अध्याय कमाल बोध का सारांश
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कबीर सागर में 34वां अध्याय कमाल बोध पृष्ठ 1 पर है। कबीर सागर में कमाल बोध अधिकतर गलत लिखा है।

यथार्थ कमाल बोध:- किसी कबीले ने अपने 12 वर्षीय मृत लड़के का अंतिम संस्कार दरिया में जल प्रवाह करके कर दिया था। वह बहता हुआ जा रहा था। दिल्ली के राजा सिकंदर लोधी के गुरू शेखतकी को विश्वास दिलाने के लिए कबीर परमेश्वर जी ने उस मृत बालक को आशीर्वाद से जीवित कर दिया और कबीर जी ने अपने साथ रखा।

(विस्तृत कथा पढ़ें इसी पुस्तक में ‘‘कबीर चरित्र बोध’’ के सारांश में पृष्ठ 541 से 542 पर।)

मृत कमाल बालक को जीवित करना

कबीर जी तथा राजा सिकंदर शेखतकी तथा सर्व सेना को लेकर दिल्ली को चल पड़े। रास्ते में एक दरिया के किनारे पड़ाव किया। सुबह उठकर स्नान आदि कर रहे थे। सिकंदर लोधी उठकर पीर शेखतकी के टैण्ट में गए। शेखतकी को सलाम वालेकम की। शेख ने कोई उत्तर नहीं दिया। कई बार कहने पर कहा कि अब आपको काफिर गुरू मिल गया है। मुसलमान गुरू की क्या आवश्यकता है? उसको अपने हाथी पर चढ़ाकर लाए हैं, अपने टैण्ट में रखा है। मैं दिल्ली जाकर मुसलमानों को बोल दूँगा कि राजा सिकंदर मुसलमान नहीं रहा, इसने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है। बादशाह सिकंदर के पैरों के नीचे से पृथ्वी खिसकती महसूस हुई। कहा कि शेख जी! आप क्या चाहते हो? शेखतकी ने कहा कि कबीर मेरे सामने कोई मुर्दा जीवित करे तो मैं मानूँ। यह सब समस्या परमेश्वर कबीर जी को बताई गई। परमेश्वर कबीर जी ने राजा सिकंदर जी से कहा कि उस शेखतकी से कह दो, कोई मुर्दा ले आए। सिकंदर लोधी शीघ्र शेखतकी जी के टैण्ट में गया और कबीर जी की बात बताई कि कोई मुर्दा लाओ। कबीर जी कह रहे हैं कि जीवित कर दूँगा। शेखतकी ने कहा कि अब मैं किसे मारूँ। कभी कोई मरेगा, तब देख लेंगे। सिकंदर लोधी को फिर चिंता हो गई कि मुर्दा छः महीने नहीं मिला तो मेरा राजपाट चैपट कर देगा। कबीर जी तो जानीजान हैं। सिकंदर के अंदर की चिन्ता समझ गए। परमेश्वर कबीर जी को पता था कि शेखतकी ने तो मानना नहीं है, परंतु राजा को हृदय घात (भ्मंतज ।जजंबा) हो जाएगा। उसी समय एक लगभग 12 वर्ष के बच्चे का शव दरिया में बहता हुआ आता दिखाई दिया जिसको अंतिम संस्कार के रूप में जल प्रवाह कर दिया गया था। उसी समय शेखतकी भी आ गया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे शेखतकी जी! पहले आप कोशिश करो मुर्दे को जीवित करने की, कहीं बाद में कहो कि मैं भी कर देता। सब उपस्थित सैनिकों ने कहा कि ठीक कह रहे हैं, आप भी संत होने का दावा कर रहे हो, आप भी मुर्दा जीवित करके दिखाओ। शेखतकी ने अपना जंत्र-मंत्र किया, सब व्यर्थ रहा। फिर परमेश्वर कबीर जी बारी आई, तब तक मुर्दा दो फर्लांग यानि एक कि.मी. दूर जा चुका था। परमेश्वर कबीर जी ने हाथ के संकेत से मुर्दे को वापिस बुलाया। शव नदी के पानी के बहाव के विपरीत आया और सामने आकर स्थिर हो गया। लहरें नीचे-नीचे उछल रही थी। पानी नीचे से बह रहा था, मुर्दा स्थिर था। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे जीवात्मा, जहाँ भी है, कबीर के आदेश से आओ और इस बालक के शरीर में प्रवेश करके बाहर आओ। उसी समय शव में कंपन हुई और बालक दरिया के पानी से बाहर आया। कबीर जी को दण्डवत् प्रणाम किया। सब उपस्थित व्यक्तियों ने कहा कि कबीर जी ने कमाल कर दिया, कमाल कर दिया। लड़के का नाम कमाल रखा और कबीर जी ने अपने साथ रखा। बच्चे की तरह पालन किया तथा भक्ति रंग में रंगा। ज्ञान समझाया। कमाल दास परमेश्वर कबीर जी की बहुत सेवा करता था। उसको अपनी सेवा का अभिमान हो गया था। कबीर परमेश्वर जी के सामने ही कहता था कि मेरे जैसी सेवा गुरूदेव की कोई नहीं कर सकता। कबीर परमेश्वर जी से ज्ञान सुनकर कमाल जी को अपने वक्तापन का भी गर्व हो गया था। कुछ ज्ञानहीन संगत भी कमाल जी की प्रसंशा करने लगी थी। कहते थे कि कमाल तो गुरू जी से भी अच्छा सत्संग करता है। कमाल को गुरू जी से भी अधिक मानने लगे थे। परमेश्वर कबीर जी बार-बार कहते थे कि:-

