अध्याय लक्ष्मण बोध का सारांश

अध्याय ‘‘लक्ष्मण बोध‘‘ का सारांश

वास्तव में यह ‘‘जगन्नाथ मंदिर की स्थापना‘‘ का बोध है।

कबीर सागर में लक्ष्मण बोध 13वां अध्याय पृष्ठ 141 पर है।

विशेष विवेचन:- इस अध्याय में जगन्नाथ के मंदिर की स्थापना कैसे हुई, यह ज्ञान (बोध) है। लक्ष्मण तथा रामचन्द्र का प्रकरण वैसे ही मिला रखा है। यह काल प्रेरित कबीर पंथियों की अज्ञानता का प्रमाण है। इसमें धर्मदास जी ने प्रश्न किया कि हे प्रभु! जगन्नाथ के मंदिर में छूआछात प्रारम्भ से ही नहीं है। इसका क्या राज है? परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि इसके लिए आप जगन्नाथ के मंदिर की पुरी में स्थापना कैसे हुई? यह सुनो।

जगन्नाथ मंदिर की पुरी (उड़ीसा) में स्थापना

जिस समय दुर्वासा ऋषि के शाॅप से 56 करोड़ यादव आपस में लड़कर गए। कुछ शेष बचे थे, वे श्री कृष्ण जी ने मूसलों से मार डाले। बलभद्र (बलराम) शेष नाग का अवतार था। मृत्यु के पश्चात् सर्प रूप बनाकर यमुना नदी में प्रवेश कर गया। श्री कृष्ण जी वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए लेट गए। एक बालीया नाम के भील शिकारी ने श्री कृष्ण के पैर में लगे पदम को हिरण की आँख जानकर वृक्ष की झुरमटों के अंदर से विषाक्त तीर मार दिया। जिस कारण श्री कृष्ण जी की मृत्यु हुई। मृत्यु से पहले श्री कृष्ण जी से उस शिकारी ने क्षमा याचना की तथा कहा हे राजन! मेरे से धोखे से तीर लग गया। मैंने जान-बूझकर नहीं मारा। श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह तेरा और मेरा पिछले जन्म का बदला था, सो आपने पूरा कर लिया। आप त्रोतायुग में सुग्रीव के भाई बाली थे। उस समय मैं रामचन्द्र रूप में जन्मा था। मैंने आपको वृक्ष की ओट लेकर मारा था। आज आपने मुझे वृक्ष की ओट से ही मारा है। मैं कुछ समय का मेहमान हूँ। एक कार्य कर दे, मेरे रिश्तेदार पाण्डवों को संदेशा भेज दो कि यादव आपस में लड़कर मर रहे हैं, शीघ्र आओ। जब अर्जुन तथा युधिष्ठर आदि पाँचों पाण्डव पहुँच गए तो श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मेरे शरीर को जलाकर इसकी राख को काष्ठ की पेटी यानि सन्दूक बनवाकर उसमें डालकर पूर्ण रूप से बंद कर देना और समुद्र में बहा देना। ऐसा ही किया गया। कुछ समय पर्यन्त वह पेटी बहकर उड़ीसा में पुरी के पास समुद्र के किनारे पहुँच गई। उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था जो श्री कृष्ण जी का परम भक्त था। श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन दिए तथा बताया कि मेरे शरीर की राख एक काष्ठ की संदूक में डालकर द्वारका में समुद्र में बहाई थी। वह पेटी अब पुरी में अमूक स्थान पर बहकर आ गई है। समुद्र के किनारे लगी है। उसको निकालकर वहीं समुद्र के किनारे जगन्नाथ नाम से मंदिर बनवा दे। राजा ने सुबह उठकर स्वपन को अपनी पत्नी तथा मुख्य मंत्रियों तथा सलाहकारों को बताया। सब मिलकर उस स्थान पर गए तो वहाँ पर वह संदूक मिली। सबको विश्वास हो गया और शीघ्र ही जगन्नाथ जी के मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया। अब पढ़ें सम्पूर्ण कथा:-

