कबीर सागर में 28वां अध्याय ‘‘काया पांजी‘‘ है। पृष्ठ 173 पर है। परमेश्वर कबीर जी ने शरीर में बने कमलों का ज्ञान तथा जीव जब सतलोक चलता है तो कौन-कौन से मार्ग से जाता है? यह बताया है। परंतु इस अध्याय में यथार्थ वाणी को अपनी बुद्धि से काल वाले कबीर पंथियों ने निकाल दिया और अपनी अल्प बुद्धि से अड़ंगा करके गलत वाणी लिख दी। प्रमाण के लिए पृष्ठ 175 पर प्रथम पंक्ति में लिखा है:-
दहिने घाट चन्द्र का बासा। बाँवें सूर (सूर्य) करे प्रकाशा।।
भावार्थ:- दायें नाक वाला छिद्र चन्द्र यानि शीतल है और बायां छिद्र सूर्य यानि गर्म है। जबकि वास्तविकता यह है कि दायां स्वर तो गर्म यानि सूरज द्वार कहा जाता है। इसको पिंगल नाड़ी भी कहते हैं। बायां स्वर चन्द्र द्वार यानि शीतल द्वार कहते हैं, इसको इंगला नाड़ी कहते हैं और मध्य वाली को सुषमणा नाड़ी कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान का अज्ञान करके लिखा है। मेरे पास पुराना यथार्थ कबीर ग्रन्थ है। उससे तथा संत गरीबदास जी के ग्रन्थ से सारांश तथा वाणी लिखकर सार ज्ञान प्रस्तुत कर रहा हूँ।
यथार्थ ज्ञान
कृपा पढ़ें यह शब्द ‘‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘‘, इसी पुस्तक के पृष्ठ 154 पर अध्याय अनुराग सागर के सारांश में पृष्ठ 151 के सारांश में।
अब पढ़ें संत गरीबदास जी की वाणी:-
ब्रह्म बेदी
ब्रह्म बेदी का अर्थ परमात्मा की भक्ति का सुसज्जित आसन जिसके ऊपर छतर या चाँदनी लगी हो, सुन्दर स्वच्छ गलीचा या गद्दा बिछा हो जैसे पाठ प्रकाश के समय श्री सद्ग्रन्थ साहेब का आसन तैयार करते हैं। भावार्थ है कि आत्मा में परमात्मा की बेदी बनाकर परमेश्वर को आसन-सिहांसन पर विराजमान करके उसकी स्तुति करें। संत गरीबदास जी की वाणी:-
वाणी:- ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं। ब्रह्मज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत दुःख भंजनं।।1
सरलार्थ:- हे परमेश्वर! आप सर्व ज्ञान सम्पन्न हो, ज्ञान के सागर हो। आप अति उजागर अर्थात् पूर्ण रूप मान्य हो। सर्व को आपका ज्ञान है कि परमात्मा परम शक्ति है। इस प्रकार आपका सर्व को ज्ञान है। यह तो उजागर अर्थात् स्पष्ट है कि परमात्मा समर्थ है। आप निर्-विकार निरंजन हो। आप में कोई दोष नहीं, कोई विषय-विकार नहीं है। आप वास्तव में निरंजन हैं। निरंजन का अर्थ है माया रहित अर्थात् निर्लेप परमात्मा। काल भी निरंजन कहलाता है। वास्तव में वह निरंजन नहीं है, वह ज्योति निरंजन है। काल निरंजन है, वह निर्विकार निरंजन नहीं है। हे परमात्मा! आप ब्रह्म ज्ञानी अर्थात् परमात्मा का ज्ञान अर्थात् अपनी जानकारी आप ही प्रकट होकर बताते हैं। इसलिए आप ब्रह्म ज्ञानी हो। अन्य नकली ब्रह्म ज्ञानी हैं। हे परमात्मा! आप महाध्यानी हैं। आप सर्व प्राणियों का ध्यान रखते हो। इस कारण से आप जैसा ध्यानी कोई नहीं। आप सत सुकृत अर्थात् सच्चे कल्याणकर्ता हो। आप अपने भक्त का दुःख नाश करने वाले हैं। (1)
अब ब्रह्म बेदी की वाणी सँख्या 2 से 8 तक मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन संत गरीबदास जी ने किया है। साथ में उनके कमलों को विकसित करने के मंत्र भी बताए हैं। परंतु इन मंत्रों के जाप की विधि केवल मेरे को (संत रामपाल दास को) पता है तथा भक्तों को नाम दान करने की आज्ञा भी मुझे ही है। यदि कोई इन मंत्रों को पढ़कर स्वयं जाप करेगा तो उसको कोई लाभ नहीं होगा।
वाणी:- मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये।
किलियं जाप कुलीन तज सब, शब्द हमारा मानिये।। 2
सरलार्थ:- मानव शरीर में एक रीढ़ की हड्डी (spine) है जिसे back bone भी कहते हैं। गुदा के पास इसका निचला सिरा है। इस रीढ़ की हड्डी के साथ शरीर की ओर गुदा से एक इन्च ऊपर मूल चक्र (कमल) है जिसका रक्त वर्ण अर्थात् खून जैसा लाल रंग है। इस कमल की चार पंखुड़ियाँ हैं। इस कमल में श्री गणेश देव का निवास है। हे साधक! इस कमल को खोलने यानि मार्ग प्राप्त करने के लिए ‘‘किलियम्‘‘ नाम का जाप कर और सब कुलीन अर्थात् नकली व्यर्थ नामों का जाप त्याग दे, हमारे वचन पर विश्वास करके मान लेना। (2)