कबीर, गुरू को तजै भजै जो आना। ता पशुवा को फोकट ज्ञाना।।

परंतु फिर भी बुद्धि पर पत्थर पड़े थे। जब भक्त को अभिमान हो जाता है और गुरू जी से अपने को उत्तम समझता है या कोई मर्यादा भंग करता है तो उसका नाम भंग हो जाता है। उसके पश्चात् वह सब उल्टा ही करता चला जाता है और अंत में काल से प्रेरित होकर गुरू जी को त्यागकर चला जाता है। या तो किसी अन्य काल के दूत संत को गुरू बनाता है या स्वयं गुरू बनकर भोली जनता को काल के मुख में डालता है, स्वयं भी नरक का भागी बनता है।

परमेश्वर कबीर जी ने कमाल दास जी के अभिमान को भंग करने के लिए एक लीला की। जैसे अर्जुन को अभिमान हो गया था कि मेरे जैसा सेवक श्री कृष्ण जी का कोई नहीं है। अर्जुन के अभिमान को भंग करने के लिए श्री कृष्ण जी ने एक लीला की थी। श्री कृष्ण जी अर्जुन को साथ लेकर राजा मोरध्वज के पास गए, उनके बाग में जाकर ठहरे। दोनों ने संत वेशभूषा पहन रखी थी। श्री कृष्ण जी ने माया से उत्पन्न करके एक सिंह अपने साथ ले रखा था। राजा मोरध्वज श्री कृष्ण जी का शिष्य था। राजा ने अपने पुत्र ताम्रध्वज का राजतिलक करना था यानि अपना उत्तराधिकारी राजा नियुक्त करना था। उस उपलक्ष्य में एक धर्मयज्ञ का आयोजन किया था। उस दिन श्री कृष्ण जी ने अपना स्वरूप बदला था। जिस कारण से मोरध्वज तथा परिवार पहचान नहीं सका था। राजा ने दोनों संतों को खाने के लिए प्रार्थना की तो श्री कृष्ण जी ने कहा कि पहले हमारे शेर (सिंह) को भोजन कराओ, यह मनुष्य का माँस खाता है। एक विशेष बात यह है कि जो इस सिंह का आहार बनेगा, वह स्वर्ग को प्राप्त होगा। यह संत का वचन है। सुनो! किसी पल्लेदार मजदूर को मत पकड़ लाना। आज यह आपके परिवार के किसी सदस्य का माँस खाएगा। पहले राजा ने अपनी पत्नी तथा पुत्र से कहा कि पुत्र राज करे और इसकी माँ बच्चे का ध्यान रखे। मैं संतों के सिंह का भोजन बनूँगा। रानी ने कहा कि मैं पतिव्रता स्त्राी हूँ। पति की मृत्यु से पहले मैं मरूँगी, सिंह का भोजन बनूँगी। लड़के ने कहा कि मैंने माता-पिता की सेवा नहीं की। यदि आप दोनों में से एक भी मर जाएगा तो मेरा पुत्र का कर्तव्य पूरा न होने से मैं पाप का भागी बनूँगा। इसलिए मैं आपके जीवन की रक्षा करके अपना पुत्र का फर्ज पूरा करके