उड़ीसा प्रांत में एक इन्द्रदमन नाम का राजा था। वह भगवान श्री कृष्ण जी का अनन्य भक्त था। एक रात्रि को श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन देकर कहा कि समुद्र के किनारे मेरे शरीर की राख एक काष्ठ की पेटी (सन्दूक) में बंद है। उसी किनारे पर राख के ऊपर जगन्नाथ नाम से मेरा एक मन्दिर बनवा दे। श्री कृष्ण जी ने यह भी कहा था कि इस मन्दिर में मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल एक संत छोड़ना है जो दर्शकों को पवित्रा गीता अनुसार ज्ञान प्रचार करे। समुद्र तट पर वह स्थान भी दिखाया जहाँ मन्दिर बनाना था। सुबह उठकर राजा इन्द्रदमन ने अपनी पत्नी को बताया कि आज रात्रि को भगवान श्री कृष्ण जी दिखाई दिए। मन्दिर बनवाने के लिए कहा है। रानी ने कहा शुभ कार्य में देरी क्या? सर्व सम्पत्ति उन्हीं की दी हुई है। उन्हीं को समर्पित करने में क्या सोचना है? राजा ने उस स्थान पर मन्दिर बनवा दिया जो श्री कृष्ण जी ने स्वपन में समुद्र के किनारे पर दिखाया था। मन्दिर बनने के बाद समुद्री तुफान उठा, मन्दिर को तोड़ दिया। निशान भी नहीं बचा कि यहाँ मन्दिर था। ऐसे राजा ने पाँच बार मन्दिर बनवाया। पाँचों बार समुद्र ने तोड़ दिया।