वाणी:- स्वाद चक्र ब्रह्मादि बासा, जहां सावित्री ब्रह्मा रहैं।
ॐ जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।। 3
सरलार्थ:- मूल चक्र से एक इन्च ऊपर स्वाद कमल है। इस कमल में सावित्री तथा ब्रह्मा जी का निवास है। इस कमल को खोलने अर्थात् मार्ग प्राप्त करने के लिए ओम् (ॐ) नाम का जाप कर। यह भेद परमेश्वर कबीर जी ने मुझे (संत गरीबदास जी से) सतगुरू रूप में प्रकट होकर कहा है। (3)
वाणी:- नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है।
हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।। 4
सरलार्थ:- शरीर में बनी नाभि तो पेट के ऊपर स्पष्ट दिखाई देती है। इसके ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह नाभि चक्र (कमल) है। इसमें लक्ष्मी जी तथा विष्णु जी का निवास है। इस कमल को विकसित करने और मार्ग खोलने के लिए हरियम् नाम का जाप करना चाहिए। इस गुप्त मंत्र को कोई बिरला ही जानता है जो सतगुरू का भक्त होगा। (4)
वाणी:- हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है।
सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।। 5
सरलार्थ:- हृदय कमल की स्थिति इस प्रकार है:- छाती में बने दोनों स्तनों के मध्य स्थान में ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर यह हृदय कमल बना है, दिल अलग अंग है। हृदय मध्य को भी कहते हैं। जैसे यह बीच (मध्य) का कमल है। तीन इससे नीचे तथा तीन ऊपर बने हैं। इस कारण से इसको हृदय कमल के नाम से जाना जाता है। इस कमल में महादेव शंकर जी तथा सती जी (पार्वती जी) रहते हैं। इस कमल (चक्र) को विकसित करने और मार्ग खोलने का मंत्र ‘‘सोहम्‘‘ जाप साधक को जपना चाहिए। जो ज्ञान योग में वास्तविक ज्ञान मिला है, यह अच्छा रंग अर्थात् शुभ लगन का कार्य है। इस यथार्थ ज्ञान के रंग में रंग जाओ। (5)
वाणी:- कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही।
लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।। 6
सरलार्थ:- गले के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह कण्ठ कमल बना है। इसमें अविद्या अर्थात् दुर्गा जी का निवास है। जिसके प्रभाव से जीव का ज्ञान तथा भक्ति के समय ध्यान समाप्त होता है तथा दुर्गा बुद्धि को भ्रष्ट करती है। यह लील चक्र अर्थात् 16 पंखुड़ियों का यह चक्र है। इसी के साथ सूक्ष्म रूप में काल निरंजन भी रहता है। दुर्गा देवी जी काल निरंजन की पत्नी है। काल ने गुप्त रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। ये दोनों मिलकर भक्त के अध्यात्म ज्ञान तथा ध्यान को तथा श्वांस से किए जाने वाले नाम स्मरण को भुलाते हैं। इस कमल को विकसित करने और मार्ग खोलने का श्रीयम् मंत्र है। (6)
वाणी:- त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है।
मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।। 7
सरलार्थ:- मस्तिष्क का वह स्थान जो दोनों आँखों के ऊपर बनी भौवों (सेलियों) के मध्य जहाँ टीका लगाते हैं, उसके पीछे की ओर आँखों के पीछे यह त्रिकुटी कमल है। इसमें पूर्ण परमात्मा सतगुरू रूप में विराजमान हैं। इस कमल की दो पंखुड़ियाँ हैं। एक का सफेद रंग है, दूसरी का काला रंग है। यहाँ सफेद स्थान पर विराजमान सतगुरू के सारनाम का जाप सुरति निरति से किया जाता है। वह उपदेशी को बताया जाता है। (7)
वाणी:- सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है।
पूरण रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।। 8
सरलार्थ:- सहंस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं। वैसे भी बाल छोटे करवाने पर वहाँ एक भिन्न निशान-सा नजर आता है। इस कमल की हजार पंखुड़ियाँ हैं। इस कारण से इसे सहंस्र कमल कहा जाता है। इसमें काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है। जैसे भूमध्य रेखा पर सूर्य की उष्णता अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक रहती है। वह जगदीश ही सच्चा समर्थ है, वह निर्बन्ध है। काल तो 21 ब्रह्माण्डों में बँधा है। सत्य पुरूष सर्व का मालिक है। (8)
वाणी:- मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है।
इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।। 9
सरलार्थ:- जैसे मछली ऊपर से गिर रहे जल की धारा में उल्टी चढ़ जाती है। इसी प्रकार भक्त को ऊपर की ओर सतलोक में चलना है। उसके लिए इला (इड़ा अर्थात् बाईं नाक से श्वांस) तथा पिंगुला (दांया स्वर नाक से) तथा दोनों के मध्य सुष्मणा नाड़ी है। उसको खोजो। फिर हे भक्त! ऊपर को चल जो औघट घाट अर्थात् उलट मार्ग है। संसार के साधकों का मार्ग त्रिकुटी तक है। संत मार्ग (घाट) इससे और ऊपर उल्टा चढ़ने का मार्ग (घाट) है। यह सुष्मणा सतनाम के जाप से खुल जाता है। (9)
वाणी:- ऐसा जोग विजोग वरणो, जो शंकर ने चित धरया।
कुम्भक रेचक द्वादस पलटे, काल कर्म तिस तैं डरया।। 10
सरलार्थ:- संत गरीबदास जी ने बताया है कि मुझे सतगुरू रूप में परमेश्वर मिले थे। उन्होंने तत्त्वज्ञान बताया, मैनें अभ्यास करके देखा जो खरा उतरा। मैं आपको ऐसा जोग (योग, साधना) तथा विजोग (वियोग अर्थात् विशेष साधना) का वर्णन करता हूँ जो साधना (योग) शंकर जी ने चित्त धर्या (ध्यान किया = समाधि लगाई) सामान्य योग (साधना) तो यह है कि कुम्भक (श्वांस को अंदर लेने की क्रिया को कहते हैं, श्वांस को कुछ समय अंदर रोकना होता है) तथा रेचक (श्वांस को बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक क्रिया कहते हैं) करके किया जाता है। विजोग अर्थात् विशेष योग का ज्ञान परमेश्वर जी ने ही बताया है जो हमारे पास है जिसके करने से द्वादश वायु पलटती हैं अर्थात् नीचे की बजाय ऊपर को रूख कर लेती हैं। शरीर में पाँच वायु (पान, अपान, वियान, धन्जय, प्राण वायु) का ज्ञान तो सामान्य योग करने वाले योगियों (साधकों) को भी होता है। इसके अतिरिक्त 7 वायु शरीर में ओर हैं जिनका ज्ञान वियोग करने वाले योगियों (साधकों) को ही होता है। वियोग को करने से कर्मनाश होता है। अन्य साधना से कर्म नाश नहीं होते। इसी आधार से काल भगवान दण्डित करता है। कर्मनाश होने के कारण काल भी उस साधक से भय मानता है कि इसको विजोग (विशेष योग) का ज्ञान है। यह परम अक्षर पुरूष का भक्त है। (10)
वाणी:- सुन्न सिंघासन अमर आसन, अलख पुरुष निर्बान है।
अति ल्यौलीन बेदीन मालिक, कादर कुं कुर्बान है।। 11
सरलार्थ:- परम अक्षर पुरूष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म तो निर्बान (निर्वाण अर्थात् पूर्ण मुक्त) अर्थात् स्वतंत्र है। उसका सिहांसन (तख्त) ऊपर सुन्न स्थान में है जो अमर आसन है अर्थात् अविनाशी ठिकाना है। वह परम अक्षर ब्रह्म अति ल्यौलीन है अर्थात् संसार के धारण-पोषण करने में व्यस्त है। वह बेदीन है अर्थात् कभी पृथ्वी पर लीला करने आता है, कभी ऊपर के अमर लोक में बैठकर दुनिया (संसार) को देखता है। परमात्मा का कोई दीन (धर्म) नहीं है, वह सर्व धर्म के व्यक्तियों का धारण-पोषण करता है। {वह परमात्मा ऐसे स्थान पर ऊपर के लोक में रहता है जिसे हम पृथ्वी से नहीं देख सकते। जिस कारण से उसको अलख पुरूष कहते हैं। लख का अर्थ है देखना, जो देखा ना जाए, वह अलख कहलाता है।} संत गरीबदास जी कह रहे हैं कि ऐसे कादिर (समर्थ) परमात्मा को मैं कुर्बान हूँ, बलिहारी हूँ। (11)
वाणी:- है निरसिंघ अबंध अबिगत, कोटि बैुकण्ठ नखरूप है।
अपरंपार दीदार दर्शन, ऐसा अजब अनूप है।। 12
सरलार्थ:- परमात्मा सीमा रहित, बंधन रहित है जिसकी गति (स्थिति) को कोई नहीं जानता(परमात्मा अविगत है)। उसके नाखून जितने स्थान पर करोड़ों स्वर्ग स्थापित हैं। भावार्थ है कि परमात्मा की अध्यात्मिक शक्ति जिसे निराकार शक्ति कहते हैं, इतनी विशाल तथा शक्तियुक्त है कि उसके अंश मात्र पर करोड़ों स्वर्ग स्थापित हैं। जैसे सत्य लोक (सतलोक) में जितने भी ब्रह्माण्ड हैं, वे सर्व स्वर्ग हैं अर्थात् सुखदायी स्थान हैं। स्वर्ग नाम सुखमय स्थान का है। काल लोक के स्वर्ग की तुलना में सत्यलोक का स्वर्ग असँख्य गुणा अच्छा है। वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष अपरमपार है। उसकी लीला का कोई वार-पार अर्थात् सीमा नहीं है। उसका दीदार करने से (देखने से) पता चलता है कि वह ऐसा अजब (अनोखा) अर्थात् अनूप है। जिसकी तुलना करने को दूसरा नहीं है। नोट:- संत गरीबदास जी का दृष्टिकोण रहा है कि वाणी में