्य का होना चाहिए, तब परमात्मा प्राप्त होता है। चकोर पक्षी को चाँद से कुछ मिलना भी नहीं होता, फिर भी फिदा हो जाता है।गुरू से अनमोल पदार्थ सत्य भक्ति तथा परमेश्वर मिलता है, इस सौदे में हानि तो है ही नहीं। हिरण (मृग) को वश में करने वाला शिकारी एक यंत्रा से धुन निकालता है। उस धुन को सुनकर हिरण शिकारी की ओर खींचा चला जाता है। दुश्मन के सामने अपना मुख रख देता है, शिकारी उसको पकड़ ले जाता है, मारकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। परंतु मृग पीछे नहीं हटता। गुरू के साथ ऐसा प्रेम शिष्य का होना चाहिए। मोक्ष अवश्य मिलेगा।
जैसे पपीहा पक्षी पृथ्वी पर खड़ा पानी नहीं पीता चाहे प्यास से मर जाए। वह आकाश से वर्षा का पानी पीता है। इसी प्रकार शिष्य को अपने गुरू के अतिरिक्त अन्य गुरू से कोई वास्ता नहीं होना चाहिए।
जैसे मछली पानी के बिना पल भी नहीं रह सकती। यदि जल से दूर हो जाती है तो मर जाती है। जिस शिष्य का ज्ञान योग खुल जाता है यानि जिसको मोक्ष के महत्त्व का पता चल जाता है तो उसकी दशा मछली (मीन) जैसी हो जाती है। यदि किन्हीं कारणों से गुरू से दूर हो जाता है तो जीना हराम हो जाता है। गुरू भी वही पूर्ण है जो सत्य मंत्रा देता है, अन्य गुरू कुछ काम नहीं आता। गुरू को पल-पल देखो और प्रणाम करो।
कबीर, नैनों अंदर आवै तू, जब ही नैने झपेऊँ। ना मैं देखूं और को, ना तुझे देखन देऊँ।।
भावार्थ:- सच्चा प्रेम जब किसी से होता है तो इतना बेईमान हो जाता है। कहा कि गुरूदेव यदि आँखों में समाने योग्य होता तो आपको आँखों में डालकर आँखें बंद कर लेता। न तो मैं आपके अतिरिक्त किसी को देखूँ और न आपको देखने दूँ यानि इतना अपनापन शिष्य का गुरू के प्रति होना अनिवार्य है।
विशेष ज्ञान
धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से शरीर में बने कमलों के विषय में जानना चाहा तो परमेश्वर कबीर जी ने कमलों का ज्ञान करवाया। कबीर परमेश्वर जी ने कबीर सागर के अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 151 तथा भवतारण बोध पृष्ठ 57 पर केवल 8 कमलों का ज्ञान दिया है। कबीर बानी अध्याय पृष्ठ 111 पर नौ कमलों का ज्ञान करवाया है। बताया है कि नौवें कमल
में पूर्ण ब्रह्म हैं।
कबीर बानी पृष्ठ 111 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर परमेश्वर कबीर जी ने विशेष गुप्त ज्ञान दिया है। इसमें नौवें कमल का ज्ञान बताया है तथा उस नौवें कमल में पूर्ण ब्रह्म का निवास है।
कमलों के विषय में संपूर्ण ज्ञान कृपा पढ़ें अनुराग सागर के सारांश में पृष्ठ 151 के सारांश में इसी पुस्तक के पृष्ठ 152 से 161 तक।
कबीर बानी पृष्ठ 112, 113 का सारांश:- पृष्ठ 111 पर तो स्थूल शरीर के कमलों का ज्ञान करवाया है। इन पृष्ठों पर सूक्ष्म शरीर में बने कमलों का ज्ञान बताया है।
सूक्ष्म शरीर के कमलों का ज्ञान
- प्रथम कमल में शुक्ल हंस रहते हैं। बहुत बड़ा विस्तार है।
- दूसरे कमल में सहज दास जी का निवास है।
- तीसरे कमल में इच्छा का निवास है।
- चैथे कमल में मूल सुरति है।
- पाँचवें कमल में सोहं सुरति है, साथ में इसके अंश भी हैं।
- छटे कमल में अचिन्त का निवास है।
- सातवें कमल में अक्षर का निवास है।
- आठवें कमल में तेज का निवास है।
- नौवें कमल में सत्य पुरूष जी रहते हैं।
सब कमलन का किया निरवारा। ज्ञानी पंडित करो विचारा।।
अन्य सामान्य ज्ञान है जो पूर्व के अध्यायों के सारांश में वर्णन हो चुका है।
कबीर बानी पृष्ठ 114, 115 पर सामान्य ज्ञान है, साधक को इसकी आवश्यकता नहीं है, यह सृष्टि रचना का विषय है जो सृष्टि रचना में पढ़ें, वह पर्याप्त है।
पृष्ठ 116 पर गलत ज्ञान है, मिलावटी है।
पृष्ठ 117 पर सृष्टि रचना का आंशिक ज्ञान है। अण्डे से ज्योति निरंजन की उत्पत्ति का ज्ञान है।
पृष्ठ 118, 119 पर भी सृष्टि रचना का अधूरा तथा कुछ गलत, कुछ ठीक ज्ञान है जो पहले के अध्यायों में लिखा जा चुका है। पृष्ठ 119 पर भी ज्योति निरंजन की उत्पत्ति अण्डे से हुई, का ज्ञान है।
पृष्ठ 120, 121 पर ऐसा ज्ञान है जो पहले कई बार वर्णन किया गया है। अचिन्त आदि की उत्पत्ति का ज्ञान है।
पृष्ठ 122, 123 में सृष्टि रचना का अंश है। सम्पूर्ण सृष्टि रचना पृष्ठ 625 पर पढ़ें।
पृष्ठ 124, 125 पर सामान्य ज्ञान है। पृष्ठ 124 पर कबीर बानी में लिखा है कि धर्मदास जी ने नाम के प्रताप को जानने की जिज्ञासा की जिसके बल से सत्यलोक में जा सके।
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि पृथ्वी लोक से सतलोक तक जाने के रास्ते में सात शुन्य यानि खाली स्थान है और प्रत्येक शुन्य के पहले और बाद में कुल दस लोक हैं।
सात शुन्य दशलोक प्रमाना। अंश जो लोक लोक को शाना।।
नौ स्थान (मुकाम) हैं दशवां घर साच्चा। तेहि चढ़ि जीव सब बाचा।।
सोरा (16) शंख पर लागी तारी। तेहि चढ़ि हंस भए लोक दरबारी।।
भावार्थ:- पृथ्वी लोक तथा स्वर्ग लोक के बीच में खाली स्थान है। एक ब्रह्माण्ड में ब्रह्म लोक है। शेष सर्व लोकों का एक समूह बनाया है। जैसे पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा सात पाताल लोक, श्री विष्णु लोक, श्री शिव लोक, श्री ब्रह्मा लोक, 88 हजार पुरियाँ (खेड़े), यह एक समूह है। ब्रह्मलोक और समूह के बीच में एक सुन्न है। दूसरी सुन्न ब्रह्मलोक के चारों ओर है। तीसरी सुन्न पाँच ब्रह्माण्डों के चारों ओर है। चैथी सुन्न 20 ब्रह्माण्डों के चारों ओर है। पाँचवीं सुन्न काल ब्रह्म के 21 ब्रह्माण्डों के चारों ओर है। छठी सुन्न अक्षर पुरूष के निज स्थान जिसे अक्षर पुरूष लोक कहा जाता है जो एक ब्रह्माण्ड में है। अक्षर पुरूष का ब्रह्माण्ड एक शंख ब्रह्माण्डों का है। अक्षर पुरूष ने एक ब्रह्माण्ड अपने लिए रखा है। शेष छः महाब्रह्माण्डों में छः शंख ब्रह्माण्डों को घेरा है। जो अक्षर पुरूष का निजी ब्रह्माण्ड है। उसके और भंवर गुफा के बीच में छठी सुन्न है। सातवीं सुन्न अक्षर पुरूष के लोक (7 शंख ब्रह्माण्डों का क्षेत्रा) और सत्यलोक के बीच में है। इस प्रकार नौ स्थान (मुकाम) हैं। दसवां लोक सत्यलोक है जिसको सच्चा लोक कहा है। नौ स्थान कौन से हैं?