राजा ने निराश होकर मन्दिर न बनवाने का निर्णय ले लिया। यह सोचा कि न जाने समुद्र मेरे से कौन-से जन्म का प्रतिशोध ले रहा है। कोष रिक्त हो गया, मन्दिर बना नहीं। कुछ समय उपरान्त पूर्ण परमेश्वर (कविर्देव) ज्योति निरंजन (काल) को दिए वचन अनुसार राजा इन्द्रदमन के पास आए तथा राजा से कहा आप मन्दिर बनवाओ। अब के समुद्र मन्दिर (महल) नहीं तोड़ेगा। राजा ने कहा संत जी मुझे विश्वास नहीं है। मैं भगवान श्री कृष्ण (विष्णु) जी के आदेश से मन्दिर बनवा रहा हूँ। श्री कृष्ण जी समुद्र को नहीं रोक पा रहे हैं। पाँच बार मन्दिर बनवा चुका हूँ, यह सोच कर कि कहीं भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हों। परन्तु अब तो परीक्षा देने योग्य भी नहीं रहा हूँ क्योंकि कोष भी रिक्त हो गया है। अब मन्दिर बनवाना मेरे वश की बात नहीं। परमेश्वर ने कहा इन्द्रदमन जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डांे की रचना की है, वही सर्व कार्य करने में सक्षम है, अन्य प्रभु नहीं। मैं उस परमेश्वर की वचन शक्ति प्राप्त हूँ। मैं समुद्र को रोक सकता हूँ (अपने आप को छुपाते हुए कह रहे थे)। राजा ने कहा कि संत जी मैं नहीं मान सकता कि श्री कृष्ण जी से भी कोई प्रबल शक्ति युक्त प्रभु है। जब वे ही समुद्र को नहीं रोक सके तो आप कौन से खेत की मूली हो। मुझे विश्वास नहंी होता तथा न ही मेरी वित्तीय स्थिति मन्दिर (महल) बनवाने की है। संत रूप में आए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा राजन् यदि मन्दिर बनवाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना मैं अमूक स्थान पर रहता हूँ। अब के समुद्र मन्दिर को नहीं तोड़ेगा। यह कह कर प्रभु चले आए। उसी रात्रि में प्रभु श्री कृष्ण जी ने फिर राजा इन्द्रदमन को दर्शन दिए तथा कहा इन्द्रदमन एक बार फिर महल बनवा दे। जो तेरे पास संत आया था उससे सम्पर्क करके सहायता की याचना कर ले। वह ऐसा वैसा संत नहीं है। उसकी भक्ति शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। राजा इन्द्रदमन नींद से जागा, स्वपन का पूरा वृतान्त अपनी रानी को बताया। रानी ने कहा प्रभु कह रहे हैं तो आप मत चूको। प्रभु का महल फिर बनवा दो। रानी की सद्भावना युक्त वाणी सुन कर राजा ने कहा अब तो कोष भी खाली हो चुका है। यदि मन्दिर नहीं बनवाऊंगा तो प्रभु अप्रसन्न हो जायेंगे। मैं तो धर्म संकट में फँस गया हूँ। रानी ने कहा मेरे पास गहने रखे हैं। उनसे आसानी से मन्दिर बन जायेगा। आप यह गहने लो तथा प्रभु के आदेश का पालन करो, यह कहते हुए रानी ने सर्व गहने जो घर रखे थे तथा जो पहन रखे थे निकाल कर प्रभु के निमित अपने पति के चरणों में समर्पित कर दिये। राजा इन्द्रदमन उस स्थान पर गया जो परमेश्वर कबीर जी ने बताया था। कबीर प्रभु अर्थात् अपरिचित संत को खोज कर समुद्र को रोकने की प्रार्थना की। प्रभु कबीर जी ने कहा कि जिस तरफ से समुद्र उठ कर आता है, वहाँ समुद्र के किनारे एक चैरा (चबूतरा) बनवा दे। जिस पर बैठ कर मैं प्रभु की भक्ति करूँगा तथा समुद्र को रोकूँगा। राजा ने एक बड़े पत्थर को कारीगरों से चबूतरा जैसा बनवाया, परमेश्वर कबीर उस पर बैठ गए। छठी बार मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ। उसी समय एक नाथ परम्परा के सिद्ध महात्मा आ गए। नाथ जी ने राजा से कहा राजा बहुत अच्छा मन्दिर बनवा रहे हो, इसमें मूर्ति भी स्थापित करनी चाहिए। मूर्ति बिना मन्दिर कैसा? यह मेरा आदेश है। राजा इन्द्रदमन ने हाथ जोड़ कर कहा नाथ जी प्रभु श्री कृष्ण जी ने मुझे स्वपन में दर्शन दे कर मन्दिर बनवाने का आदेश दिया था तथा कहा था कि इस महल में न तो मूर्ति रखनी है, न ही पाखण्ड पूजा करनी है। राजा की बात सुनकर नाथ ने कहा स्वपन भी कोई सत्य होता है। मेरे आदेश का पालन कीजिए तथा चन्दन की लकड़ी की मूर्ति अवश्य स्थापित कीजिएगा। यह कह कर नाथ जी बिना जल पान ग्रहण किए उठ गए। राजा ने डर के मारे चन्दन की लकड़ी मंगवाई तथा कारीगर को मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया। एक मूर्ति श्री कृष्ण जी की स्थापित करने का आदेश श्री नाथ जी का था। फिर अन्य गुरुओं-संतों ने राजा को राय दी कि अकेले प्रभु कैसे रहेंगे? वे तो श्री बलराम को सदा साथ रखते थे। एक ने कहा बहन सुभद्रा तो भगवान श्री कृष्ण जी की लाड़ली बहन थी, वह कैसे अपने भाई बिना रह सकती है? तीन मूर्तियाँ बनवाने का निर्णय लिया गया। तीन कारीगर नियुक्त किए। मूर्तियाँ तैयार होते ही टुकड़े-टुकड़े हो गई। ऐसे तीन बार मूर्तियाँ खण्ड हो गई। राजा बहुत चिन्तित हुआ। सोचा मेरे भाग्य में यह यश व पुण्य कर्म नहीं है। मन्दिर बनता है वह टूट जाता है। अब मूर्तियाँ टूट रही हैं। नाथ जी रूष्ट हो कर गए हैं। यदि कहूँगा कि मूर्तियाँ टूट जाती हैं तो सोचेगा कि राजा बहाना बना रहा है, कहीं मुझे शाॅप न दे दे। चिन्ता ग्रस्त राजा न तो आहार कर रहा है, न रात्रि भर निन्द्रा आई। सुबह बेचैन अवस्था में राज दरबार में गया। उसी समय पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) कबीर प्रभु एक अस्सी वर्षीय कारीगर का रूप बनाकर राज दरबार में उपस्थित हुआ। कमर पर एक थैला लटकाए हुए था जिसमें आरी बाहर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, मानों बिना बताए कारीगर का परिचय दे रही थी तथा अन्य बसोला व बरमा आदि थेले में भरे थे। कारीगर वेश में प्रभु ने राजा से कहा मैंने सुना है कि प्रभु के मन्दिर के लिए मूर्तियाँ पूर्ण नहीं हो रही हैं। मैं 80 वर्ष का
वृद्ध हो चुका हूँ तथा 60 वर्ष का अनुभव है। चन्दन की लकड़ी की मूर्ति प्रत्येक कारीगर नहीं बना सकता। यदि आपकी आज्ञा हो तो सेवक उपस्थित है। राजा ने कहा कारीगर आप मेरे लिए भगवान ही कारीगर बन कर आये लगते हो। मैं बहुत चिन्तित था। सोच ही रहा था कि कोई अनुभवी कारीगर मिले तो समस्या का समाधान बने। आप शीघ्र मूर्तियाँ बना दो। वृद्ध कारीगर रूप में आए कबीर प्रभु ने कहा राजन! मुझे एक कमरा दे दो, जिसमें बैठकर प्रभु की मूर्ति तैयार करूंगा। मैं अंदर से दरवाजा बंद करके स्वच्छता से मूर्ति बनाऊंगा। ये मूर्तियां जब तैयार हो जायेंगी तब दरवाजा खुलेगा, यदि बीच में किसी ने खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनेगी उतनी ही रह जायेंगी। राजा ने कहा जैसा आप उचित समझो वैसा करो।