उज्जवल मुख से परमात्मा के दरबार में जाऊँगा। अंत में श्री कृष्ण जी ने फैसला किया कि ताम्रध्वज लड़के को आप दोनों पति-पत्नी बीचों-बीच काटकर दो भाग कर दो। बायां भाग फैंक देना, केवल दांया भाग ही शेर खाएगा। बायां भाग पवित्र नहीं है। उसी समय राजा तथा रानी ने लकड़ी काटने का आरा मँगाया और दोनों जनों ने अपने पुत्रा को आरे से चीरना शुरू कर दिया। संत वेश में श्री कृष्ण जी ने यह भी चेतावनी दी थी कि यदि आप तीनों में से किसी की आँखों में आँसू आ गए तो भी शेर भोजन नहीं खाएगा। पति-पत्नी ने बच्चे को बैठाकर सिर के ऊपर आरा रखकर चीरना शुरू कर दिया। राजा-रानी रोए नहीं, पत्थर जैसा दिल कर लिया। लड़के की आँखों में आँसू आ गए, तब तक लड़के को दो भाग कर दिया गया। श्री कृष्ण जी ने कहा कि ताम्रध्वज की आँखों में आँसू आ गए हैं। इनकी सच्ची श्रद्धा नहीं है। इसलिए हम तथा शेर खाना नहीं खाऐंगे, हम रूष्ट होकर जा रहे हैं। लड़के के शरीर से आवाज आई कि हे भगवन! आप तो अंतर्यामी हैं, दिल में बैठकर जान सकते हैं कि मैं क्यों रोया हूँ। मैं इसलिए रोया हूँ कि मैं पापी हूँ, मेरा सारा शरीर भी आपकी सेवा के योग्य नहीं है। बड़ी कठिनाई से यह अवसर मिला था आपकी सेवा में शरीर सौंपने का। श्री कृष्ण जी ने कहा था कि जो आज इस मुहूर्त में सिंह के लिए शरीर भोजन रूप में दान करेगा, वह सीधा स्वर्ग जाएगा। तीनों प्राणियों की कोशिश थी कि मेरा नंबर लगे। तीनों जन कह रहे थे कि मेरा शरीर ले लो, दूसरा कह रहा था मेरा शरीर ले लो। उस बीच में श्री कृष्ण जी ने निर्णय किया था कि लड़के ताम्रध्वज का शरीर सिंह खाएगा। तब लड़के का नम्बर लगा था। इसलिए ताम्रध्वज ने कहा था कि बड़ी मुश्किल से तो शरीर दान करने का दाॅव लगा था। मेरा शरीर आधा ही आपके काम आया, मेरे को आधा लाभ मिलेगा। उसी समय श्री कृष्ण जी प्रसन्न हुए तथा लड़के के शरीर से आरा निकालकर उसको जीवित कर दिया और तीनों को स्वर्ग का अधिकारी बनाया। यह लीला देखकर अर्जुन मारे शर्म के पानी-पानी हो गया तथा कहा हे भगवन! मैं तो मान बैठा था कि आपका मेरे जैसा सेवक कोई नहीं है। मैं तो इनके बलिदान के सामने कुछ भी नहीं हूँ। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी ने कमाल जी को समझाना चाहा था। 