नौ स्थानों तथा सतलोक का ज्ञान
जीव पृथ्वी लोक पर विराजमान है। भक्ति की कमाई इन्हीं दो (पाताल तथा स्वर्ग) लोकों में नष्ट करता है। पाताल लोक, स्वर्ग लोक में फंसा है। यहाँ से निकलना है। ये दो लोक दो स्थान। फिर तीनों देवताओं के लोक ब्रह्मा लोक, विष्णु लोक, शिव लोक व दुर्गा का लोक, ये चार स्थान। फिर ब्रह्मलोक यह एक स्थान, कुल (2+4+1=7) स्थान ये हैं। फिर इक्कीसवां ब्रह्माण्ड जो काल ब्रह्म का निजी स्थान है। वह आठवाँ मुकाम है तथा अक्षर पुरूष का लोक, ये कुल 9 स्थान (मुकाम) हैं और दसवां लोक सतलोक है। इस प्रकार ये दस मुकाम हैं।
शरीर में बने कमलों में भी यही व्यवस्था है। 1) पाताल लोक में गणेश का लोक है। 2) उसके पश्चात् ब्रह्मा-सावित्राी का लोक 3) विष्णु तथा लक्ष्मी का लोक 4) फिर महादेव तथा पार्वती का लोक 5) दुर्गा का लोक है। 6) त्रिकुटी स्थान स्वर्गलोक के अंदर है। 7) सातवां काल ब्रह्मलोक है। अन्य दो लोक ऊपर हैं। ज्योति निरंजन का निज स्थान तथा अक्षर पुरूष का निज स्थान। पृथ्वी लोक को इसलिए नहीं गिना जाता कि यह रास्ते में नहीं आता, यहाँ से जीव प्रस्थान करता है। दसवां सत्य पुरूष का लोक सत्यलोक है।
पृष्ठ 125 पर सोलह लोकों का ज्ञान है। यह सत्यलोक के अंदर द्वीप हैं जो 27 द्वीपों से भिन्न है। इनमें परमेश्वर के वे वचन पुत्रा तथा उनका परिवार रहता है जो सृष्टि प्रारम्भ में 16 वचनों से उत्पन्न किए थे। सृष्टि रचना में पढ़ें इनकी उत्पत्ति तथा नाम।
इस पृष्ठ पर यह भी स्पष्ट किया है कि भजन (नाम जाप के) प्रताप से सब द्वार खुलेंगे यानि प्रत्येक कमल से मार्ग मिलेगा तथा लोकों के द्वार (दरवाजे) खुलेंगे।
पाताल पांजी से जीव उबारा। भजन प्रताप से उधरे द्वारा।।
कबीर बानी पृष्ठ 126 से 129 का सारांश:-
इन पृष्ठों पर अचिंत तथा अक्षर पुरूष के द्वीपों में जाकर ज्ञान देने का प्रकरण है जो काल ब्रह्म के लोकों में रहने वालों को जानना आवश्यक नहीं है क्योंकि यह ज्ञान है जो उच्च स्तर का है। काल जाल में फंसे प्राणियों को जो आवश्यक है, उसका खुलासा यानि स्पष्टीकरण किया जाएगा। यह ज्ञान सतलोक में बने लोकों में रहने वालों के लिए आवश्यक है।
पृष्ठ 130-131 पर सामान्य ज्ञान है।
कबीर बानी पृष्ठ 132 से पृष्ठ 137 का सारांश:-
इन पृष्ठों में बारह पंथों का ज्ञान है। यह विस्तृत जानकारी इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ में ज्ञान सागर के सारांश में पृष्ठ 88 से 91 पर पढ़ें। कुछ संक्षिप्त जानकारी लिखता हूँः-
कबीर बानी के पृष्ठ 132-133 पर स्पष्ट है। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर!:-
धर्मदास विनती अनुसारी। पायो बोल बचन में हारी।।
मैं तरों और तरें हमारी शाखा। और पिछले सबही पुरखा (पुरषा)।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु! मेरा मोक्ष हो और मेरी 42 पीढ़ी की सब शाखाओं की जीवों का मोक्ष हो तथा पिछले जो पहले दादा-परदादा हैं, वे भी पार हों।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे भोले भक्त! आप तो केवल अपनी-अपनी संतान तथा पीढ़ियों को पार करने की बात कर रहे हो। मैं तो विश्व के प्राणियों का उद्धार करने की बात कर रहा हूँ।
सतगुरू वचन
तब सतगुरू मन में विहंसाने (हंसे)। तें क्या मांगा कुछ मांग न जाने।।
सर्व सृष्टि तारों भाई। तुम तो आपन वंश ठहराई।।
यह प्रपंच काल सब कीन्हा। तुम्हरी बुद्धि काल खींच लीन्हा।।
तब धर्मदास भये मलीना (लज्जित)। जैसे कमल फूल मुरझीना।।
तब सतगुरू बोध विचारा। धर्मदास तुम अंश हमारा।।
एक वस्तु गोय (गुप्त) हम राखी। सो निर्णय नहीं तुम सों भाखी।।
नौतम सुरति हमरी शाखा। सात सुरति जो उत्पत्ति भाखा।।
आठवीं सुरति तुम चलि आए। नौतम सुरति हम गुप्त छिपाए।।
नौतम सुरति बचन निज मोरा। जाहितें पल्ला न पकरे चोरा।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा है कि हे धर्मदास! तेरी बुद्धि काल ने खैंच ली यानि संकीर्ण बुद्धि कर दी। तूने क्या माँगा कि मेरे वंश के पहले और आगे वाले पार हो जाएं, ऐसी कृपा करो। तूने माँगना भी नहीं आया। मैं तो सर्व सृष्टि को तारने के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ। यह सुनकर धर्मदास शर्मिन्दा हो गए। कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि मेरी योजना क्या है? यह मैंने तेरे को पहले नहीं बताया, यह गुप्त रखी थी। अभी तक तो मैंने सात सुरति का ज्ञान दिया है। यानि सात अच्छी आत्माओं का ज्ञान बताया है। आप (धर्मदास) आठवीं सुरति हो यानि मेरे द्वारा भेजी गई आत्मा हो। आपके पुत्रा चुड़ामणि (मुक्तामणि) को मैं गुरू पद दूँगा। परंतु उस परंपरा (बिंद परंपरा) में छठी पीढ़ी यानि छठी गुरू गद्दी वाले को काल के चलाए 12 पंथों में से पाँचवां टकसारी पंथ वाला भ्रमित कर देगा। तब तेरी वंश गद्दी वाले उस काल पंथ (टकसारी पंथ) वाली आरती चैंका और यथार्थ मंत्रा को छोड़कर अन्य मंत्रा (अजर नाम, अमर नाम, अमीनाम आदि-आदि व्यर्थ मंत्रा) दीक्षा में देना शुरू कर देंगे। इस प्रकार तेरी बिंद परंपरा से यथार्थ भक्ति समाप्त हो जाएगी। फिर जब कलयुग 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) बीत जाएगा, तब मेरा यथार्थ पंथ यानि सत्य साधना शुरू होगी। {अनुराग सागर पृष्ठ 140-141 पर लिखा है कि तेरी छठी पीढ़ी वाले को टकसारी पंथ का मुखिया भ्रमित करेगा।}
बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाण
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! तू मेरा अंश है। मैं तुझे एक अति गुप्त भेद बताता हूँ जो मैंने अभी तक तुझसे छुपा रखा है। सात सुरति तो उत्पत्ति करने वाली हैं। तुम आठवीं सुरति हो तथा नौतम सुरति मेरा निज वचन है यानि उसको पूर्ण मोक्ष मंत्रा देने का अधिकार मैंने दिया है। जो उससे दीक्षा लेगा, उसको काल चोर रोक नहीं सकता। धर्मदास ने प्रार्थना की कि हे परमात्मा! मुझे वह वचन बताओ जिससे जीव जन्म-मरण के चक्र में न आए। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि आठ बून्द यानि सतलोक में स्त्राी-पुरूष से उत्पन्न अच्छी आत्माओं (हंसों) द्वारा काल लोक से जीव मुक्त कराने की युक्ति (योजना) बनाई थी। तुम आठवीं बून्द हो। तुम सबको काल ने भ्रमित कर दिया। अब नौंवी बून्द (नौतम सुरति) को संसार में भेजूंगा। उसका जन्म भी तुम्हारी तरह बून्द से यानि माता-पिता से होगा। (तब युग बन्द हुए धर्मदास। नौतम सुरत बून्द प्रकाशा। आठ बून्द की जुगति बनाई। नौतम से आठों बून्द मुक्ताई।) उस एक बून्द से तेरे सहित आठों बून्द तथा तेरे बून्द (बिन्द) वाले बयालीस वंश पार कर दिए यानि आशीर्वाद दे दिया। (वंश बयालीस बून्द तुम्हारा। सो मैं एक बून्द से तारा।) हे धर्मदास! तू मेरी आठवीं सुरति है जो संसार में भेजा है। कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीत जाने पर मेरा यथार्थ तेरहवां पंथ चलेगा, उसको चलाने वाली मेरी नौतम सुरति होगी। वह नौंवी (9वीं) आत्मा मेरा निज बचन यानि सत्य नाम, सार शब्द लेकर जन्मेगा, उसके द्वारा चलाए पंथ में जो नाम दीक्षा लेगा तो काल चोर उसको रोक नहीं सकेगा।
धर्मदास-उवाच
धर्मदास दोई कर जोरा। कहो बचन सोई सतगुरू मोरा।।
सोई बचन कहो समुझाई। जेहि तें जीव सृष्टि में न आई।।
सतगुरू उवाच
आठ बून्द की जुगति बनाई। नौतम तें आठों बून्द मुक्ताई।।
बिना गुरू कोऊ भेद नहीं पावै। युगबन्ध होवै तो हंस कहावै।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरी योजना आठ अच्छी आत्माओं को काल लोक में जन्म देकर जीव उद्धार करने की थी, परंतु वे आठों भी काल के वश होकर भटक रही हैं। जन्म से आठवीं बूंद यानि माता-पिता के बीज से बने मानव शरीर वाली आठवीं आत्मा तुम हो। उन आठों का भी उद्धार नौंवीं बूंद यानि मानव जन्म प्राप्त अच्छी आत्मा से होगा।
कबीर बानी पृष्ठ 133 पर अधिकतर मिलावटी तथा बनावटी वाणी हैं जिनका प्रसंग से मेल नहीं होता।
केवल धर्मदास की विनती ठीक है जिसमें परमेश्वर से पूछा है कि मेरे नारायण पुत्र की शिक्षा-दीक्षा कैसी चलेगी?
धर्मदास विनती अनुसारी। साहब विनती सुनो हमारी।।
नारायण दास हमारे पुत्रा सोई। उनकी सिखावन कैसी होई।।
सतगुरू उवाच
तब सतगुरू यह वचन पुकारा। चूड़ामणि वंश छत्रा उजियारा।।
और सब जीव काल धर खाई। नारायण जीव काल का भाई।।
चूड़ामणी नाम से काल डराई। सत्य नाम है तो जीव मुक्ताई।।
तिनकी सनंद चलै संसारा। उनके हाथ नाम सत हमारा।।
ये वाणी उचित हैं, शेष बनावटी हैं।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि नारायण दास तो काल का भेजा जीव है। वह हमारे मार्ग पर नहीं चलेगा। उसने तो श्री कृष्ण की महिमा बताई थी। चूड़ामणी को मैं गुरूपद दूँगा। उसके सिर पर गुरू पद का छत्रा लगेगा। अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर स्पष्ट किया है कि चूड़ामणि की परंपरा भी भ्रमित होकर काल जाल में रह जाएगी। उपरोक्त वाणी में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यदि गुरू पद पर विराजमान के पास सतनाम है तो जीव मुक्त होंगे। उनकी सनद यानि प्रमाणिकता संसार में मुक्ति के लिए मान्य होगी। उनके हाथ में हमारा सत शब्द भी रहेगा। अन्यथा न गुरू का मोक्ष होगा, न अनुयाईयों का। सतनाम तथा सारशब्द चुड़ामणि जी के पास नहीं था। वह तो अब तक (सन् 1997 तक) छुपाकर रखना था।
कबीर बानी पृष्ठ 134 का सारांश:-
कबीर परमेश्वर जी ने पृष्ठ 134 पर अंकित अमृतवाणी में स्पष्ट किया है कि चूड़ामणी से तेरे बिन्द (पीढ़ी) का पंथ चलेगा। यह मेरी उत्तम आत्मा है। परंतु आगे तेरे पंथ में यानि कबीर जी के नाम से चले 12 पंथों में प्रथम पंथ में विरोध चलेगा। छठी पीढ़ी के पश्चात् काल साधना शुरू हो जाएगी। यह पंथ भी काल पंथ ही होगा।
तेरह पंथों के मुखिया कैसे होंगे?