सभी भाषाओं का समावेश किया जाए ताकि पृथ्वी के सब मानव तत्त्वज्ञान से परिचित हो सकें। इस वाणी में दीदार शब्द के साथ दर्शन शब्द भी लिखा है। दोनों का अर्थ एक ही है ‘देखना‘, दोहे में लिखा है दीदार दर्शन, यह पद्य भाग है। इसमें कोष्ठ (ठंतंबज) का प्रयोग नहीं होता। यदि गद्य भाग में कहानी की तरह लिखते समय दीदार (दर्शन) लिख सकते हैं। इससे दीदार का अर्थ ‘दर्शन‘ है, स्पष्ट हो जाता है। ‘दीदार‘ शब्द उर्दू भाषा का है और ‘दर्शन‘ शब्द हिन्दी भाषा का। इसी प्रकार ‘अजब‘ शब्द उर्दू भाषा का है जिसका अर्थ है अनोखा और ‘अनूप‘ शब्द हिन्दी भाषा का है जिसका अर्थ भी अनोखा होता है। (12)
वाणी:- घुरैं निसान अखण्ड धुन सुन, सोहं बेदी गाईये।
बाजैं नाद अगाध अग है, जहां ले मन ठहराइये।। 13
सरलार्थ:- सतलोक में निशान (झण्डे=पताका) फहरा रहे हैं तथा वहाँ पर अखण्ड (निरंतर) धुन बज रही है। हे साधक! उसको सुनकर सोहं मन्त्रा की स्तुति करना। भावार्थ है कि ‘सोहं‘ मंत्र पृथ्वी के किसी ग्रन्थ में नहीं है। यह शब्द परमात्मा कबीर जी ने पृथ्वी पर प्रकट किया है। कहा भी है कि:-
सोहं शब्द हम जग में लाए। सार शब्द हमने गुप्त छिपाए।।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2 में भी कहा है कि परमात्मा पृथ्वी पर प्रकट होकर अपनी वाणी बोलकर मानव को भक्ति करने की प्रेरणा करता है। परमेश्वर भक्ति के गुप्त नामों का आविष्कार करता है। इसलिए कहा है कि सोहं मन्त्रा के बिना साधना अधूरी थी। यदि साधक को सोहं मंत्र मिल जाता है तो साधक परमेश्वर के सतलोक में पहुँच सकता है। इसलिए सोहं नाम की बेदी (स्तुति) कीजिए कि यह न मिलता तो मोक्ष सम्भव नहीं था। उस सतलोक में और भी अनेकों नाद (शब्द) गूँज रहे हैं जो अगाद अर्थात् दुर्लभ और आगे के (सतलोक के) हैं। वहाँ पर अर्थात् उन शब्दों की आवाज पर अपने मन को रोकना। मार्ग की चकाचैंध में भ्रमित न होना। (13)
वाणी:- सुरति निरति मन पवन पलटे, बंकनाल सम कीजिए।
सरबै फूल असूल अस्थिर, अमी महारस पीजिए।।14
सरलार्थ:- उस अमर स्थान को प्राप्त करने के लिए सुरति (ध्यान की प्रक्रिया) निरति (ध्यान में वस्तु का निरीक्षण करने की प्रक्रिया) जैसे आप जी दूर स्थान पर कोई पशु देखते हैं तो सुरति ने अन्दाजा लगाया कि शायद वह पशु गाय है। फिर निकट जाने पर निरति ने निर्णय किया कि वह बैल है। सुरति ध्यान में किसी पदार्थ को देखती है, निरति निरीक्षण करती है, मन निर्णय करता है। मानव की रीढ़ की हड्डी के अंदर की ओर एक नाड़ी टेढ़ी-मेढ़ी (बांकी) है, वह रीढ़ की हड्डी के निचले सिरे से त्रिकुटी तक जाती है। कमर को सीधा करने से उसका बंक (टेढ़ापन) कम हो जाता है, अवरोध समाप्त हो जाता है। जैसे रबड़ की पाईप मुड़ जाने से तरल पदार्थ आगे नहीं जाता। सीधी करने से अवरोध समाप्त हो जाता है। इसलिए वाणी में कहा है कि बंकनाल (बंक नली) को सम् अर्थात् समकोण 90॰ के कोण पर करके सतनाम के मंत्र का जाप कर। सुरति-निरति, मन तथा पवन अर्थात् श्वांस को संसार के चिंतन से उल्टकर नाम पर केन्द्रित करके स्मरण करो। जिससे आपकी भक्ति रूपी बगीची के फूल खिल जाएंगे तथा असूल अर्थात् काँटों (दुःखों) रहित जीवन हो जाएगा। सतलोक में जन्म-मरण रहित होकर अस्थिर (स्थाई) जीवन प्राप्त होगा। फिर वहाँ पर महासुख रूपी अमी (अमृत जीवन) का महारस अर्थात् महान सुख को पीजिए अर्थात् आनन्द लीजिए। (14)
वाणी:- सप्त पुरी मेरूदण्ड खोजो, मन मनसा गह राखिये।
उड़हैं भंवर आकाश गमनं, पांच पचीसों नाखिये।। 15
सरलार्थ:- वाणी सँख्या 2 से 8 तक कहे गए सात कमलों को इस वाणी में सांकेतिक सप्तपुरी (सात नगरी) कहा है। इन सप्त पुरियों को खोजने का भावार्थ है इनको पार करना है। इसलिए मेरूदण्ड अर्थात् रीढ़ की हड्डी को मेरूदण्ड कहा है। मेरू का पूरा शब्द सुमेरू पर्वत है। वास्तव में सर्व पूर्वोक्त देवताओं की नगरियाँ (लोक) सुमेरू पर्वत पर स्थित माने गए हैं। परंतु वे नगरियाँ शरीर में बने चक्रों में दिखाई देती हैं। जब कमल (चक्र) खुल जाते हैं। ये कमल रीढ़ की हड्डी पर चिपके हैं, इसलिए रीढ़ की हड्डी को मेरूदण्ड कहा जाता है। मेरू का अर्थ है सुमेरू पर्वत तथा डण्ड का अर्थ है डण्डा अर्थात् वह वास्तविक सुमेरू पर्वत शरीर में डण्डे के समान सीधा दिखाई देता है।