नेकी-सेऊ-सम्मन के बलिदान की कथा

एक समय साहेब कबीर अपने भक्त सम्मन के यहाँ अचानक दो सेवकों (कमाल व शेखफरीद) के साथ पहुँच गए। सम्मन के घर कुल तीन प्राणी थे। सम्मन, सम्मन की पत्नी नेकी और सम्मन का पुत्र सेऊ (शिव)। भक्त सम्मन इतना गरीब था कि कई बार अन्न भी घर पर नहीं होता था। सारा परिवार भूखा सो जाता था। आज वही दिन था। भक्त सम्मन ने अपने गुरुदेव कबीर साहेब से पूछा कि साहेब खाने का विचार बताएँ, खाना कब खाओगे? कबीर साहेब ने कहा कि भाई भूख लगी है। भोजन बनाओ। सम्मन अन्दर घर में जा कर अपनी पत्नी नेकी से बोला कि अपने घर अपने गुरुदेव भगवान आए हैं। जल्दी से भोजन तैयार करो। तब नेकी ने कहा कि घर पर अन्न का एक दाना भी नहीं है। सम्मन ने कहा पड़ोस वालों से उधार मांग लाओ। नेकी ने कहा कि मैं मांगने गई थी लेकिन किसी ने भी उधार आटा नहीं दिया। उन्होंने आटा होते हुए भी जान बूझ कर नहीं दिया और कह रहे हैं कि आज तुम्हारे घर तुम्हारे गुरु जी आए हैं। तुम कहा करते थे कि हमारे गुरु जी भगवान हैं। आपके गुरु जी भगवान हैं तो तुम्हें माँगने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये ही भर देगें तुम्हारे घर को आदि-2 कह कर मजाक करने लगे। सम्मन ने कहा लाओ आपका चीर गिरवी रख कर तीन सेर आटा ले आता हूँ। नेकी ने कहा यह चीर फटा हुआ है। इसे कोई गिरवी नहीं रखता। सम्मन सोच में पड़ जाता है और अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए कहता है कि मैं कितना अभागा हूँ। आज घर भगवान आए और मैं उनको भोजन भी नहीं करवा सकता। हे परमात्मा! ऐसे पापी प्राणी को पृथ्वी पर क्यों भेजा। मैं इतना नीच रहा हूँगा कि पिछले जन्म में कोई पुण्य नहीं किया। अब सतगुरु को क्या मुंह दिखाऊँ? यह कह कर अन्दर कोठे में जा कर फूट-2 कर रोने लगा। तब उसकी पत्नी नेकी कहने लगी कि हिम्मत करो। रोवो मत। परमात्मा आए हैं। इन्हें ठेस पहुँचेगी। सोचंेगे हमारे आने से तंग आ कर रो रहा है। सम्मन चुप हुआ। फिर नेकी ने कहा आज रात्रि में दोनों पिता पुत्र जा कर तीन सेर (पुराना बाट किलो ग्राम के लगभग) आटा चुरा कर लाना। केवल संतों व भक्तों के लिए। तब लड़का सेऊ बोला माँ - गुरु जी कहते हैं चोरी करना पाप है। फिर आप भी मुझे शिक्षा दिया करती कि बेटा कभी चोरी नहीं करनी चाहिए। जो चोरी करते हैं उनका सर्वनाश होता है। आज आप यह क्या कह रही हो माँ? क्या हम पाप करेंगे माँ? अपना भजन नष्ट हो जाएगा। माँ हम चैरासी लाख योनियों में कष्ट पाएंगे। एैसा मत कहो माँ। माँ आपको मेरी कसम। तब नेकी ने कहा पुत्र तुम ठीक कह रहे हो। चोरी करना पाप है परंतु पुत्र हम अपने लिए नहीं बल्कि संतों के लिए करेंगे। जिस नगर में निर्वाह किया है। इसकी रक्षा के लिए चोरी करेंगे। नेकी ने कहा बेटा - ये नगर के लोग अपने से बहुत चिढ़ते हैं। हमने इनको कहा था कि हमारे गुरुदेव कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) पृथ्वी पर आए हुए हैं। इन्होंने एक मृतक गऊ तथा उसके बच्चे को जीवित कर दिया था जिसके टुकड़े सिंकदर लौधी ने करवाए थे। एक लड़के तथा एक लड़की को जीवित कर दिया। सिंकदर लौधी राजा का जलन का रोग समाप्त कर दिया तथा श्री स्वामी रामानन्द जी (कबीर साहेब के गुरुदेव) को सिंकदर लौधी ने तलवार से कत्ल कर दिया था वे भी कबीर साहेब ने जीवित कर दिए थे। इस बात का ये नगर वाले मजाक कर रहे हैं और कहते हैं कि आपके गुरु कबीर तो भगवान हैं तुम्हारे घर को भी अन्न से भर देंगे। फिर क्यों अन्न (आटे) के लिए घर घर डोलती फिरती हो?