वंश प्रकार
- प्रथम वंश उत्तम (यह चुड़ामणि जी के विषय में कहा है।)
- दूसरा वंश अहंकारी (यह जागु दास जी है।)
- तीसरा वंश प्रचंड (यह सूरत गोपाल जी है।)
- चैथा वंश बीरहे (यह मूल निरंजन पंथ है।)
- पाँचवां वंश निन्द्रा (यह टकसारी पंथ का मुखिया है।)
- छठा वंश उदास विरोध (यह भगवान दास जी का पंथ है।)
- सातवां वंश ज्ञान चतुराई (यह सतनामी पंथ है।)
- आठवां वंश द्वादश पंथ विरोध (यह कमाल जी का कमालीय पंथ है।)
- नौवां वंश पंथ पूजा (यह राम कबीर पंथ है।)
- दसवां वंश प्रकाश (यह परम धाम की वाणी पंथ है।)
- ग्यारहवां वंश प्रकट पसारा (यह जीवा पंथ के विषय में है।)
- बारहवां वंश प्रकट होय उजियारा (यह संत गरीबदास जी गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा वाले के विषय में है।)
- तेरहवें वंश मिटे सकल अंधियारा (यह रामपाल दास के विषय में है जिसको नौतम सुरति कहा है।)
{स्वसमवेद बोध पृष्ठ 155 पर भी 12 पंथों के नाम लिखे हैं, लिखा है:-
जब तेरही पीढ़ी चली आवै। मुक्तामनि तबही प्रकटाई।।
धर्म कबीर होये प्रचारा। जहाँ तहाँ सतगुरू सुयस उचारा।।}
कबीर बानी पृष्ठ 135 (981) पर अधूरा तथा मिलावटी ज्ञान है।
कबीर बानी के पृष्ठ 136 (982) -137 (983) का सारांश:-
कबीर बानी अध्याय में 12 पंथों का ज्ञान है।
द्वादश पंथ चलो सो भेद
{12 पंथों के विषय में कबीर चरित्र बोध पृष्ठ 1835, 1870 पर तथा स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 155 पर भी लिखा है।}
कबीर परमेश्वर जी ने स्पष्ट किया है कि काल मेरे नाम से 12 पंथ चलाएगा, उनसे दीक्षा प्राप्त जीव वास्तविक ठिकाने यानि यथार्थ सत्य स्थान अमर लोक को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। इसलिए धर्मदास भविष्य का ज्ञान मैंने कह दिया है जो इस प्रकार है। प्रथम वंश जो उत्तम कहा है, वह प्रथम पंथ का प्रवर्तक चूड़ामणी यानि मुक्तामणी होगा और अन्य शाखा जो चूड़ामणी के वंश में शाखाऐं होंगी, वे भी काल के पंथ होंगे। {पाठकों से निवेदन है कि यहाँ पर धर्मदास के वंश वाले महंतों ने चूड़ामणी को 12 काल के पंथों से भिन्न करने की कुचेष्टा की है। यहाँ वाणी में गड़बड़ की है। प्रथम पंथ जागु दास वाला बताया है। कबीर सागर के कबीर चरित्रा बोध अध्याय में पृष्ठ 1870 पर जागु दास का दूसरा पंथ लिखा है और नारायण दास का प्रथम पंथ लिखा है। नारायण दास जी तो कबीर पंथी था ही नहीं, वह तो कृष्ण पुजारी था। वहाँ पृष्ठ 1870 कबीर चरित्रा बोध में भी चालाकी करके चूड़ामणी जी को हटाकर नारायण दास लिखा है, परंतु कबीर बानी पृष्ठ 134 पर प्रथम वंश उत्तम चूड़ामणी रख दिया जो कबीर बानी अध्याय के इस पृष्ठ 136 पर बारह पंथों में जो प्रथम पंथ जागु दास का लिखा है। उससे लेकर आगे 12 पंथ पूरे नहीं होते। चूड़ामणी जी को मिलाकर पूरे बारह पंथ होते हैं। यहाँ पर नारायण दास का नाम नहीं है, पृष्ठ 1870 कबीर चरित्रा बोध पर ‘‘नारायण दास‘‘का प्रथम पंथ लिखा है। बारहवां पंथ संत गरीबदास जी वाला है। चूड़ामणी जी का प्रथम पंथ है जिसकी मुख्य गद्दी दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में है तथा इसी दामाखेड़ा से स्वयंभू गुरू खरसीया (बिहार) में काल प्रचारक गुरू बना। इन सबका विस्तार अब तक कबीर जी के नाम से चल रहा है। अब पढ़ें वह अमृतवाणी अध्याय कबीर बानी पृष्ठ 136-137 से जो परमात्मा जी ने बोली हैं:-
द्वादश पंथ चलो सो भेद
द्वादश पंथ काल फुरमाना। भूले जीव न जाय ठिकाना।।
(1) ताते आगम कहि हम राखा। वंश हमार चूरामणि शाखा।।
(2) प्रथम जग में जागू भ्रमावै। बिना भेद ओ ग्रन्थ चुरावे।।
(3) दुसरि सुरति गोपालहि होई। अक्षर जो जोग ²ढ़ावे सोई।।
(4) तिसरा मूल निरज्न बानी। लोकवेद की निर्णय ठानी।।
(5) चैथे पंथ टकसार भेद लै आवै। नीर पवन को सन्धि बतावै।।
सो ब्रह्म अभिमानी जानी। सो बहुत जीवन की करी ह ै हानी।।
(6) पांचै पंथ बीज को लेखा। लोक प्रलोक कहें हममें देखा।।
पांच तत्त्व का मर्म ²ढ़ावै। सो बीजक शुक्ल ल े आवै।।
(7) छठवाँ पंथ सत्यनामि प्रकाशा।घटके माहीं मार्ग निवासा।।
(8) सातवां जीव पंथ ले बोले बानी। भयो प्रतीत मर्म नहिं जानी।।