उदाहरण:- जैसे टेलीविजन (T.V.) में चैनल बने हैं। कार्यक्रम दिल्ली के स्टूडियो में चलता है, दिखाई देता है बरवाला (जिला-हिसार) में टी.वी. में। प्रधानमंत्री जी भाषण दे रहे हैं मुंबई में, दिखाई दे रहे हैं ज्ण्टण् चैनल पर। ठीक इसी प्रकार शरीर को T.V. जानें तथा शरीर में बने कमलों (चक्रों) को चैनल समझें। जिस टी.वी. का जो चैनल ऑन (on) अर्थात् शुरू हो जाता है, उसी का कार्यक्रम (programme) दर्शक देखते हैं। ठीक इसी प्रकार वाणी सँख्या 15 में कहा है कि अपने शरीर के चक्रों अर्थात् चैनलों को खोजो (सर्च करो)। उसके लिए कमर सीधी करके ध्यान द्वारा शरीर में देखो। आप जी का जो कमल विकसित हो जाएगा (जो चैनल ऑन हो जाएगा) तो आप उसका नजारा देख सकोगे, कमल खुलेंगे। कमलों के मन्त्रों से जो वाणी सँख्या 2 से 5 तक बताए हैं, कुछ ओर भी हैं जो साधक को प्रथम बार दी जाने वाली दीक्षा में दिए जाते हैं। मन्त्रों का जाप करते समय तथा कमलों को खोजने के लिए अन्तर्मुख होने के समय मन मनसा (मन की कल्पनाओं) को गह राखिए अर्थात् रोककर नाम पर लगाकर रखिएगा। फिर आपका भंवर (भंवरा) अर्थात् आत्मा आकाश मण्डल में बने सतलोक की ओर नाम जाप से प्राप्त भक्ति की शक्ति से उड़कर गमन करेगा अर्थात् प्रस्थान करेगा। साधना काल में तथा सतलोक प्रस्थान के समय पाँच तत्त्व तथा इनकी 25 प्रकृति अर्थात् उन लक्षणों से बने संसारिक परिवार, अपना शरीर तथा अन्य कार- कोठी संपत्ति का मोह नाखिए अर्थात् भूल जाईये, समाप्त कर दीजिए (छोड़ दीजिए), तब ही आप ऊपर सुख स्थान पर पहुँच पाओगे। (15)
वाणी:- गगन मण्डल की सैल कर ले, बहुरि न ऐसा दाव है।
चल हंसा परलोक पठाऊॅ, भौ सागर नहीं आव है।। 16
सरलार्थ:- मानव शरीर में सत्य भक्ति करके आप आकाश में बने लोकों का भ्रमण भी कर सकते हैं। यह दाॅव अर्थात् अवसर मानव शरीर में ही प्राप्त है। फिर अन्य प्राणियों के शरीर में यह सुविधा नहीं है। हे हंस अर्थात् निर्विकार भक्त! हमारे कहे अनुसार चल अर्थात् भक्ति की साधना कर ले, तेरे को सत्यलोक में भेज दूँगा। फिर इस संसार सागर में नहीं आएगा अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो जाएगा। भावार्थ है कि गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहे परमेश्वर के उस परम धाम को प्राप्त हो जाता है जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता। (16)
वाणी:- कन्द्रप जीत उदीत जोगी, षट करमी यौह खेल है।
अनभै मालनि हार गूदें, सुरति निरति का मेल है।। 17
सरलार्थ:- कंदर्प जीत अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करके उदीत योगी बनता है। {जिस साधक का कंदर्प(शुक्राणु=वीर्य) उर्धव=ऊपर की ओर चलकर शरीर में समाने लगता है, उसको उदीत योगी कहते हैं। उसके लिए सिद्ध आसन पर बैठकर साधना करनी होती है। षट कर्म अर्थात् धोती, नेती, न्यौली, गज करनी, प्राणायाम तथा ध्यान आदि छः क्रिया करके उदीत योगी बनता है।} यह क्रियाऐं तो भक्ति मार्ग में बच्चों के खेल के तुल्य कर्म हैं। मोक्ष मार्ग तो सहज क्रियाओं (नाम स्मरण-पाँचों यज्ञों) द्वारा प्राप्त होता है। जिससे अनभय मालिन अर्थात् निर्भय हुई आत्मा हार गुदें अर्थात् सत्य मंत्रों का स्मरण सुरति-निरति अर्थात् विद्यिवत् ध्यानपूर्वक करती है। उससे परमात्मा से मिला जाता है। (17)
वाणी:- सोहं जाप अजाप थरपो, त्रिकुटी संयम धुनि लगै।
मान सरोवर न्हान हंसा, गंग् सहंस मुख जित बगै।। 18
सरलार्थ:- कमलों को छेदकर अर्थात् प्रथम दीक्षा मंत्र के जाप से कमलों का अवरोध साफ करके सत्यनाम के मंत्र का जाप करके उससे प्राप्त भक्ति शक्ति से साधक त्रिकुटी पर पहुँच जाता है। त्रिकुटी के पश्चात् ब्रह्मरंद्र को खोलना होगा जो त्रिवैणी (जो त्रिकुटी के आगे तीन मार्ग वाला स्थान है) के मध्यम भाग में है। ब्रह्मरंद्र केवल सतनाम के स्मरण से खुलता है। इसलिए कहा है कि सोहं नाम का जाप विशेष कसक के साथ जाप करने से (थरपने) ब्रह्मरंद्र खुलता है। सोहं जाप की शक्ति त्रिकुटी तथा त्रिवैणी के संजम (संगम) पर बने ब्रह्मरंद्र को खोलने की धुन अर्थात् विशेष लगन लगे तो वह द्वार खुल जाता है। हे हंस अर्थात् सच्चे भक्त! उसके पश्चात् ब्रह्म लोक में बने मानसरोवर पर स्नान करना, वहाँ से गंगा हजारों भागों में बहती है, निकलती है, अन्य लोकों में जाती है। (18)
