नाम भक्ति की कमाई करना अनिवार्य - बीर सिंह बोध

नाम भक्ति की कमाई करना अनिवार्य

अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 123 पर:-

राजा बीर सिंह की एक छोटी रानी सुंदरदेई थी। उसने भी परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले रखी थी। उसने सत्संग बहुत सुने थे। विश्वास कम था, नाम की कमाई यानि साधना नहीं करती थी। जब रानी का अंतिम समय आया तो यम के दूत राजभवन में प्रवेश कर गए। फिर यमदूत रानी के शरीर में प्रवेश कर गए और अंतिम श्वांस का इंतजार करने लगे। उस समय रानी सुंदरदेई के शरीर में बेचैनी हो गई। यमदूत दिखाई देने लगे। राजा ने रानी से पूछा कि क्या बात है? रानी ने कहा कि मुझे राजपाट, महल, आभूषण, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। रानी ने कहा कि साधु-भक्तों को बुलाकर परमात्मा की चर्चा कराओ। साधु तथा भक्त आकर परमात्मा की चर्चा तथा भक्ति करने लगे। उससे कोई लाभ नहीं हुआ। रानी के शरीर में कष्ट और बढ़ गया। अर्ध-अर्ध यानि आधा श्वांस चलने लगा। श्वांस खींच-खींचकर आने-जाने लगा। हृदय कमल को त्यागकर जीव भयभीत होकर त्रिकुटी की ओर भागा। यम दूतों ने चारों ओर से घेर लिया। चारों यमदूतों ने जीव को घेरकर कहा कि आप चलो! हरि (प्रभु) ने तुम्हें बुलाया है। तब रानी के जीव को सत्संग वचन याद आए। उसने यमदूतों से कहा कि हे बटपार! हे जालिमों! तुम यहाँ कैसे आ गए? हमारा सतगुरू हमारा मालिक है। आप हमें नहीं ले जा सकते। मेरे सतगुरू धनी (मालिक) ने मुझे नाम दिया है। मेरे गुरूजी आएंगे तो मैं जाऊँगी। यह बात सुनकर यम के दूत बोले कि यदि आपका कोई खसम (धनी) है तो उसको बुलाओ, नहीं तो हमारे साथ परमात्मा के दरबार में चलो। जीव ने कहा कि:-

धरनी (पृथ्वी) आकाश से नगर नियारा। तहाँ निवाजै धनी हमारा।।
अगम शब्द जब भाखै नाऊं। तब यम जीव के निकट नहीं आऊं।।