(9) आठवे राम कबीर कहावै। सतगुरू भ्रमलै जीव ²ढ़ावै।।
(10) नौमे ज्ञान की काल दिखावै। भई प्रतीत जीव सुख पावै।।
(11) दसवें भेद परमधाम की बानी। साख हमारी निर्णय ठानी।।
साखी भाव प्रेम उपजावै। ब्रह्मज्ञान की राह चलावै।।
तिनमें वंश अंश अधिकारा। तिनमें सो शब्द होय निरधारा।।
(12) संवत सत्रासै पचहत्तर होई। तादिन प्रेम प्रकटें जग सोई।।
आज्ञा रहै ब्रह्म बोध लावे। कोली चमार सबके घर खावे।।
साखि हमार ल ै जिव समुझावै। असंख्य जन्म में ठौर ना पावै।।
बारवै पन्थ प्रगट होवै बानी। शब्द हमारे की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मरम न पावंै। ये बारा पंथ हमहीको ध्यावैं।।
बारहें पन्थ हमही चलि आवैं। सब पंथ मिट एक ही पंथ चलावैं।।
तब लगि बोधो कुरी चमारा। फेरी तुम बोधो राज दर्बारा।।
प्रथम चरन कलजुग नियराना। तब मगहर माडौ मैदाना।।
धर्मराय स े मांडौ बाजी। तब धरि बोधो पंडित काजी।।
बावन वीर कबीरं कहाऊ। भवसागर सों जीव मुकताऊ।।
कलियुग को अंत पठयते
ग्रहण परै चैंतीस सो वारा। कलियुग लेखा भयो निर्धारा।।
3400 ग्रहण परै सो लेखा कीन्हा। कलियुग अंतहु पियाना दीन्हा।।
पांच हजार पांच सौ पांचा 5505। तब ये शब्द हो गया सांचा।।
सहस्त्रा वर्ष ग्रहण निर्धारा। आगम सत्य कबीर पोकारा।।
क्रिया सोगंद
धर्मदास मोरी लाख दोहाई। मूल शब्द बाहर न जाई।।
पवित्रा ज्ञान तुम जगमों भाखौ। मूलज्ञान गोइ तुम राखौ।।
मूल ज्ञान जो बाहेर परही। बिचले पीढ़ी वंश हंस नहिं तरही।।
तेतिस अरब ज्ञान हम भाखा। मूल ज्ञान गोए हम राखा।।
मूल ज्ञान तुम तब लगि छपाई। जब लगि द्वादश पंथ मिटाई।।
द्वादश पंथ का जीव अस्थान
द्वादश पंथ अंशन के भाई। जीव बांधि अपने लोक ले जाई।।
द्वादश पंथ में पुरूष न पावै। जीव अंश में जाइ समावै।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने काल के 12 पंथों का वर्णन करके तेरहवें पंथ का ज्ञान भी दिया है।
प्रथम पंथ चूड़ामणी जी जो धर्मदास जी के दूसरे पुत्रा थे जो परमेश्वर कबीर जी के आशीर्वाद से आमिनी देवी की कोख से जन्मे थे।
फिर उनको परमेश्वर जी ने गुरू पद प्रदान किया था। अनुराग सागर पृष्ठ 140-141 पर स्पष्ट कर ही रखा है कि चूड़ामणी यानि मुक्तामणी की बिन्द परंपरा अर्थात् संतान की चलाई गुरू गद्दी में छठी पीढ़ी से सत्य भक्ति समाप्त हो जाएगी और काल वाले नकली कबीर पंथ टकसारी (पाँचवें) पंथ वाला आरती चैंका तथा कबीर सागर में अध्याय ‘‘सुमिरन बोध‘‘ पृष्ठ 22 पर लिखा शब्द यानि पूरा शब्द आरती का तरह दीक्षा में देना शुरू कर दिया।
वर्तमान में धर्मदास जी की गद्दी पर चल रहा दीक्षा मंत्रा यह है जो सुमिरन बोध के पृष्ठ 22 पर लिखा है जो इस प्रकार है:-
स्मरण पाँच नाम
आदिनाम, अजर नाम, अमीनाम, पाताले सप्त सिंधु नाम।
आकाशे अदली निज नाम, यही नाम हंस को काम।
खोलो कूंची खोलो कपाट, पांजी चढे मूल के घाट।।
भ्रम भूत का बांधो गोला, कह कबीर प्रमान। पांच नाम ले हंसा, सत्यलोक समान।।
यह पूरी आरती उनका नाम मंत्रा है जो धर्मदास जी की छठी पीढ़ी से शुरू किया गया था जो वर्तमान (2013) तक चल रहा है, इसको पाँच नाम कहते हैं। वास्तविक पाँच नाम कमलों को खोलने के हैं जो मेरे द्वारा (तेरहवें पंथ वाले रामपाल दास द्वारा) दिए जा रहे हैं। यही मंत्र जो मैं प्रथम चरण दीक्षा में देता हूँ, इसके बीच वाले पाँच नाम श्री चूड़ामणी पुत्र श्री धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर जी ने दिए थे। सतनाम और सार शब्द नहीं दिया था। इन्हीं पाँच नामों को आगे दीक्षा रूप में देने के लिए चूड़ामणी जी को आज्ञा दी थी। जिनको पाँचवें काल पंथी टकसारी पंथ वाले ने यह तर्क देकर छुड़वा दिए कि ये भक्ति तो देवी-देवताओं की है। कबीर साहब ने तो सत पुरूष की भक्ति करने को कहा है, यह तो काल पूजा है। उसने कबीर सागर के ‘‘सुमिरन बोध‘‘ पृष्ठ 22 पर लिखी पाँच नाम की महिमा की वाणी ही दीक्षा रूप में देनी शुरू कर दी। इस वाणी में तो बताया है कि जो पाँच नाम का मंत्रा यानि दीक्षा है, यह अजर, अमर है, आदि से चला आ रहा है। इससे और सतनाम-सारनाम की संधि से पूर्ण मोक्ष होगा। यह दीक्षा धर्मदास जी की संतान जो वर्तमान में दामाखेड़ा (प्रान्त-छत्तीसगढ़) में महंत गद्दी चलाकर प्रदान कर रहे हैं।