वाणी:- कालइंद्री कुरबान कादर, अबिगत मूरति खूब है।
छत्र श्वेत विशाल लोचन, गलताना महबूब है।। 19
सरलार्थ:- ‘कालिन्द्री‘ का अर्थ यमुना दरिया भी है, परंतु यहाँ पर काल इन्द्री का अर्थ है कि परमेश्वर कबीर जी के लिए काल अर्थात् 21 ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्म जैसे तो इन्द्र जैसे हैं। जैसे काल लोक में एक ब्रह्माण्ड में एक इन्द्र का लोक है जिसके आधीन 33 करोड़ देवता हैं, इन्द्र उनका राजा है। जिस कारण से देवराज भी कहा जाता है। परंतु ब्रह्म 21 ब्रह्माण्डों का राजा है। जैसे ब्रह्म की तुलना में इन्द्र की महिमा कुछ नहीं है। इसी के आधार से संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी की उपमा की है कि उस कादिर (समर्थ) परमात्मा की शक्ति-महिमा के सामने काल ब्रह्म की महिमा उस इन्द्र के तुल्य है जो काल लोक में इन्द्र बना है। इसलिए परमेश्वर को कालइन्द्री अर्थात् काल ब्रह्म जैसे जिसके सामने इन्द्र तुल्य हैं। जैसे चार भुजा वाले को चतुर्भुजी कहते हैं। ऐसे ही परमेश्वर को कालइन्द्री कहा है। ऐसे कादिर यानि समर्थ परमात्मा पर मैं (संत गरीबदास जी) कुर्बान हूँ। उस अविगत (जिसकी गति अर्थात् स्थिति से कोई परिचित न होने से उसे अविगत कहा जाता है) परमात्मा की मूर्ति अर्थात् जीवित साकार तस्वीर खूब है अर्थात् वास्तव में परमेश्वर सुन्दर शक्ल में है। वह परमात्मा विशाल लोचन अर्थात् बड़ी-बड़ी नेत्रों वाला है, मस्त महबूब है अर्थात् आत्मा का प्रेमी है। जिस सिंहासन (तख्त) पर परमात्मा विराजमान है, उसके ऊपर सफेद छत्र लगा है। जैसे राजा-महाराजाओं के सिर पर छातानुमा चाँदी या सोने का छत्र लगाया जाता था। उसी प्रकार परमेश्वर की स्थिति आँखों देखकर संत गरीबदास जी ने बताई है। (19)
वाणी:- दिल अन्दर दीदार दर्शन, बाहर अन्त न जाइये।
काया माया कहां बपुरी, तन मन शीश चढाइये।। 20
सरलार्थ:- परमात्मा के दर्शन आप अपने हृदय में कर सकते हैं। भावार्थ है कि जिस समय आप सच्चे दिल से भक्ति करके परमात्मा को पुकारोगे तो आपको हृदय कमल में परमात्मा दर्शन देंगे क्योंकि परमात्मा सर्व कमलों में भी विद्यमान है। जैसे किसी कमरे के द्वार पर किसी पात्र में जल रखा है और द्वार के ऊपर बल्ब या ट्यूब लगी है और दिन में जग रही है। उधर से सूर्य भी उदय है तो उस पात्र में सूर्य तथा ट्यूब या बल्ब दोनों का प्रतिबिंब दिखाई देता है। ट्यूब का प्रतिबिंब तो केवल कमरे में रखे पात्र के जल में दिखाई देता है परंतु सूर्य का प्रतिबिंब बाहर व अंदर के सर्व पात्रों में दिखाई देता है। इसलिए कहा है कि परमात्मा प्राप्ति के लिए शरीर से साधना करके दर्शन कर लो। हृदय कमल में परमात्मा दिखाई देगा। शिव अलग दिखाई देगा। परमात्मा भी उसी कमल में भिन्न दिखाई देगा। कहीं अन्य स्थानों-तीर्थों आदि पर न जाईये। परमात्मा प्राप्ति के लिए शरीर तो क्या वस्तु है, सर्वस्व अर्पण कर दो। (20)
वाणी:- अबिगत आदि जुगादि जोगी, सत पुरुष ल्यौलीन है।
गगन मंडल गलतान गैबी, जात अजात बेदीन है।21
सरलार्थ:- सत्यपुरूष परमात्मा गगन मण्डल अर्थात् आकाश में बने सतलोक में रहता है, वह आदि से ही विद्यमान है। वही सच्चा जोगी अर्थात् साधु-बाबा है जो तत्त्वज्ञान देने के लिए पृथ्वी पर आता है। (21)
वाणी:- सुखसागर रतनागर निर्भय, निज मुखबानी गावहीं।
झिन आकर अजोख निर्मल, दृष्टि मुष्टि नहीं आवहीं। 22
सरलार्थ:- परमेश्वर सुख रूपी रत्नों का आगार अर्थात् डिपो (खान) है। इसलिए सुख सागर कहा जाता है। वह वास्तव में निर्भय है और अपने निजी मुख कमल से तत्त्वज्ञान की वाणी कविताओं, भजनों, चैपाईयों, दोहों को राग बनाकर गाता है। उस परमात्मा का सूक्ष्म आकार है। जिस कारण से चर्मदृष्टि से नहीं दिखता। उस परमात्मा का सूक्ष्म शरीर अजोख अर्थात् जिसको कोई जोखिम (खतरा) नहीं है, उनका शरीर नष्ट नहीं होता। उनका शरीर अविनाशी है, निर्मल है अर्थात् निर्विकार है। (22)