भावार्थ:- पहले तो रानी को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो सतगुरू जी सत्संग में ज्ञान सुना रहे हैं, वह सत्य है। वह सोचती थी कि यह केवल कहानी है क्योंकि सब नौकर-नौकरानी आज्ञा मिलते ही दौड़े आते थे। मनमर्जी का खाना खाती थी, सुंदर वस्त्रा, आभूषण पहनती थी। उसने सोचा था कि ऐसे ही आनन्द बना रहेगा। यह तो पूर्व जन्म की बैटरी चार्ज थी। वर्तमान में चार्जर मिला (नाम मिला) तो चालू नहीं किया यानि साधना नहीं की। जब बैटरी की चार्जिंग समाप्त हो जाती है, बैटरी डाउन हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं बंद हो जाती हैं। फिर न पंखा चलता है, न बल्ब जगता है। बटन दबाते रहो, कोई क्रिया नहीं होती। इसी प्रकार जीव का पूर्व जन्म की भक्ति का धन यानि चार्जिंग समाप्त हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं छीन ली जाती हैं। जीव को नरक में डाल दिया जाता है, तब उसको अक्ल आती है। उस समय वक्त हाथ से निकल चुका होता है। केवल पश्चाताप और रोना शेष रह जाता है। रानी सुंदरदेई ने सत्संग सुन रखा था। पूर्ण सतगुरू से दीक्षा ले रखी थी। नाम की कमाई नहीं की थी। वह गुरूद्रोही नहीं हुई थी। गुरू निंदा नहीं करती थी। रानी ने सतगुरू को याद किया कि हे सतगुरू! हे मेरे धनी! मेरे को यमदूतों ने घेर रखा है। मुझ दासी को छुड़ावो। मैंने आपकी दीक्षा ले रखी है। आज मुझे पता चला कि ऐसी आपत्ति में न पति, न पत्नी, ने बेटा-बेटी, भाई-बहन, राजा-प्रजा कोई सहायक नहीं होता। रानी के जीव ने हृदय से सतगुरू को पुकारा। तुरंत सतगुरू कबीर जी वहाँ उपस्थित हुए। रानी ने दौड़कर सतगुरू देव जी के चरण लिए। उसी समय यमदूत भागकर हरि यानि धर्मराज के पास गए और बताया कि उसका सतगुरू आया तो वहाँ पर प्रकाश हो गया। जीव ने सत सुकृत नाम जपा था। उसको इतना ही याद था। इस कारण से उसको यमदूतों से छुड़वाया तथा पुनः जीवन बढ़ाया। तब रानी ने दिल से भक्ति की। फिर सतगुरू कबीर जी ने पुनः सतनाम, सारनाम दिया, उसकी कमाई की। संसार असार दिखाई देने लगा। राज, धन, परिवार पराया दिखाई दे रहा था। जाने का समय निकट लग रहा था। इस कारण से रानी ने तन-मन-धन सतगुरू चरणों में समर्पित करके भक्ति की तो सत्यलोक में गई। वहाँ परमेश्वर (सत्य पुरूष) ने रानी के जीव के सामने अपने ही दूसरे रूप सतगुरू से प्रश्न किया कि हे कड़िहार! (तारणहार) मेरे जीव को यमदूतों ने कैसे रोक लिया? सतगुरू रूप में कबीर जी ने कहा कि हे परमेश्वर! इसने दीक्षा लेकर भक्ति नहीं की। इस कारण से इसको यमदूतों ने घेर लिया था। मैंने छुड़वाया। परमेश्वर कबीर जी ने जीव से कहा कि आपने भक्ति क्यों नहीं की? सत्यलोक में कैसे आ गई?