अब उपरोक्त कबीर बानी पृष्ठ 136 तथा 137 पर लिखी अमृत वाणी को समझाते हैं।
1) इसमें प्रथम पंथ = चूड़ामणी जी तथा उसके आगे जितने भी धर्मदास वाली संतान से शाखाऐं चल रही हैं, ये सब नकली कबीर पंथ हैं जो काल द्वारा चलाए गए हैं। यह सब एक पंथ माना जाता है क्योंकि सबमें वही टकसारी पंथ वाली काल साधना प्रचलित है।
2) दूसरा जागु दास 3) सूरत गोपाल 4) मूल निरंजन पंथ 5) टकसारी पंथ 6) बीज का लेखा यानि भगवान दास पंथ 7) सतनामी पंथ 8) कमाल का पंथ 9) राम कबीर पंथ 10) जीवा पंथ 11) परमधाम की बानी पंथ 12) संत गरीबदास (गाँव-छुड़ानी धाम प्रान्त-हरियाणा) पंथ।
कबीर बानी अध्याय के पृष्ठ 136 पर अंतिम पंक्ति से बारहवें पंथ का वर्णन प्रारम्भ होता है।
संवत् सतरा सौ पचहत्तर होई। ता दिन प्रेम प्रकटै जग सोई।।
भावार्थ:- विक्रमी संवत् 1774 में संत गरीबदास जी का जन्म हुआ था। यहाँ पर गलती से 1775 लिखा गया है। फिर पृष्ठ पर 137 पर वाणी लिखी हैं:-
बारहवें पंथ प्रगट होय बानी। शब्द हमारे का निर्णय ठानी।।
साखी हमारी ले जीवन समझावै। असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै।।
अस्थिर (स्थाई) घर का मर्म नहीं पावै। ये बारह पंथ हमही को ध्यावैं।।
बारहवें पंथ हम ही चलि आवैं। सब पंथ मिटा एक पंथ चलावैं।।
प्रथम चरण कलयुग निरयाना। तब मगहर मांडौ मैदाना।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि बारहवें पंथ का प्रवर्तक संवत् 1774 में जन्म लेगा। संत गरीबदास जी के विषय में कहा है। यह कबीर चरित्रा बोध अध्याय के पृष्ठ 1870 पर भी स्पष्ट है कि बारहवां पंथ गरीबदास जी का है। फिर कहा है कि बारहवें पंथ में मेरी महिमा की वाणी प्रकट होगी यानि गरीबदास जी जो बारहवें पंथ वाला वह मेरी महिमा की वाणी बोलेगा। उसके अनुयाई तथा अन्य ग्यारह पंथों के अनुयाई मेरी साखी यानि वाणी को आधार बनाकर उसको अपनी बुद्धि से अनुवाद करके जीवों को समझाऐंगे। मेरी वाणी में लिखे पद-छन्द, शब्द तथा दोहों के अर्थों का अपनी बुद्धि से निर्णय किया करेंगे। ठीक से न समझकर उल्टा-पुल्टा अर्थ लगाकर व्याखान करके असंख्यों जन्म तक स्थाई स्थान यानि सत्यलोक प्राप्त नहीं कर सकते। ये बारह पंथों से दीक्षित मेरी साधना करने का दावा करेंगे, परंतु यथार्थ भक्ति मंत्रा नहीं होने के कारण स्थिर घर यानि अचल लोक की प्राप्ति का ज्ञान न होने से सत्यलोक नहीं जा सकेंगे।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि फिर बारहवें पंथ में हम ही चलकर जाऐंगे यानि गरीबदास के पंथ में आगे चलकर हम स्वयं आएंगे। कबीर बानी पृष्ठ 132 पर भी स्पष्ट किया है कि:-
एक वस्तु गोय (गुप्त) हम राखी। सो निर्णय तुम सो नहीं भाखी।।
नौतम सुरति हमारी साखा। सात सुरति की उत्पत्ति भाखा।।
आठवीं सुरति तुम चलि आए। नौतम (नौवीं) सुरति हम गुप्त छिपाए।।
नौतम सुरति बचन निज मोरा। जे हिते पल्ला न पकरे काल चोरा।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि धर्मदास तुम आठवीं अच्छी आत्मा हो। आप आ चुके हो। अब नौंवी अच्छी आत्मा आएगी, वह मेरा निज (खास) वचन है यानि उसके पास मेरी पूर्ण शक्ति है। यह मैंने तेरे से छुपा रखा था। पृष्ठ 137 पर स्पष्ट ही कर दिया है कि 12वें (बारहवें) पंथ में हम आएंगे। अब वह बारहवें पंथ में परमेश्वर की नौतम सुरति (रामपाल दास) आ चुका है। जैसे कबीर सागर में मिलावट करके धर्मदास जी की संतान वाले गद्दी वालों ने भ्रम फैलाया है कि धर्मदास जी तथा उनकी संतान, चूड़ामणी की संतान जो 42 पीढ़ी चलेगी। उनसे जगत का उद्धार होगा। यहाँ तक भ्रम फैलाया है कि कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जब तक धर्मदास की 42 पीढ़ी की गुरू परंपरा चलेगी, तब तक मैं (कबीर जी) पृथ्वी पर नहीं आऊँगा। विचार करें कि यदि यह सत्य होती तो यह नहीं कहते कि मैं बारहवें पंथ में चलकर आऊँगा। यदि ऐसा होता तो संत गरीबदास जी को संवत् 1784 (सन् 1727) में गाँव-छुड़ानी में नहीं मिलने आते।
पृष्ठ 137 पर आगे कहा है कि:-
कलयुग का प्रथम चरण कब था?