बेटा ये नादान प्राणी हैं यदि आज साहेब कबीर इस नगरी का अन्न खाए बिना चले गए तो काल भगवान भी इतना नाराज हो जाएगा कि कहीं इस नगरी को समाप्त न कर दे। हे पुत्र! इस अनर्थ को बचाने के लिए अन्न की चोरी करनी है। हम नहीं खाएंगे। केवल अपने सतगुरु तथा आए भक्तों को प्रसाद बना कर खिलाएगें। यह कह कर नेकी की आँखों में आँसू भर आए और कहा पुत्र नाटियो मत अर्थात् मना नहीं करना। तब अपनी माँ की आँखों के आँसू पौंछता हुआ लड़का सेऊ कहने लगा - माँ रो मत, आपका पुत्र आपके आदेश का पालन करेगा। माँ आप तो बहुत अच्छी हो न।

अर्ध रात्रि के समय दोनों पिता (सम्मन) पुत्र (सेऊ) चोरी करने के लिए चले दिए। एक सेठ की दुकान की दीवार में छिद्र किया। सम्मन ने कहा कि पुत्र मैं अन्दर जाता हूँ। यदि कोई व्यक्ति आए तो धीरे से कह देना मैं आपको आटा पकड़ा दूंगा और ले कर भाग जाना। तब सेऊ ने कहा नहीं पिता जी, मैं अन्दर जाऊँगा। यदि मैं पकड़ा भी गया तो बच्चा समझ कर माफ कर दिया जाऊँगा। सम्मन ने कहा पुत्र यदि आपको पकड़ कर मार दिया तो मैं और तेरी माँ कैसे जीवित रहेंगे? सेऊ प्रार्थना करता हुआ छिद्र द्वार से अन्दर दुकान में प्रवेश कर गया। तब सम्मन ने कहा पुत्र केवल तीन सेर आटा लाना, अधिक नहीं। लड़का सेऊ लगभग तीन सेर आटा अपनी फटी पुरानी चद्दर में बाँध कर चलने लगा तो अंधेरे में तराजू के पलड़े पर पैर रखा गया। जोर दार आवाज हुई जिससे दुकानदार जाग गया और सेऊ को चोर-चोर करके पकड़ लिया और रस्से से बाँध दिया। इससे पहले सेऊ ने वह चद्दर में बँधा हुआ आटा उस छिद्र से बाहर फैंक दिया और कहा पिता जी मुझे सेठ ने पकड़ लिया है। आप आटा ले जाओ और सतगुरु व भक्तों को भोजन करवाना। मेरी चिंता मत करना। आटा ले कर सम्मन घर पर गया तो सेऊ को न पा कर नेकी ने पूछा लड़का कहाँ है? सम्मन ने कहा उसे सेठ जी ने पकड़ कर थम्ब से बाँध दिया। तब नेकी ने कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के सेऊ का सिर काट लाओ क्योंकि लड़के को पहचान कर अपने घर पर लाएंगे। फिर सतगुरु को देख कर नगर वाले कहेंगे कि ये हैं जो चोरी करवाते हैं। हो सकता है सतगुरु देव को परेशान