बारह दिन मूर्तियाँ बनाते हो गए तो नाथ जी आ गए। नाथ जी ने राजा से पूछा इन्द्रदमन मूर्तियाँ बनाई क्या? राजा ने कर बद्ध हो कर कहा कि आपकी आज्ञा का पूर्ण पालन किया गया है महात्मा जी। परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मूर्तियाँ बन नहीं पा रही हैं। आधी बनते ही टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं नौकरों से मूर्तियों के टुकड़े मंगवाकर नाथ जी को विश्वास दिलाने के लिए दिखाए। नाथ जी ने कहा कि मूर्ति अवश्य बनवानी है। अब बनवाओं मैं देखता हूँ कैसे मूर्ति टूटती है। राजा ने कहा नाथ जी प्रयत्न किया जा रहा है। प्रभु का भेजा एक अनुभवी 80 वर्षीय कारीगर बन्द कमरें में मूर्ति बना रहा है। उसने कहा है कि मूर्तियाँ बन जाने पर मैं अपने आप द्वार खोल दूंगा। यदि किसी ने बीच में द्वार खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनी होंगी उतनी ही रह जायेंगी। आज उसे मूर्ति बनाते बारह दिन हो गये। न तो बाहर निकला है, न ही जल पान तथा आहार ही किया है। 
नाथ जी ने कहा कि मूर्तियाँ देखनी चाहिये, कैसी बना रहा है? बनने के बाद क्या देखना है। ठीक नहीं बनी होंगी तो ठीक बनाऐंगे। यह कहकर नाथ जी राजा इन्द्रदमन को साथ लेकर उस कमरे के सामने गए जहाँ मूर्ति बनाई जा रही थी तथा आवाज लगाई कारीगर द्वार खोलो। कई बार कहा परन्तु द्वार नहीं खुला तथा जो खट-खट की आवाज आ रही थी, वह भी बन्द हो गई। नाथ जी ने कहा कि 80 वर्षीय वृद्ध बता रहे हो, बारह दिन खाना-पिना भी नहीं किया है। अब आवाज भी बंद है, कहीं मर न गया हो। धक्का मार कर दरवाजा तोड़ दिया, देखा तो तीन मूर्तियाँ रखी थी, तीनों के हाथ के व पैरों के पंजे नहीं बने थे। कारीगर अन्तध्र्यान था।

मन्दिर बन कर तैयार हो गया और चारा न देखकर अपने हठ पर अडिग नाथ जी ने कहा ऐसी ही मूर्तियों को स्थापित कर दो, हो सकता है प्रभु को यही स्वीकार हो, लगता है श्री कृष्ण ही स्वयं मूर्तियां बना कर गए हैं।

मुख्य पांडे ने शुभ मूहूर्त निकाल कर अगले दिन ही मूर्तियों की स्थापना कर दी। सर्व पाण्डे तथा मुख्य पांडा व राजा तथा सैनिक व श्रद्धालु मूर्तियों में प्राण स्थापना करने के लिए चल पड़े। पूर्ण परमेश्वर कबीर जी एक शुद्र का रूप धारण करके मन्दिर के मुख्य द्वार के मध्य में मन्दिर की ओर मुख करके खड़े हो गए। ऐसी लीला कर रहे थे मानों उनको ज्ञान ही न हो कि पीछे से प्रभु की प्राण स्थापना की सेना आ रही है। आगे-आगे मुख्य पांडा चल रहा था। परमेश्वर फिर भी द्वार के मध्य में ही खड़े रहे। निकट आ कर मुख्य पांडे ने शुद्र रूप में खड़े परमेश्वर को ऐसा धक्का मारा कि दूर जा कर गिरे तथा एकान्त स्थान पर शुद्र लीला करते हुए बैठ गए। राजा सहित सर्व श्रद्धालुओं ने मन्दिर के अन्दर जा कर देखा तो सर्व मूर्तियाँ उसी द्वार पर खड़े शुद्र रूप परमेश्वर का रूप धारण किए हुए थी। इस कौतूक को देखकर उपस्थित व्यक्ति अचम्भित हो गए। मुख्य पांडा कहने लगा प्रभु क्षुब्ध हो गया है क्योंकि मुख्य द्वार को उस शुद्र ने अशुद्ध कर दिया है। इसलिए सर्व मूर्तियों ने शुद्र रूप धारण कर लिया है। बड़ा अनिष्ट हो गया है। कुछ समय उपरान्त मूर्तियों का वास्तविक रूप हो गया। गंगा जल से कई बार स्वच्छ करके प्राण स्थापना की गई। {कबीर प्रभु ने कहा अज्ञानता व पाखण्ड वाद की चरम सीमा देखें। कारीगर मूर्ति का भगवान बनता है। फिर पूजारी या अन्य संत उस मूर्ति रूपी प्रभु में प्राण डालता है अर्थात् प्रभु को जीवन दान देता
है। तब वह मिट्टी या लकड़ी का प्रभु कार्य सिद्ध करता है, वाह रे पाखण्डियों खूब मूर्ख बनाया प्रभु प्रेमी आत्माओं को।}