प्रथम चरण कलयुग निरयाना। तब मगहर मांडौ मैदाना।।
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि मैं मगहर में एक लीला करूंगा। ब्राह्मणों के साथ आध्यात्मिक मैदान माँडूँगा यानि ज्ञान गोष्टी करूँगा। (मैदान माँडने का भावार्थ है कि किसी के साथ कुश्ती करना या लड़ाई करना या ज्ञान चर्चा यानि शास्त्रार्थ करने के लिए चैलेंज करना) पंडितजन कहा करते थे कि जो काशी शहर में मरता है वह स्वर्ग में जाता है तथा जो मगहर शहर में मरता है, वह गधा बनता है। इसलिए मगहर में कोई मत मरना। परमेश्वर कबीर जी कहते थे कि सत्य साधना करने वाला मगहर मरे तो भी स्वर्ग तथा स्वर्ग से भी उत्तम लोक में जाता है। {मगहर नगर उत्तर प्रदेश में जिला-संत कबीर नगर में है। गोरखपुर से 25 कि.मी. अयोध्या की ओर है।} कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि मैं मगहर में मरूँगा और उत्तम लोक में जाऊँगा। विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) माघ के महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को परमेश्वर कबीर जी ने सतलोक जाने की सूचना दे दी। काशी से मगहर सीधे रास्ते से 150 कि.मी. है। उस समय कबीर परमेश्वर जी की लीलामय आयु 120 वर्ष थी। पैदल चलकर तीन दिन में काशी शहर से मगहर स्थान पर पहुँचे। काशी नरेश बीर सिंह बघेल कबीर परमेश्वर जी का शिष्य था तथा मगहर नगर का नवाब बिजली खान पठान भी परमेश्वर कबीर जी का शिष्य था। दोनों अपनी-अपनी सेना लेकर मगहर के बाहर आधा कि.मी. दूर आमी नदी के किनारे जहाँ पर कबीर जी बैठे थे, वहीं पहुँच गए। परमेश्वर कबीर जी ने एक चद्दर अपने नीचे बिछवाई, भक्तों ने श्रद्धा से दो-दो इंच फूल बिछा दिए। कबीर जी उस पर लेट गए तथा कहा कि मैं संसार छोड़कर जाऊँगा, उस समय हजारों की संख्या में लोग तथा सेना के जवान उपस्थित थे। ब्राह्मण भी देखने आए थे। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मेरा शरीर नहीं मिलेगा क्योंकि बिजली खान पठान मुसलमान था। वह कह रहा था कि हम अपने गुरू का अंतिम संस्कार मुसलमान रीति से करेंगे। बीर देव सिंह हिन्दू था, उसने कहा कि हम अपने गुरू जी का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से करेंगे। यदि बातों से बात नहीं बनी तो युद्ध करके लेंगे। परमेश्वर जी ने कहा कि आपको मेरी शिक्षा का क्या असर हुआ? आप आज भी हिन्दू तथा मुसलमान को भिन्न-भिन्न मान रहे हो। आप लड़ाई करोगे तो ठीक नहीं होगा, परंतु उनको कोई असर नहीं था, वे अंदर से लड़ाई करने के लिए पूरी तरह तैयार थे। परमेश्वर अंतर्यामी थे। उन्होंने कहा कि यदि मेरा शरीर मिल जाए तो आप मेरे शरीर को आधा-आधा बाँट लेना, एक-एक चद्दर ले लेना, लड़ाई न करना। परमेश्वर कबीर जी ने एक चद्दर ऊपर ओढ़ ली। कुछ देर पश्चात् आकाश से आवाज आई कि चद्दर उठाकर देखो, मुर्दा नहीं है। देखा तो शरीर के स्थान पर सुगंधित ताजे फूलों का ढ़ेर शव के समान मिला। हिन्दू तथा मुसलमान कहाँ तो मारने-काटने पर तुले थे, कहाँ एक-दूसरे को गले लगाकर रो रहे थे। पंडित भी आश्चर्य चकित थे कि मगहर मरने वाला सशरीर स्वर्ग चला गया क्योंकि पंडितों को सतलोक का ज्ञान नहीं है। दोनों धर्मों ने एक-एक चद्दर तथा आधे-आधे फूल ले लिए। दोनों ने मगहर में यादगार बनाई जो पास-पास बनी है। बिजली खान पठान ने दोनों यादगारों के नाम 500.500 बीघा जमीन दे दी जो आज भी प्रमाण है। (एक बीघा पुराना = 2ण्75 बीघा नया। एक एकड़ पाँच नए बीघों का है।) वह समय कलयुग का प्रथम चरण था जिस समय परमेश्वर कबीर जी मगहर से सशरीर सतलोक गए थे।
कलयुग का बिचली पीढ़ी का समय
परमेश्वर कबीर जी ने बताया था कि जिस समय कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष बीत जाएगा, तब हम तेरहवां पंथ चलाएंगे। सन् 1997 में कलयुग 5505 वर्ष बीत चुका है। वह तेरहवां पंथ प्रारम्भ हो चुका है।
‘‘कलयुग का अंतिम चरण’’
कबीर परमेश्वर जी ने बताया था कि जिस समय 3400 (चैंतीस सौ) ग्रहण सूर्य के लग चुके होंगे। तब कलयुग का अंत हो जाएगा। कलयुग पयाना यानि प्रस्थान कर जाएगा। कबीर बानी पृष्ठ 137 पर पंक्ति नं. 14 गलत लिखी है। यथार्थ चैपाई इस प्रकार है:-
तेरहवां पंथ चले रजधानी। नौतम सुरति प्रगट ज्ञानी।।
पंक्ति नं. 13 भी गलत लिखी है, ठीक इस प्रकार है:-
संहस्र वर्ष पंथ चले निर्धारा। आगम (भविष्य) सत्य कबीर पोकारा।।
वाणी नं. 12 भी गलत है, ठीक नीचे पढ़ें:-
कलयुग बीते पाँच हजार पाँच सौ पाँचा। तब यह बचन होयगा साचा।।
पंक्ति नं. 15 भी गलत लिखी है, ठीक निम्न है:-
कबीर भक्ति करें सब कोई। सकल सृष्टि प्रवानिक (दीक्षित) होई।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने तीनों चरण कलयुग के बताए हैं। फिर धर्मदास जी से प्रतिज्ञा (सोगंध) दिलाई कि मूल ज्ञान यानि तत्त्वज्ञान तथा मूल शब्द (सार शब्द) किसी को उस समय तक नहीं बताना है, जब तक द्वादश (बारह) पंथ मिट न जाएं। विचार करें बारह पंथ मिटाकर एक पंथ चलाना था, उस समय जिस समय कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीत
जाएगा। कलयुग का वह समय सन् 1997 में है तो इससे पहले यह नाम बताना ही नहीं था तो दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) वाले धर्मदास जी के बिन्द (संतान) गद्दी वालों के पास तो सार शब्द तथा तत्त्वज्ञान है ही नहीं, न तो वे मुक्त कर सकते हैं और न ही मुक्त हो सकते हैं। उसके लिए परमेश्वर कबीर जी ने अनुराग सागर पृष्ठ 140.141 पर स्पष्ट कर दिया है कि हे धर्मदास! तेरी छठी पीढ़ी से यथार्थ प्रथम नाम की साधना भी समाप्त हो जाएगी। काल पंथी टकसारी जो काल के द्वारा चलाए कबीर नाम से चले पंथों में पाँचवां पंथ है, उसकी आरती चैंका तथा नाम दीक्षा प्रारम्भ करेगा जो दामाखेड़ा में वर्तमान में चल रही है। फिर पृष्ठ 137 कबीर बानी पर पंक्ति नं 19 में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मैंने (कबीर परमेश्वर जी ने) तेतीस अरब ज्ञान बोला है, परंतु तत्त्वज्ञान (मूल ज्ञान) गुप्त रखा है। यह तो उसी समय खोलना है, जब कलयुग का बिचला चरण चलेगा।
