अध्याय मुक्ति बोध का सारांश

अध्याय ‘‘मुक्ति बोध‘‘ का सारांश

कबीर सागर में 20वां अध्याय ‘‘मुक्ति बोध‘‘ पृष्ठ 63 पर है। पृष्ठ 63 पर आदिनाम की महिमा है।

(कबीर) साखी, पद बोलें बहु बानी। आदि नाम कोई बिरला जानी।।
आदि नाम निज सार है, बूझ लियो हो हंस। जिन जाना निज नाम को, अमर भये ते वंश।।
आदि नाम निज मंत्रा है, और मंत्रा सब छार। कहे कबीर निज नाम बिना, बूड़ मरा संसार।।

मुक्ति बोध पृष्ठ 64 का सारांश:-

आदिनाम निःअक्षर सांचा। जाते जीव काल सों बाचा।।
निःअक्षर धुन जहवां होई। ताहि जपे नर बिरला होई।।
जाके बल आवे संसारा। ताहि जपे नर हो भव पारा।।
गुप्त नाम गुरू बिन नहिं पावे। पूरा गुरू हो सोइ लखावे।।
सार मंत्रा लखे जो कोई। विषधर मंडवा निर्मल होई।।
आदि नाम मुक्तामणि सांचा। जो सुमरे जिव सबसों बाचा।।
आदि नाम निज सार है भाई। जमराजा तेहि निकट न आई।।
जब लग गुप्त जाप नहीं जाने। तब लग काल हटा नहिं माने।।
गुप्त जाप ध्वनि जहंवा होई। जो जन जाने बिरला कोई।।
मूल मंत्रा जेहि पुरूष के पासा। सोई जनको खोज ले दासा।।
सार मन्त्रा मूल है औ सब साखा। कहैं कबीर मैं निज के भाखा।।
लिखो न जाय कहै को पारा। है अक्षर में जो पावै निरबारा।।
लिखो न जाय लिखा में नाहीं। गुरू बिन भेंट न होवे ताहीं।।

भावार्थ:- उपरोक्त वाणी जो पृष्ठ 63-64 पर लिखी है। उनका भावार्थ है कि साखी तथा शब्द आदि बहुत संत गाते हैं, समझाते हैं, परंतु आदिनाम यानि सार शब्द कोई बिरला ही जानता है। आदि नाम मोक्ष का खास मंत्रा है। अन्य मंत्रा सब राख हैं। मोक्षदायक न होने से व्यर्थ हैं। आदिनाम ही निज मंत्रा है। उसके जाप बिना सर्व प्राणी डूब मरे हैं यानि संसार के जन्म-मरण के जाल में फँसे हैं, कष्ट उठा रहे हैं। आदि नाम कहो, उसे निरक्षर कहो, यह सच्चा नाम है। इसी से काल से बचा जा सकता है। निःअक्षर यानि सारशब्द के जाप से स्मरण करते समय जो अंदर आवाज होती है, स्मरण करते समय उस पर ध्यान रखना चाहिए। ऐसे कोई बिरला ही जाप करता है। भावार्थ है कि सार शब्द के स्मरण की विधि पूर्ण संत बताता है, उससे ठीक समझ कर कोई बिरला ही शिष्य ठीक से जाप करता है। जब तक गुप्त जाप का ज्ञान नहीं होगा, तब तक काल दूर नहीं जाएगा। हे भक्त! जिस संत के पास सार शब्द के जाप की गुप्त विधि है, उसको खोज लो।

लिखो न जाय लिखा मैं नाही। गुरू बिन भैंट न होवै ताही।।
लिखो न जाय कहे को पारा। है अक्षर में जो पावै निरबारा।।

भावार्थ:- जो गुप्त जाप है, उसके स्मरण की विधि लिखी नहीं जा सकती, न मैंने लिखी है यानि न ग्रन्थ में लिखाई है। जाप की विधि सबके सामने कही नहीं जा सकती। उसको पूर्ण गुरू ही निखार कर यानि निर्णायक तरीके से बता सकता है। उसके बिना कोई बता नहीं सकता।  सार शब्द के जाप की विधि भी अक्षर में है यानि बोलकर बताई-समझाई जाती है।

पृष्ठ 65 पर कोई विशेष ज्ञान नहीं है, पहले वर्णन हो चुका है। पृष्ठ 66 पर भी कोई विशेष ज्ञान नहीं है।

कहै कबीर सुन धर्मदास सुजानी। अकह हतो ताही कहो बखानी।।

भावार्थ:- जो नाम अकह था यानि जिसका जाप बोलकर नहीं करना, उस मंत्र के स्मरण की विधि को बोलकर बताया है।

पृष्ठ 67 पर सामान्य ज्ञान है।

पृष्ठ 68 पर कोई भिन्न ज्ञान नहीं है।

यहाँ वहाँ हम दोनों ठाऊं। सत्य कबीर कलि में मेरा नाऊं।।
गुप्त जाप है अगम अपारा। ताहि जपै नर उतरै पारा।।