सिर नीचा करके जीव ने कहा कि पहले मुझे विश्वास नहीं था। फिर यमदूतों की यातना देखकर मुझे आपकी याद आई। आपका ज्ञान सत्य लगा। आपको पुकारा। आपने मेरी रक्षा की। फिर मेरे को वापिस जीवन दिया गया। तब मैंने दिलोजान से आपकी भक्ति की। पूर्ण दीक्षा प्राप्त करके आपकी ही कृपा से गुरू जी के सहयोग से मैं यहाँ आपके चरणों में पहुँच पाई हँू। सत्यलोक में जाकर भक्त अन्य भक्तों के पास भेज दिया जाता है। संुदर अमर शरीर मिलता है। बहुत बड़ा आवास महल मिलता है। विमान आँगन में खड़ा है। सिद्धियां आदेश का इंतजार करती हैं। तुरंत विद्युत की तरह सक्रिय होती हैं जैसे बिजली का बटन (switch) दबाते ही बिजली से चलने वाला यंत्रा तुरंत कार्य करने लगता है। ऐसे वहाँ पर वचन का बटन (switch) है। जो वस्तु चाहिए बोलिये। वस्तु-पदार्थ आपके पास उपस्थित होगा। जैसे भोजन खाने की इच्छा होते ही आपके भोजनस्थल पर गतिविधि प्रारम्भ हो जाएंगी, थाली-गिलास रखे जाएंगे। कुछ देर में खाने की इच्छा बनी तो सिद्धि से उठकर रसोई में रखे जाएंगे। मिनट पश्चात् इच्छा हुई तो भी उसी समय व्यवस्था हो जाएगी। घूमने की इच्छा हुई तो विमान में गतिविधि महसूस होगी। विमान के निकट जाते ही द्वार खुल जाएगा। विमान स्टार्ट हो जाएगा। जहाँ जिस द्वीप में जाने की इच्छा होगी, विचार करने पर विमान उसी ओर उड़ चलेगा। इच्छा करते ही ताजे-ताजे फल वृक्षों से तोड़कर लाकर आपके समक्ष रख दिए जाएंगे। सत्यलोक की नकल यह काल लोक है। इसी तरह स्त्राी-पुरूष परिवार हैं। सत्यलोक में दो तरह से संतानों की उत्पत्ति होती है। शब्द से तथा मैथुन से। वह हंस पर निर्भर करता है। वचन से संतानोपत्ति वाला क्षेत्र सतपुरूष के सिंहासन के चारों ओर है। नर-नारी से परिवार वाला क्षेत्रा उसके बाद में है। वचन से संतान उत्पन्न करने वाले केवल नर ही उत्पन्न करते हैं। सत्यलोक में वृद्धावस्था नहीं है। नर-नारी वाले क्षेत्रा में लड़के तथा लड़कियां दोनों उत्पन्न करते हैं। विवाह करते हैं केवल वचन से। जो बच्चे उत्पन्न होते हैं, वे काल लोक से मुक्त होकर गए जीव जन्म लेते हैं। फिर कभी नहीं मरते, न वृद्ध होते। जो सत्यलोक में मुक्त होकर जाते हैं, उनको सर्वप्रथम सत्यपुरूष जी के दर्शन कराए जाते हैं। उस समय उसका वही स्वरूप रहता है जैसा पृथ्वी से आता है, परंतु वृद्ध नीचे से गया तो वहाँ सतपुरूष के सामने उसी अवस्था व स्वरूप में जाता है। उसका प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश जितना हो जाता है। उसके पश्चात् उसको उस स्थान पर भेजा जाता है जो सबसे भिन्न है। वहाँ जाते ही उसका स्वरूप तो वैसा ही रहता है, लेकिन उसके शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों जैसा हो जाता है, परंतु यदि वृद्ध नीचे से गया है तो युवा अवस्था हो जाती है। जवान है तो जवान ही रहता है, बालक है तो बालक ही रहता है। वहाँ पर कुछ को सत्य पुरूष के वचन से स्त्राी-पुरूष का शरीर मिलता है। कुछ बीज रूप में सतपुरूष द्वारा बनाए जाते हैं जिनका फिर एक बार किसी के घर सत्यलोक में जन्म होगा, परिवार बनेगा। उस स्थान पर वे हंस एक बार जन्म लेंगे जो काल लोक तथा अक्षर लोक से मुक्त होकर जाते हैं। एकान्त स्थान पर रखे जाते हैं। वे दोनों क्षेत्रों में जन्म लेते हैं। (वचन से उत्पन्न होने वाले तथा स्त्राी-पुरूष से जन्म लेने वाले में) स्त्राी-पुरूष से उत्पत्ति की औसत अधिक होती है। यह औसत 10/90 होती है। यह 10% वचन से उत्पत्ति, 90% विवाह रीति से उत्पत्ति होती है।

सत्यलोक में स्त्राी तथा नर के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान होता है। मीनी सतलोक, मानसरोवर पहले हैं। वहाँ दोनों के शरीर का प्रकाश चार सूर्यों के समान होता है। फिर आगे जाते हैं। जब परब्रह्म के लोक में बने अष्ट कमल के पास पहुँचते हैं तो हंस तथा हंसनी यानि नर-नारी के शरीर का प्रकाश 12 सूर्यों के प्रकाश के समान हो जाता है। फिर सत्यलोक में बनी भंवर गुफा में प्रत्येक के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के समान हो जाता है। प्रमाण कबीर सागर अध्याय ‘‘मोहम्मद बोध‘‘ पृष्ठ 20, 21 तथा 22 पर दश मुकामी रेखताः-