वाणी:- झिल मिल नूर जहूर जोति, कोटि पद्म उजियार है।
उल्ट नैन बेसुन्य बिस्तर, जहाॅ तहाॅ दीदार है।।23
सरलार्थ:- उस परमेश्वर का शरीर झिलमिल-झिलमिल करता है। उसके नूर (प्रकाश) का जहूर (नजारा) तथा ज्योति करोड़ पद्मों के प्रकाश के तुल्य प्रकाश है। जैसे श्री कृष्ण जी के पैर में एक पद्म था। उसका प्रकाश सौ (100) वाॅट के बल्ब जितना था। परमात्मा के शरीर की ज्योति दूर से करोड़ों पद्मों जैसी दिखाई देती है। उसको देखने के लिए अपने नैनों (नेत्रों) को संसार से उल्टकर (हटाकर) ऊपर उस सुन्न रूप आकाश में लगा जहाँ परमात्मा का बिस्तर अर्थात् पलंग है और उस पर बिछौना बिछा है। वहाँ उस परमेश्वर का वास्तविक दर्शन होता है। जिसके एक रोम अर्थात् शरीर के बाल का प्रकाश करोड़ों सूर्यों तथा करोड़ों चन्द्रमाओं से भी अधिक है। (23)
वाणी:- अष्ट कमल दल सकल रमता, त्रिकुटी कमल मध्य निरख हीं।
स्वेत ध्वजा सुन्न गुमट आगै, पचरंग झण्डे फरक हीं।।24
सरलार्थ:- जैसे वाणी सँख्या 20 के सरलार्थ में स्पष्ट किया कि कमरे का बल्ब तो केवल कमरे में रखे पात्रों के जल में ही दिखाई देता है। परंतु सूर्य कमरे के अंदर तथा बाहर भी जल में दिखाई देता है। उसी का प्रमाण इस वाणी सँख्या 24 में स्पष्ट किया है कि एक आठवाँ कमल दल (समूह) है जो काल के लोकों से बाहर अक्षर पुरूष पर ब्रह्म के लोक में है। उसमें भी परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) है। इसके साथ-साथ सकल अर्थात् सर्व स्थानों पर उसकी सत्ता है। उसको त्रिकुटी कमल में भी देखा जाता है। सुन्न अर्थात् आकाश में सुन्न स्थान वाले सतलोक में परमात्मा के गुमट (स्तूप) के ऊपर सफेद (ॅीपजम) ध्वजा फरक रही है, लहरा रही है। उस गुम्बजनुमा महल में परमेश्वर सिहांसन (तख्त) पर विराजमान है। उस गुम्बज के आगे मैदान में ऊँचे स्तंभ पर पाँच रंग का झंडा अलग से फरक रहा है। (24)
वाणी:- सुन्न मंडल सतलोक चलिये, नौ दर मुंद बिसुन्न है।
दिव्य चिसम्यों एक बिम्ब देख्या, निज श्रवण सुनिधुनि है।। 25
सरलार्थ:- ऊपर सुन्न रूप आकाश में बने सतलोक में चलो, उसके लिए बाहर के नौ दर (द्वारों) को मूंदकर (बंद करके) दिव्य चिसम्यों (नेत्रों) से एक बिम्ब अर्थात् चमकता चेहरा देखा। अपने कानों से सतलोक की धुन अर्थात् शब्द की आवाज सुनी है। (25)
{नौ दर द्वार हैं। दो नाक के छिद्र, दो आँखें, दो कान, मुख, गुदा तथा पेशाब द्वार कुल नौ द्वार हैं। दसवां सुष्मणा द्वार है जो दोनों नाकों इड़ा (बायें नाक का छिद्र) तथा पिंगला (दायें नाक का छिद्र) इनके मध्य सुष्मणा द्वार है।}
वाणी:- चरण कमल में हंस रहते, बहुरंगी बरियाम हैं।
सूक्ष्म मूरति श्याम सूरति, अचल अभंगी राम हैं।। 26
सरलार्थ:- उस परमेश्वर के चरण कमलों में अर्थात् उनके लोक में (उनकी शरण में) हंस (निर्विकार भक्तजन) रहते हैं। वह परमात्मा बहुत भांति से बरियाम अर्थात् श्रेष्ठ है, महिमा करने योग्य है। वह सूक्ष्म मूर्ति अर्थात् स्वरूप में श्याम सुरति है। यहाँ पर शाम सुरति है, जिसका अर्थ है कि शाम के समय सूर्य का प्रकाश धीमा रहता है। उसी प्रकार जब परमात्मा पृथ्वी लोक में आता है तो उनके शरीर का तेज हल्का रहता है। इसलिए श्याम (शाम) सुरति (स्वरूप) कहा है। वह परमात्मा अचल अर्थात् कभी न चलने वाला, सदा रहने वाला है। अभंगी जो कभी भंग न हो, कभी टूटे ना अर्थात् जिसका किसी समय में विनाश न हो अर्थात् अविनाशी राम है। (26)
वाणी:- नौ सुर बन्ध निसंक खेलो, दसमें दर मुखमूल है।
माली न कुप अनूप सजनी, बिन बेली का फूल है।। 27
सरलार्थ:- भक्त को हिदायत दी है कि नौ सुर (जो शरीर में नौ सुराख हैं जैसे - दो नाक, दो कान, दो आँखें, एक मुख, पेशाब इन्द्री तथा मल द्वार, ये नौ सुराख नौ द्वार कहे हैं।) को बंद करके अर्थात् इनसे हटकर दसवाँ द्वार (सुषमणा द्वार) है। उस दसवें द्वार में मुख अर्थात् मुख्य मूल अर्थात् मोक्ष की जड़ें हैं। वहाँ से ऊपर की कठिन चढ़ाई प्रारम्भ होती है। हे सजनी (सखी) अर्थात् आत्मा! सतलोक में न कोई माली अर्थात् बाग लगाने वाला तथा ना सिंचाई के लिए कूप (कूंआ) है क्योंकि जिस समय यह वाणी संत गरीबदास जी ने बोली थी (सन् 1730 से 1778 तक) उस समय उस क्षेत्र में सिंचाई कुओं से होती थी। सतलोक में अपने आप प्रभु कृपा से बाग लगे हैं। सिंचाई भी अपने आप होती रहती है। सतपुरूष किसी माता से नहीं जन्मा है, वह बिन बेल का फूल है अर्थात् अजन्मा है। (27)