कबीर, जैसे फनपति मंत्रा सुन, राखै फन सुकोड़। ऐसे बीरा सारनाम से, काल रहै मुख मोड़।।
सोहं शब्द निरक्षर बासा। ताहि भिन्न कर जपिये दासा।।

साखी:- जो जन है जौहरी लेगा शब्द बिलगाय। सोहं सोहं जप मरे, मिथ्या जन्म गंवाय।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि मैं दोनों स्थानों पर हूँ। यहाँ पृथ्वी पर सतगुरू रूप में तथा सतलोक में सतपुरूष रूप में। कलियुग में मेरा सत्य कबीर नाम चलेगा। गुप्त नाम का जाप किया जाता है जिसकी शक्ति अपार है। मेरे सारनाम के सामने काल ब्रह्म ऐसे मुख मोड़कर भाग जाता है जैसे गारड़ू के मंत्रा को सुनकर सर्प अपने फन को इकट्ठा करके भाग जाता है।

सोहं शब्द का योग सार नाम के साथ है। उसका जाप भिन्न-भिन्न करके किया जाता है। यदि कोई अकेले सोहं मंत्रा का जाप करता है, वह अपना जन्म व्यर्थ कर रहा है। जो भक्त जौहरी यानि स्मरण भेद का जानने वाला है, वह भिन्न-भिन्न (बिलगाय) करके जाप करेगा।

मुक्ति बोध पृष्ठ 69 का सारांश:-

तब साहेब अस बोले बाती। लेऊँ छुड़ाय राखूं निज साथी।।
तुमको दीन्ही भक्ति अपारा। नाम जपो तुम अजर हमारा।।
श्रवण माहीं कहै दीन्हा भाई। तो न विवेक आ बैठाई।।
नाम सुने मोर मो कहं पावै। जम जालिम तेहि देख डरावै।।
सब कहं नाम सुनावहूं, जो आवै हम पास।
शब्द हमारा सत्य है, मानो दृढ़ विश्वास।।

भावार्थ:- धर्मदास जी ने बताया है कि मेरे को परमेश्वर कबीर जी ने ऐसे कहा कि जो मेरा नाम जपता है, उसको काल से छुड़ाकर अपने पास रखूंगा। जो मेरा नाम सतगुरू से सुनकर जाप करेगा, वह मेरे पास आएगा। मैंने तेरे कान में आदिनाम बोलकर सुना दिया है। उसका विवेक करा दिया है।

जब मैं (कबीर परमेश्वर) तेरे को नाम दान का आदेश दूंगा, तब वह सारनाम अधिकारी को नाम सुनाओ। इस बात का विश्वास रख धर्मदास! हमारा मोक्ष मंत्रा सत्य है। 

पृष्ठ 70 पर सामान्य ज्ञान है।

मुक्ति बोध पृष्ठ 71 पर:-

जिन-जिन नाम सुना है काना। नरक न परे होय मुक्ति निदाना।।
आदिनाम जेहि श्रवण नाहीं। निश्चय सो जीव जम घर जाई।।
अक्षर गुप्त सोई में भाषा। और शब्द स्वाल अभिलाषा।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि जिन-जिन के कान में सारनाम पड़ा है यानि जिनको सारनाम सुनाया गया है। जैसे कई भक्त आसपास बैठे हों तो सार शब्द कान में सुनाया जाता है। जब अधिक भक्त सारनाम लेने वाले हैं तो ऊँचा बोलकर सुनाया जाता है। वह भी कान में सुनाना ही कहा जाता है। जिन-जिन ने नाम सुन लिया यानि प्राप्त कर लिया, वे काल जाल में नहीं रहेंगे, वे नरक में नहीं गिरेंगे। उनकी अवश्य मुक्ति होगी। जिनके कान में सार शब्द नहीं सुनाया गया यानि जिनको सारनाम पूर्ण गुरू से प्राप्त नहीं हुआ। वे अवश्य यम लोक में जाएंगे। (जो गुरू कहते हैं कि सारनाम को बोलकर नहीं सुनाया जाता, आत्मा में प्रवेश किया जाता है, वे गलत कहते हैं।) जो गुप्त अक्षर यानि गुप्त सारनाम अक्षर में है, वह मैंने बोल सुनाया है।

मुक्ति बोध पृष्ठ 72 का सारांश:-

जब लग भक्ति अंग नहीं आवा। सार शब्द कैसे को पावा।।
सत्यनाम श्रवण महं वोषै। ज्यों माता बालक कहं पोषै।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि जब तक प्रथम नाम तथा सत्यनाम के जाप से भक्ति के शरीर में भक्ति प्रवेश नहीं होगी यानि दोनों मंत्रों की भक्ति कमाई संग्रह नहीं होगी, उसको सार शब्द कैसे दिया जा सकता है?