दश मुकामी रेखता

पृष्ठ 21 से कुछ अंश लिखता हूँ:-

भया आनन्द फन्द सब छोड़िया पहँुचा जहाँ सत्यलोक मेरा।।
{हंसनी (नारी रूप पुण्यात्माऐं) हंस (नर रूप पुण्यात्माऐं)}
हंसनी हंस सब गाय बजाय के साजि के कलश मोहे लेन आए।।
युगन युगन के बिछुड़े मिले तुम आय कै प्रेम करि अंग से अंग लाए।।
पुरूष दर्श जब दीन्हा हंस को तपत बहु जन्म की तब नशाये।।
पलिट कर रूप जब एक सा कीन्हा मानो तब भानु षोडश (16) उगाये।।
पहुप के दीप पयूष (अमृत) भोजन करें शब्द की देह सब हंस पाई।।
पुष्प का सेहरा हंस और हंसनी सच्चिदानंद सिर छत्रा छाए।।
दीपैं बहु दामिनी दमक बहु भांति की जहाँ घन शब्द को घमोड़ लाई।।
लगे जहाँ बरसने घन घोर कै उठत तहाँ शब्द धुनि अति सोहाई।।
सुन्न सोहैं हंस-हंसनी युत्थ (जोड़े-झुण्ड) ह्नै एकही नूर एक रंग रागै।।
करत बिहार (सैर) मन भावनी मुक्ति में कर्म और भ्रम सब दूर भागे।।
रंक और भूप (राजा) कोई परख आवै नहीं करत कोलाहल बहुत पागे।।
काम और क्रोध मदलोभ अभिमान सब छाड़ि पाखण्ड सत शब्द लागे।।
पुरूष के बदन (शरीर) कौन महिमा कहूँ जगत में उपमा कछु नाहीं पायी।।
चन्द और सूर (सूर्य) गण ज्योति लागै नहीं एक ही नख (नाखुन) प्रकाश भाई।।
परवाना जिन नाद वंश का पाइया पहुँचिया पुरूष के लोक जायी।।
कह कबीर यही भांति सो पाइहो सत्य पुरूष की राह सो प्रकट गायी।।

भावार्थ:- इस अमृतवाणी में स्पष्ट है कि परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में पृथ्वी से धर्मदास जी को लेकर सत्यलोक को चले तो रास्ते में 9 स्थान आए जैसे नासूत, मलकूत यह फारसी में शब्द है। इन सात आसमानों के पार अचिन्त, विष्णु लोक आदि के पार जब सत्यलोक में पहुँचा तो धर्मदास जी कह रहे हैं कि मेरे को सत्कार के साथ लेने को सत्यलोक के हंस (नर) हंसनी (नारी) गाते-नाचते ढ़ोल आदि साज-बाज बजाते हुए स्त्रिायां सिर के ऊपर कलश रखकर लेने आए। उनके शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के समान था। मेरे शरीर का प्रकाश भी उनके शरीर के प्रकाश के समान 16 सूर्यों के समान हो गया।

जो पृथ्वी लोक से मोक्ष प्राप्त करके हंस जाता है। वह पुहप द्वीप में ले जाया जाता है। वहाँ सर्व सुख है, वह सत्यलोक का हिस्सा है। परंतु सर्व प्रथम नीचे से गए मोक्ष प्राप्त जीव को पोहप द्वीप में रखा जाता है। यहाँ का दृश्य बताया जा रहा है। यहाँ से इसका जन्म अन्य स्थानों में परिवार में होता है। इसके पश्चात् उस स्थान का वर्णन है जहाँ नर-नारी से उत्पत्ति होकर परिवार बनता है। जहाँ पर नर-नारी के जोड़ों के समूह के समूह सुख से बैठे बातें करते हैं। बादल गरजते हैं, फव्वार पड़ती हैं। यह भिन्न स्थान है जहाँ सतलोक निवासी पिकनिक के लिए जाते हैं। कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ न बादल दिखाई देता है, वर्षा हो रही होती है।

अब पढ़ें वह वाणी जिसमें रानी सुंदरदेई को यमदूत पकड़ने के लिए घेर लेते हैं, वह कैसे बचती है?