वाणी:- स्वांस उस्वांस पवन कुं पलटै, नाग फुनी कुं भूंच है।
सुरति निरति का बांध बेड़ा, गगन मण्डल कुं कूंच है।। 28
सरलार्थ:- श्वांस जो बाहर छोड़ते हैं तथा उश्वांस जो अन्दर लेते हैं, इस विधि से जो नाम के जाप को करके वायु को अर्थात् श्वांस को सूक्ष्म करके नागफनी अर्थात् सर्पनुमा नाड़ी जो नाभि के चारों ओर 2) लपेटे लगाए है, उसको ढ़ीला (स्ववेम) करना है। तब ऊपर चलने का मार्ग मिलता है। फिर सतनाम का श्ंवास से स्मरण करता है, आकाश में बने सतलोक की ओर प्रस्थान करना होता है। सुरति-निरति का बेड़ा बाँधने का अभिप्राय है कि सतनाम का जाप श्वांस से मन तथा सुरति-निरति का समूह बनाकर करने को बेड़ा बाँधना कहा है। पुराने समय में दरिया को पार करने के लिए सुखी लकड़ियों को इकट्ठा करके लगभग 20 फुट लंबा तथा 10 फुट चैड़ा बेड़ा बनाते थे, दरिया में डालकर उसके ऊपर बैठकर नदी को पार करते थे। उसी का प्रमाण देकर कहा है कि आत्मा भव सागर से पार होने के लिए सुरति-निरति, मन तथा पवन (श्वांस) को इकट्ठा करके बेड़ा बाँध ले। भावार्थ है कि स्मरण करते समय मन, सुरति, निरति और श्वांस मन्त्रा के जाप पर लगी रहे। ऐसा स्मरण सफल होता है। मन कहीं गया है, श्वांस चल रहा है, माला हाथ में चल रही है, यह स्मरण सफल नहीं होता। (28)
परमेश्वर कबीर जी ने भी कहा है:-
कबीर, माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहीं।
मनवा तो दशों दिशा फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं।।
वाणी:- सुन ले जोग विजोग हंसा, शब्द महल कुं सिद्ध करो।
योह गुरुज्ञान विज्ञान बानी, जीवत ही जग में मरो।। 29
सरलार्थ:- हे हंस अर्थात् भक्त! ध्यान से जोग अर्थात् सामान्य साधना तथा विजोग अर्थात् विशेष साधना दोनों को सुन, इनमें शब्द (नाम) महल अर्थात् सम्पूर्ण मंत्रों के समूह को सिद्ध करो। भावार्थ है कि मन को संसारिक विषय विकारों से हटाकर नाम-स्मरण पर लगाकर अभ्यास करके साध ले। मन का स्वभाव बदल ले। यह है गुरू ज्ञान और विज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान की वाणी अर्थात् वचन और जीवित ही जग में मर ले। जीवित जग में मरने का भाव है कि मन की कल्पनाओं को रोककर इच्छाओं का दमन कर। जैसे व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो जाती है, उसके मन की सारी योजना फैल हो जाती है। साधक पहले से ही यह धारणा बनाकर संसार में निर्वाह करता है, लम्बी-चैड़ी योजनाऐं न बनाकर इच्छाओं को सीमित रखता है। वह यह विचार करके सत्संग में जाता है कि मान लें मेरी आज मृत्यु हो जाती तो भी घर, आॅफिस (कार्यालय) का कार्य नहीं कर सकते थे। इसलिए मान लें हमारी मृत्यु हो गई, हम चले सत्संग में। तीन-चार दिन के लिए जीवित मर गए। विचार करें मृत्यु तो किसी की भी कभी भी हो सकती है, तब भी कार्य से सब्र करना पड़ता है। सर्व कार्य सदा के लिए छूट जाता है। वह हानि भी हो जाती है जो मरने वाले की कमाई (मेहनत-व्यापार) न करने से होनी है। उसकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो सकती। जो भक्त जीवित मरकर सत्संग में तीन-चार दिन के लिए गया था। उसके अभाव में तीन-चार दिन में जो व्यवसाय में हानि होनी थी, उसकी क्षतिपूर्ति तो वह फिर से कर सकता है क्योंकि वह परमानेंट नहीं मरा है, वह तो जीवित मरा है। वैसे तो भक्तों के सत्संग में जाने से कभी हानि नहीं होती, लाभ ही होता है। इसको कहते हैं जीवित मरना। संत गरीबदास जी ने कहा है कि गुरूजी द्वारा बताए ज्ञान तथा तत्त्वज्ञान का सारांश यह है कि यदि भक्ति करना तथा मोक्ष पाना चाहता है तो जीवित मर ले। (29)
प्रिय पाठको! यह है यथार्थ काया पाँजी बोध का सारांश है और जो कबीर सागर में पृष्ठ 173 से 179 तक है, वह मिलावटी तथा कांट-छांट किया गया है। उस पर ध्यान न दें।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘काया पांजी‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।