करें। हम पापी प्राणी अपने दाता को भोजन के स्थान पर कैद न करवा दें। यह कह कर माँ अपने बेटे का सिर काटने के लिए अपने पति से कह रही है वह भी गुरुदेव जी के लिए। सम्मन ने हाथ में कर्द (लम्बा छुरा) लिया तथा दुकान पर जा कर कहा सेऊ बेटा, एक बार गर्दन बाहर निकाल। कुछ जरूरी बातें करनी हैं। कल तो हम नहीं मिल पाएंगे। होसकता है ये आपको मरवा दें। तब सेऊ उस सेठ (बनिए) से कहता है कि सेठ जी बाहर मेरा बाप खड़ा है। कोई जरूरी बात करना चाहता है। कृप्या करके मेरे रस्से को इतना ढीला कर दो कि मेरी गर्दन छिद्र से बाहर निकल जाए। तब सेठ ने उसकी बात को स्वीकार करके रस्सा इतना ढीला कर दिया कि गर्दन आसानी से बाहर निकल गई। तब सेऊ ने कहा पिता जी मेरी गर्दन काट दो। यदि आप मेरी गर्दन नहीं काटोगे तो आप मेरे पिता नहीं हो। मुझे पहचानकर घर तक सेठ पहुँचेगा। राजा तक इसकी पहुँच है। यह अपने गुरूदेव को मरवा देगा। पिताजी हम क्या मुख दिखाऐंगे? सम्मन ने एकदम करद मारी और सिर काट कर घर ले गया। सेठ ने लड़के का कत्ल हुआ देख कर उसके शव को घसीट कर साथ ही एक पजावा (ईटें पकाने का भट्ठा) था उस खण्डहर में डाल गया।

जब नेकी ने सम्मन से कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के का धड़ भी बाहर मिलेगा उठा लाओ। जब सम्मन दुकान पर पहुँचा उस समय तक सेठ ने उस दुकान की दीवार के छिद्र को बंद कर लिया था। सम्मन ने शव कीे घसीट (चिन्हों) को देखते हुए शव के पास पहुँच कर उसे उठा लाया। ला कर अन्दर कोठे में रख कर ऊपर पुराने कपड़े (गुदड़) डाल दिए और सिर को अलमारी के ताख (एक हिस्से) में रख कर खिड़की बंद कर दी।

कुछ समय के बाद सूर्य उदय हुआ। नेकी ने स्नान किया। सतगुरु व भक्तों का खाना बनाया। सतगुरु कबीर साहेब जी से भोजन करने की प्रार्थना की। नेकी ने साहेब कबीर व दोनों भक्त (कमाल तथा शेख फरीद), तीनों के सामने आदर के साथ भोजन परोस दिया। साहेब कबीर ने कहा इसे छः दौनों में डाल कर आप तीनों भी साथ बैठो। यह प्रेम प्रसाद पाओ। बहुत प्रार्थना करने पर भी साहेब कबीर नहीं माने तो छः दौनों में प्रसाद परोसा गया। पाँचों प्रसाद के लिए बैठ गए।