रानी सुंदरदेई की यमदूतों से रक्षा

सुन्दरदेइ रानी कर नाऊ (नाम)। पाये शब्द न प्रीति लगाऊ।।
शब्द पाइ गुरू प्रीति न लागी। बिना प्रीति सतभक्ति न जागी।।
पाय शब्द नहिं कीन कमाई। ताते यम बहुते दुख लाई।।
चारि दूत हरि तबहि बुलावा। तासे सकल मता समुझावा।।
नगर गहो जाय नृप रानी। तहँवा जाय बेगि तुम आनी।।
तब यमदूत गए राजा गाँऊ (गाँव)। जाय ठाढ मन्दिर में भयऊ।।
घट घट यम देखा व्योहारा। काया पैठि सो कीन बिचारा।।
तब रानी के बेदन भयऊ। व्याकुल करी दूत चित रहऊ।।
राजा बूझे रानी बाता। कहे रानी मोहि कुछ नाहि सुहाता।।
एक बात सुनिये मम राई। साधु संत सब देहु बुलाई।।
राजा सकल साधु बुलवाये। सतगुरू भक्ति करो चित लाये।।
बढ़ि विथा रानी की काया। व्याकुल जीव बहुत दुःख पाया।।
तबहीं यम जिव घेरे आयी। अरध अरध स्वासा चलि धायी।।
भागि हंस त्रिकुटी में गयऊ। तहवाँ यम जिव घेरे लयऊ।।
चारो जीव यम घेरे लायी। काहे बल तुम बचिहो जायी।।
चलो हंस हरि कीन बुलाऊ। तब हंसा यक वचन सुनाऊ।।
यहाँ कस आये बटपारा। हमरे हैं समरथ रखवारा।।
हम घर गुरू खसम यक आही। सो मोहि नाम दीन बतलाही।।
दूत भूत यम तोहि चिन्हाई। आज्ञा देइ खसम घर जाई।।
जे साहेब मोहि नाम सुनाया। सो आवे गुरू जाय लिवाया।।
साखी-तबही यम अस बोलिया, कहाँ है धनी तुम्हार।।
ताकहँ वेगि बुलावहू, नहिं चलु हरि दरबार।।

चैपाई

तब जिव यम से कहवे लीना। साहब एक वचन कहि दीना।।
निगम के पार अगम के आगे। सो सतगुरू मम श्रवणहि लागे।।
धरनि आकाश ते नगर निनारा। तहाँ विराजे धनी हमारा।।
जहँ नहिं चन्द सूर की कांती। तहाँ नहीं दिवस अरू राती।।
अगम शब्द जब भाषे नाऊ (नाम)। तब यम जीव निकट नहीं आऊ।।
चलो जीव हरि ब्रह्मा पासे। तुम्हरे धनी मोहे न आसे।।
तबहीं हंसा कीन पुकारा। कहँवा हौ तुम धनी हमारा।।
मोसे यम कीनी बरियाई। कस नहिं राखहु सद्गुरू आई।।
छन्द-कीन जीव पुकार ततक्षण खसम बेगहिं आइये।।
बेग लागु गुहार सतगुरू हंस लोक पठाइये।।
काहि करों पुकार साहब मातु पिता नहिं कोइ जना।।
करि ढिठाई मारि जीव यम झूठ जग महँ बन्धना।।
सोरठा-लगे खसम गुहार, घाट घाट यम छेकिया।।
कठिन परी यमभार, अति व्याकुल अकुलाय जिव।।

चैपाई

तब सतगुरू का आसन डोला। काल दग्ध जिव व्याकुल बोला।।
आइ खसम तब दर्शन दियऊ। चरण बन्दि हंसा तब लियऊ।।
साहब देखि भागा यमराई। अति आतुर होय हरिपै जाई।।

हरिहर वचन

हरिहर बूझे यम से बाता। कस नहिं कियो जीव की घाता।।

दूत वचन

कहे यम स्वामी विन्ती मोरी। हम जिव छेकि कीन तेहि सोरी।।
वह सुमिरे सत सुकृत नाऊ (नाम)। सुनत पुकार धनी चलि आऊ।।
आवत धनी भयो उजियारा। हम भागे चारो पग सिर धारा।।
वहाँ दूत पहुँचे हरि पासा। यहाँ जीव कहत सुख वासा।।