सत्यनाम जो दो अक्षर का है, उसको भी बोलकर सुनाया जाता है। कान में सुनता है यानि सब मंत्र कहे और सुने जाते हैं। नाम के जाप से आत्मा को ऐसे बल मिलता है जैसे बालक का माता के दूध से पोषण होता है।

मुक्ति बोध पृष्ठ 73 का सारांश:-

इस पृष्ठ पर भी सामान्य ज्ञान है।

जब लग सार नाम गुरू नहीं बतावै। तब तक प्राणी मुक्ति नहीं पावै।।
सार नाम बिन सीप बिन मोती। उपज खपे बिना हर खेती।।
आदि नाम है अक्षर माहीं। बिन गुरू नरक छूटै नाहीं।।
सोहं में निःअक्षर रहाही। बिन गुरू कौन दे है लखाई।।

भावार्थ:- जब तक शिष्य सार शब्द को प्राप्त करने योग्य नहीं होता तो उसको सार शब्द नहीं दिया जाता। जब तक सार शब्द नहीं मिलेगा। तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। आदि नाम अक्षर में है और उसको गुरू से प्राप्त किए बिना काल लोक का नरक का जीवन नहीं छुटता यानि मोक्ष प्राप्त नहीं होता। सोहं शब्द के साथ सार शब्द का संयोग है। उसको गुरू ही शिष्य को बताता है। अन्य किसी को तो सार शब्द का ज्ञान भी नहीं होता। सार शब्द बिना तो यह मानव शरीर ऐसा है जैसे सीप में मोती न हो तो उसकी कोई कीमत नहीं होती। इसी प्रकार मानव शरीरधारी प्राणी सार शब्द बिना व्यर्थ जीवन जीता है।

मुक्ति बोध पृष्ठ 74 का सारांश:-

इस पृष्ठ पर भी सामान्य ज्ञान है जो पूर्व के अध्यायों में वर्णन किया जा चुका है। इससे वाणी लेकर सार निकालता हूँ।

जाको है गुरू का विश्वासा। निश्चय जाय पुरूष के पासा।।
अक्षर आदि निज नाम सुनाऊँ। जरा मरण का भ्रम मिटाऊँ।।
सोहं संग आए संसारा। सो गुरू दीजे मोहे उपचारा।।

पृष्ठ 75 का सारांश:- इस पृष्ठ पर भी सामान्य ज्ञान है, कुछ वाणी लेता हूँ।

‘‘सारनाम को निःअक्षर किसलिए कहा है?‘‘

अकह अनाम पुरूष जब रहेऊ। नाम निःअक्षर तासें भयऊ।।

‘‘आदिनाम का स्मरण किया जाता है‘‘

आदि नाम को सुमरे कोई। सुर नर मुनि इन्द्र वश होई।।
पांच पचीसों तीन गुण, एक महल में राखै।
आदिनाम अनभय उच्चारो, तन मन धन सो चाख।।
शब्द रूप हम हो आये। हमही होय कड़िहार कहाये।।

पृष्ठ 74 की वाणियों का भावार्थ:- जिनको गुरू जी पर विश्वास है, उसको परमेश्वर प्राप्ति अवश्य होती है। आदिनाम सुना कर यानि आदिनाम की दीक्षा देकर जरा यानि वृद्धावस्था तथा मरण का भर्म यानि शंका समाप्त कर दूंगा।

सोहं शब्द के साथ काल लोक में फँसने के कारण (सोहं शब्द का अर्थ जीव भी है।) हम अपने मालिक से बिछुड़े तो जीव संज्ञा में आ गए। सतलोक में हंस रूप में थे यानि यहाँ के ब्रह्मा, विष्णु, शिव से भी उत्तम स्थिति में थे। अब सोहं नाम अक्षर पुरूष का जाप भी है। अब इस जाप को करके ऊपर उठेंगे, यह उपचार है। जन्म-मरण के रोग से ग्रस्त आत्मा का उपचार सोहं तथा आदि नाम के संयोग से होगा।

पृष्ठ 75 की वाणियों का भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि सारनाम अर्थात् आदिनाम को निरक्षर इसलिए कहा जाने लगा। परमेश्वर जब अकह तथा अनाम स्थिति में थे तो उसका निःअक्षर नाम पड़ा था। अब वह कबीर रूप में हैं तो आदि नाम-सार शब्द कहा जाता है। भाव एक ही है। अन्य वाणियों में स्पष्ट है कि सारनाम का स्मरण किया जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हम ही सतपुरूष हैं और हम ही कड़िहार यानि जीवों को सार शब्द देकर काल लोक से काड़ने (निकालने) वाले सतगुरू हैं।

‘‘मुक्ति बोध’’ अध्याय के पृष्ठ 76 से 80 तक सामान्य ज्ञान है तथा पहले के अध्यायों में वर्णन हो चुका है।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘मुक्ति बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

।।सत साहेब।।

Sat Sahib