तब साहेब कबीर जी ने कहा:-

आओ सेऊ जीम लो, यह प्रसाद पे्रम।
शीश कटत हैं चोरों के, साधों के नित्य क्षेम।।

साहेब कबीर ने कहा कि सेऊ आओ भोजन पाओ। सिर तो चोरों के कटते हैं। संतों (भक्तों) के नहीं। उनकी तो रक्षा होती है। उनको तो क्षमा होती है। साहेब कबीर ने इतना कहा था उसी समय सेऊ के धड़ पर सिर लग गया। कटे हुए का कोई निशान भी गर्दन पर नहीं था तथा पंगत (पंक्ति) में बैठ कर भोजन करने लगा। बोलो कबीर साहेब (कविरमितौजा) की जय। (कविर् = कविर्देव = कबीर परमेश्वर, अमित + औजा = जिसकी शक्ति का कोई वार-पार न हो।)

सम्मन तथा नेकी ने देखा कि गर्दन पर कोई चिन्ह भी नहीं है। लड़का जीवित कैसे हुआ? अन्दर जा कर देखा तो वहाँ शव तथा शीश नहीं था। केवल रक्त के छीटें लगे थे जो इस पापी मन के संशय को समाप्त करने के लिए प्रमाण बकाया था। सत साहिब।।

ऐसी-2 बहुत लीलाएँ साहेब कबीर (कविरग्नि) ने की हैं जिनसे यह स्वसिद्ध है कि ये ही पूर्ण परमात्मा हैं। सामवेद संख्या नं. 822 तथा ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 162 मंत्र 2 में कहा है कि कविर्देव अपने विधिवत् साधक साथी की आयु बढ़ा देता है।

कमाल का गुरू विमुख होना

इस लीला को देखकर कमाल को समझ आई कि मैं तो इनकी सेवा-बलिदान के सामने सूर्य के समक्ष दीपक हूँ, परंतु अभिमान नहीं गया। नाम खण्ड हो चुका था। कुछ समय पश्चात् काल प्रेरणा से एक दिन परमेश्वर कबीर जी को त्यागकर अपने प्रशंसकों के साथ अन्य ग्राम में जाकर रहने लगा। दीक्षा देने लगा। पहले तो बहुत से अनुयाई हो गए, परंतु बाद में उनको हानि होने लगी। कोई माता पूजने लगा, कोई मसानी। कारण यह हुआ कि जो भक्ति साधकों ने परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा लेकर की थी। वह जब तक चली, उनको लाभ होते रहे। वे मानते रहे कि यह लाभ कमाल गुरू जी के मंत्रों से हो रहे हैं। कमाल जी के आशीर्वाद से हमें लाभ हो रहा है। पूर्व की भक्ति समाप्त होते ही वे पुनः दुःखी रहने लगे। कमाल जी के पास कभी-कभी औपचारिकता करने जाने लगे। जैसे इन्वर्टर की बैटरी को चार्जर लगा रखा था, वह कुछ चार्ज हुई थी। चार्जर हट गया। फिर भी इन्वर्टर अपना काम कर रहा होता है। बैटरी की क्षमता समाप्त होते ही सर्व सुविधा जो इन्वर्टर से प्राप्त थी, वे बंद हो गई। इसी प्रकार उन मूर्ख भक्तों का जीवन व्यर्थ हो गया। कमाल जी को नामदान की आज्ञा नहीं थी। वह स्वयंभू गुरू बनकर श्रद्धालुओं का जीवन नष्ट करता हुआ अपना भी जीवन महिमा की भूख में नष्ट कर दिया।