जीव वचन

विनय जीव सुनु बन्दी छोरा। हम कहँ कष्ट दीन बड़ चोरा।।
नाम तुम्हार बूझे यमराया। कहा नाम तब बचने पाया।।
तब हम ततछिन कीन पुकारा। बेगहि आओ खसम हमारा।।

ज्ञानी वचन

सुनो जीव नहिं शब्दहिं ध्यावा। राज पाय गुरू विसरावा।।
गहे नाम अरू करे कमाई। तब यम दूत निकट न आई।।

जीव वचन

जेहि ते हंसको घर पठवायी। तौन नाम मोहि भाषि सुनायी।।
जाते जीव अमर घर जावै। दूत भूत यम खबर न पावै।।

कबीर वचन

साखी-गुप्त नाम मुख भाखिया, अकह अमर निज नाम।।
अमर कृपा निधि जीव कूँ, पहुँचे जीव निज ठाम।।

चैपाई

पहुँचे जीव खसम घर जबहीं। सुख आनन्द भये बड़ तबहीं।।
कंचन कलस बरत तहँ बाती। आरति करे हंस बहु भांती।।
देखत जीव हंस उजियारा। अंग अंग शोभा चमकारा।।
देख द्वीप शोभा बहु भाँती। रवि शशि मनि लागे जिमि पाँती।।
ता मध्ये जिमि लाल जडाई। बीच बीच चुनि लै बैठाई।।
मोतीसर झालरि बहु पोहा। देखत हंस रहे तहँ मोहा।।
तबहिं पुरूष ज्ञानी हँकराई (पुकारा)। कौन वचन तुम जीव सुनाई।।
कौन वचन तुम जीवन दीना। जाते जीव अटक यम कीना।।

ज्ञानी वचन

दोय कर जोरि कहे शठिहारा। मुक्ति वचन जिव डार विसारा।।
विसरे नाम छेके यह आयी। भाषि नाम यम जीव छुडायी।।

पुरूष वचन

आज्ञा जीव पुरूष हंकराई। कहो जीव कस न कीन कमाई।।
कैसे पहुँचे लोक हमारे। सत्य वचन सो कहो विचारे।।

हंस वचन

मस्तक नाय हंस कर जोरी। अमर पुरूष विन्ती यक मोरी।।
हे साहब हम कछू न चीन्हा। गुरू को वचन मानि शिर लीन्हा।।
जा दिन गुरू मोहिं दीनेउ पाना। तब मैं जानवो पद निर्बाना।।
साधु संत कर बन्देउ पायो। विसरयो नाम गुरू मोहि सुनायो।।
अब पुरी यम छेकेउ आयी। पल यक दुख मोहिं तहाँ दिखायी।।
साखी- खसम आइ दर्शन दिये, दीना नाम सुनाइ।।
तबआये हम लोककूँ, यम शिर पाँव चढाइ।।

चैपाई

जो नहिं नाम मुक्तिको पावे। माला डारि जगत बौरावे।।
सुने नाम अरू करे कमाई। छाडे़ पाखण्ड अरू अधमाई।।
निर्मल काया होय संसारा। जाकहँ दया करे करतारा।।
नाम कबीर जपे बड़ भागी। उन मन ले गुरूचरनन लागी।।
जापर दया जो होय तुम्हारी। ताकहँ कहा करहि बटपारी।।
पुरूष दया जब होय सहायी। सत्यलोकमों जाय समायी।।
छन्द-पुरूष दाया कीन ततछिन अटल काया तब भयो।।
पुहुप दीप निवास कीना सुमन सज्या आनन्दमयो।।
हंसन शिर क्षत्रा राजे अमृत फल आनन्द घना।।
रूप षोडश भानु हंसा कोटि शशि शीतल बना।।
सोरठा-धाम जो पास अमोल, हंसा सुख तहँ विलसही।।
द्वीपहिं द्वीप कलोल, जरा मरन भ्रम मेटिया।।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

।।सत साहेब।।

Sat Sahib