मूर्ति स्थापना हो जाने के कुछ दिन पश्चात् लगभग 40 फूट ऊँचा समुद्र का जल उठा जिसे समुद्री तुफान कहते हैं तथा बहुत वेग से मन्दिर की ओर चला। सामने कबीर परमेश्वर चैरा (चबुतरे) पर बैठे थे। अपना एक हाथ उठाया जैसे आशीर्वाद देते हैं, समुद्र उठा का उठा रह गया तथा पर्वत की तरह खड़ा रहा, आगे नहीं बढ़ सका। विप्र रूप बना कर समुद्र आया तथा चबूतरे पर बैठे प्रभु से कहा कि भगवन आप मुझे रास्ता दे दो, मैं मन्दिर तोड़ने जाऊंगा। प्रभु ने कहा कि यह मन्दिर नहीं है। यह तो महल (आश्रम) है। इसमें विद्वान पुरुष रहा करेगा तथा पवित्र गीता जी का ज्ञान दिया करेगा। आपका इसको विध्वंश करना शोभा नहीं देता। समुद्र ने कहा कि मैं इसे अवश्य तोडँूगा। प्रभु ने कहा कि जाओ कौन रोकता है? समुद्र ने कहा कि मैं विवश हो गया हूँ। आपकी शक्ति अपार है। मुझे रास्ता दे दो प्रभु। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? विप्र रूप में उपस्थित समुद्र ने कहा कि जब यह श्री कृष्ण जी त्रोतायुग में श्री रामचन्द्र रूप में आया था तब इसने मुझे अग्नि बाण दिखा कर बुरा भला कह कर अपमानित करके रास्ता मांगा था। मैं वह प्रतिशोध लेने जा रहा हूँ।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि प्रतिशोध तो आप पहले ही ले चुके हो। आपने द्वारिका को डूबो रखा है। समुद्र ने कहा कि अभी पूर्ण नहीं डूबा पाया हूँ, आधी रहती है। वह भी कोई प्रबल शक्ति युक्त संत सामने आ गया था जिस कारण से मैं द्वारिका को पूर्ण रूपेण नहीं समा पाया। अब भी कोशिश करता हूँ तो उधर नहीं जा पा रहा हूँ। उधर से मुझे बांध रखा है।

तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा वहाँ भी मैं ही पहुँचा था। मैंने ही वह अवशेष बचाया था। अब जा शेष बची द्वारिका को भी निगल ले, परन्तु उस यादगार को छोड़ देना, जहाँ श्री कृष्ण जी के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया था। {श्री कृष्ण जी के अन्तिम संस्कार स्थल पर बहुत बड़ा मन्दिर बना दिया गया। यह यादगार प्रमाण बना रहेगा कि वास्तव में श्री कृष्ण जी की मृत्यु हुई थी तथा पंच भौतिक शरीर छोड़ गये थे। नहीं तो आने वाले समय में कहेंगे कि श्री कृष्ण जी की तो मृत्यु ही नहीं हुई थी। अंतिम संस्कार स्थल से राख उठाकर संदूक (लकड़ी की पेटी) में बंद करके समुद्र में पाण्डवों ने बहा दी थी।} आज्ञा प्राप्त कर शेष द्वारिका को भी समुद्र ने डूबो लिया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा अब आप आगे से कभी भी इस जगन्नाथ मन्दिर को तोड़ने का प्रयत्न नहीं करना तथा इस महल से दूर चला जा। ऐसी आज्ञा प्रभु की मान कर प्रणाम करके मन्दिर से दूर लगभग डेढ़ किलोमीटर हट गया। ऐसे श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम स्थापित हुआ।

Sat Sahib