एक दिन कमाल ने सोचा कि भक्तों का आना कम हो गया है। कमाल के लिए एक छोटा-सा आश्रम भी बना दिया था। आसपास के गाँवों में कबीर परमेश्वर जी के बहुत से शिष्य हैं जो कमाल के षड़यंत्र में नहीं फंसे थे। कमाल ने आसपास तथा उसी गाँव में कहलवा दिया कि कबीर गुरू जी का जन्म ज्येष्ठ पूर्णमासी को मनाया जा रहा है। सब आऐं तथा भण्डारे में दान करें। बाहर के गाँव से कोई नहीं आया। गाँव के व्यक्ति सुबह सूर्य उदय से पहले उठकर अपने अपने-अपने घरों से प्रतिवर्ष की तरह भण्डारे में दूध दान करने चले। कमाल ने आश्रम में रहने वाले शिष्यों से कहा कि गाँव वाले दूध डालने आएंगे, एक कड़ाहा रख दो। उसको कपड़े से ढ़क तो ताकि रेत-मिट्टी न गिरे। चेलों ने ऐसा ही कर दिया। गाँव वालों में परमेश्वर कबीर जी ने ऐसी प्रेरणा कर दी कि ज्यादातर विचार किया कि सारा गाँव दूध डालकर आएगा, मेरे घर में दूध कम है, मैं पानी डाल आता हूँ। प्रत्येक के मन में यह प्रेरणा हो गई। दो-चार ही दूध डालकर आए। वैसे अपनी हाजिरी सब घरों से एक-एक सदस्य ने लगवाई। सब अंधेरे का लाभ उठाकर सब कार्य कर गए। सुबह आश्रम के शिष्यों ने खीर बनाने के लिए दूध देखा तो सफेद पानी था। कमाल को तो लगा था कि सारा गाँव दूध लेकर आया है। सब मेरे साथ हैं, परंतु दूध देखा तो सब पानी था। 
यह देखकर कमाल को अपनी करतूत का अहसास हुआ कि गुरू से दूर होने के कारण मेरे को यह हानि हुई है। घर का रहा न घाट का। उसी दौरान कमाल ने अहमदाबाद में एक दरीयाखान मुसलमान शिष्य बनाया था। फिर उसको शाॅप दे दिया कि तू भूत योनि में जाएगा। इस प्रकार अपनी शक्ति को कमाल ने नष्ट किया। कबीर परमेश्वर जी ने कमाल से कह दिया था कि तेरा पंथ नहीं चलेगा। तूने मर्यादा का कोई ध्यान नहीं रखा।

कबीर परमेश्वर जी ने भी कहा था कि:- {अनुराग सागर पृष्ठ 138}

कमाल पुत्र जो मृतक जिवाया। ताके घट (शरीर) में काल समाया।।
पुत्रवत ताको पाला पोखा। वाने हम संग कीन्हा धोखा।।
पिता जान तिन अहँग (अहंकार) कीन्हा। तातें ताको दिल से उतार दीन्हा।।
हम हैं प्रेम भक्ति के साथी। चाहुँ नहीं तुरी (घोड़ी) अरू हाथी।।

कुछ दिनों के पश्चात् कमाल भक्त उस आश्रम को त्यागकर रात्रि में अज्ञात स्थान पर चला गया। उसके पश्चात् न जाने कहाँ मरा होगा?

विचार करें:- यह प्राणी कितना कृतघ्नी हो चुका है। जिस मालिक ने जीवन दान दिया। पाला-पोसा, अनुपम अध्यात्म ज्ञान दिया। फिर भी अपनी महिमा की हवस के कारण उस परम पिता को धोखा दिया।

इस प्रसंग से यह भी स्पष्ट हुआ कि हम श्री कृष्ण जी को प्रभु मानते हैं। कारण यह है कि उन्होंने ताम्रध्वज को जीवित किया था। परमेश्वर कबीर जी ने शिव पुत्र सम्मन को जीवित किया था। उसको मोक्ष भी दिया। श्री कृष्ण ने केवल स्वर्ग दिया। स्वर्ग में गए व्यक्ति पुनः जन्म-मरण में आते हैं।

परमेश्वर कबीर जी द्वारा बताए भक्ति मार्ग से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है जो शिव (सेऊ) तथा नेकी को प्राप्त हुआ तथा सम्मन को भी परमात्मा तीसरे जन्म में इब्राहिम अधम सुल्तान रूप में पूर्ण मोक्ष मंत्र देकर मोक्ष प्राप्त करवाया।

कमाल ने परमेश्वर के साथ धोखा किया। इसलिए अपनी मूर्खता के कारण जीवन व्यर्थ कर गया।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘कमाल बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

Sat Sahib