तेतीस अरब ज्ञान हम भाखा। मूल ज्ञान गोए हम राखा।।
‘‘काल वाले कबीर पंथ के जीव कहाँ जाऐंगे?‘‘
द्वादश पंथ अंशन के भाई। जीव बोध अपने लोक ले जाई।।
द्वादश पंथ में पुरूष नहीं आवै। जीव अंश में जाई समावै।।
भावार्थ:- बारह पंथ काल अंश के चलेंगे। वे जीवों को गलत ज्ञान देकर अपने-अपने लोकों में ले जाएंगे, सतलोक नहीं जा सकते। यह ऊपर स्पष्ट हो चुका है।
पृष्ठ 138 से 156 तक दामाखेड़ा वालों ने यथार्थ वाणी को घुमाकर मिलावट करके बिगाड़कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि धर्मदास जी की 42 पीढ़ियों से जीव मुक्त होंगे। वास्तविकता यह है कि परमेश्वर कबीर जी ने बताया था कि तेरी कुल संतान इतनी हो जाएगी यदि तेरी संतान काल जाल में नहीं फंसेगी तो यह सम्भव होगा जो पृष्ठ 138 से 156 तक लिखा है।
विचार करें:- यदि इन पृष्ठों के ज्ञान को सत्य मानें तो पृष्ठ 148 पर पंक्ति नं. 14 में लिखा है कि:-
बीस दिन और वर्ष पचीसा। इतना कुल में चले संदीसा।।
भावार्थ:- प्रत्येक गद्दी वाला 25 वर्ष और 20 दिन तक गद्दी पर रहेगा। विचार करें क्या वर्तमान तक 13 पीढ़ी चल चुकी हैं। इनमें कोई 25 वर्ष 20 दिन गुरू पद पर रहा है? नहीं तो अपने आप वाणी का अर्थ सिद्ध होता है कि यदि काल छठे पीढ़ी वाले को नहीं ठगता तो यह समय सही रहता।
कबीर बानी पृष्ठ 149 पर पीढ़ी नं. 6 का वर्णन है:-
छठे वंश अंश अधिकारा। ताते काल आनि पेठारा।।
पुनि आवै पुरूषहि सहदानी। तरै कड़ीहार तिनही के प्रवानी।।
तीन सै सतर सात हजारा। वंश अंश संग उतरे पारा।।
भावार्थ:- ये स्वयं मान रहे हैं कि छठी पीढ़ी में काल घुसपैठ करेगा। फिर कहा कि पुरूष फिर आवैगा, उनसे पार हुए।
विचार करें:- वाणी में लिखा है कि ‘‘अंश-वंश उतरे पारा‘‘ यह वाणी भविष्य में होने वालों का संकेत नहीं कर रही। इसका भावार्थ है कि 7370 अंश-वंश पार उतर गए। यदि सत्य वाणी होती तो लिखते ‘‘उतरेंगे पारा‘‘
फिर इसी पृष्ठ 149 पर पीढ़ी नं. 4 की वाणी में लिखा है कि:-
"1303 कड़िहार तिनके संग उतरि गयो पारा।।"
भावार्थ है कि 1303 कड़िहार उनके साथ पार उतर गए। यह भी भविष्य का संकेत नहीं है।
यह तो भूतकाल यानि बीते समय का ज्ञान है। इसलिए सब वाणी पृष्ठ 138 से 156 तक बनावटी तथा मिलावटी हैं।
पृष्ठ 156 से 160 तक का सारांश:-
पृष्ठ 156 के नीचे की वाणी तथा पृष्ठ 157.158.159.160 पर परमेश्वर ने स्पष्ट किया है कि जो नौतम सुरति (तेरहवें पंथ) से दीक्षा लेकर गुरू मर्यादा में रहकर भक्ति की कमाई करेंगे, वे सत्यलोक में विशेष स्थान पर रहेंगे। उनके सिर पर छत्रा होगा। उनको परमेश्वर अपने समान शोभा प्रदान करेंगे। वे परमेश्वर कबीर जी के विशेष लाडले होंगे। उनके शरीर की शोभा तो 16 (सोलह) सूर्यों के प्रकाश जितनी ही रहेगी।
इन पृष्ठों पर भी अधिक वाणी मिलावटी-बनावटी हैं। उदाहरण के लिए पृष्ठ 160 पर अंत में वाणी लिखी है:-
सुनो धर्मदास मैं तुम्हें बखानी। आदि अंत की सुधि तुम जानी।।
संवत् पन्द्रहसै उन्हतर (1569) आवै। सतगुरू चलि उड़ीसा जावै।।
जब लग वंश करै गुरूवाई। तब लग धरती धरों नहीं पांई (पाँव)।।
जब लग वंश ब्यालीस संसारा। तब लग नहीं आऊँ पीछ बारा।।
बचन वंश हम ब्यालीस भाखा। जग की मुक्ति वचन की शाखा।।
इन वाणियों में कहा है कि कबीर पुरूष ने कहा था कि संवत् 1569 में सतगुरू उड़ीसा जाएगा। इस वाणी से ही स्पष्ट है कि कोई वाणी कहने वाला परमेश्वर कबीर जी से अन्य है। जो कह रहा है कि सतगुरू (कबीर जी) {क्योंकि धर्मदास जी के सतगुरू कबीर परमेश्वर जी थे।} संवत् 1569 में उड़ीसा जाएंगे, उसके पश्चात् जब तक धर्मदास जी के बयालीस (42) पीढ़ी वाले दीक्षा देते रहेंगे, मैं धरती के ऊपर पैर नहीं रखूंगा। मैं (कबीर जी) फिर संसार में नहीं आऊँगा।
विचार करें:- परमेश्वर कबीर जी विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) को मगहर स्थान से सशरीर सतलोक गए थे। वाणी में लिखकर सिद्ध किया है कि विक्रमी संवत् 1569 को उड़ीसा से सतलोक गए थे। पहली झूठ।
दूसरी झूठ:- उसके पश्चात् यानि संवत् 1575 को सतलोक जाने के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी संत गरीबदास जी को संवत् सतरह सौ चैरासी (1784) सन् 1727 में फाल्गुन मास की सुदी (चाँदनी) द्वादशी (दवास) को परमेश्वर कबीर जी मिले।
गुरू ज्ञान अमान अडोल अबोल है सतगुरू शब्द सेरी पिछानी।।
दास गरीब कबीर सतगुरू मिले आन स्थान रोप्या छुड़ानी।।
अन्य को भी परमेश्वर कबीर जी सतलोक जाने के पश्चात् मिले हैं। संत दादू दास जी को मिले। संत घीसा दास जी को मिले। मुझ दास (रामपाल दास) को सन् 1997 (संवत् 2054) को फाल्गुन मास सुदी एकम को मिले। इससे स्पष्ट है कि कबीर सागर में काल द्वारा चलाए कबीर पंथ वालों ने बहुत गड़बड़ी कर रखी है। परंतु अब भी बहुत कुछ सच्चाई शेष है जो उनकी कुदृष्टि से बच गई। इसकी पूर्ति संत गरीबदास जी द्वारा परमेश्वर कबीर जी ने कराई है तथा पुराने कबीर सागर से भी शुद्धियाँ करके यह ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ पुस्तक परमेश्वर कबीर जी की कृपा से मेरे पूज्य गुरू जी स्वामी रामदेवानन्द जी के आशीर्वाद से तैयार की गई है।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।