महाप्रलय का वर्णन
महाप्रलय तीन प्रकार की होती है। एक तो काल (ज्योति निरंजन) करता है। महाकल्प के अंत में जिस समय ब्रह्मा जी की मृत्यु होती है {ब्रह्मा की रात्रि एक हजार चतुर्युग की होती है तथा इतना ही दिन होता है। तीस दिन-रात्रि का एक महीना, 12 महीनों का एक वर्ष, सौ वर्ष का एक ब्रह्मा का जीवन। यह एक महाकल्प कहलाता है}
दूसरी महा प्रलय:-- सात ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद एक विष्णु जी की मृत्यु होती है, सात विष्णु जी की मृत्यु के उपरान्त एक शिव की मृत्यु होती है। इसे दिव्य महाकल्प कहते हैं उसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित इनके लोकों के प्राणी तथा स्वर्ग लोक, पाताल लोक, मृत्यु लोक आदि में अन्य रचना तथा उनके प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल ब्रह्मलोक बचता है जिसमें यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) तथा दुर्गा तीन रूपों महाब्रह्मा-महासावित्राी, महाविष्णु-महालक्ष्मी और महाशंकर-महादेवी (पार्वती) के रूप, में तीन लोक बना कर रहता है। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बना है, उसमें चैथी मुक्ति प्राप्त प्राणी रहते हैं। {मार्कण्डेय, रूमी ऋषि जैसी आत्मा जो चैथी मुक्ति प्राप्त हैं जिन्हें ब्रह्म लीन कहा जाता है वे यहाँ के तीनों लोकों के साधकांे की दिव्य दृष्टि की क्षमता (रेंज) से बाहर होते हैं। स्वर्ग, मृत्यु व पाताल लोकों के ऋषि उन्हें देख नहीं पाते। इसलिए ब्रह्म लीन मान लेते हैं। परन्तु वे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते हैं।} फिर दिव्य महाकल्प के आरम्भ में काल (ज्योति निरंजन) भगवान ब्रह्म लोक से नीचे की सृष्टि फिर से रचता है। काल भगवान अपनी प्रकृति (माया-आदि भवानी) महासावित्राी, महालक्ष्मी व महादेवी (गौरी)के साथ रति कर्म से अपने तीन पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) को उत्पन्न करता है। यह काल भगवान उन्हें अपनी शक्ति से अचेत अवस्था में कर देता है। फिर तीनों को भिन्न-2 स्थानों पर जैसे ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, विष्णु जी को समुद्र में शेष नाग की शैय्या पर, शिव जी को कैलाश पर्वत पर रखता है। तीनों को बारी-बारी सचेत कर देता है। उन्हें प्रकृति (दुर्गा) के माध्यम से सागर मंथन का आदेश होता है। तब यह महामाया (मूल प्रकृति/शेराँवाली) अपने तीन रूप बना कर सागर में छुप जाती है। तीन लड़कियों (जवान देवियों) के रूप में प्रकट हो जाती है। तीनों बच्चे (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) इन्हीं तीनों देवियों से विवाह करते हैं। अपने तीनों पुत्रों को तीन विभाग - उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा जी को व स्थिति (पालन-पोषण) का कार्य विष्णु जी को तथा संहार (मारने) का कार्य शिव जी को देता है जिससे काल (ब्रह्म) की सृष्टि फिर से शुरु हो जाती है। जिसका वर्णन पवित्र पुराणों में भी है जैसे शिव महापुराण, ब्रह्म महापुराण, विष्णु महापुराण, महाभारत, सुख सागर, देवी भागवद् महापुराण में विस्तृत वर्णन किया गया है और गीता जी के चैदहवें अध्याय के श्लोक 3 से 5 में संक्षिप्त रूप से कहा गया है।
तीसरी महाप्रलय:- एक ब्रह्मण्ड में 70000 वार त्रिलोकिय शिव (काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु हो जाती है तब एक ब्रह्मण्ड की प्रलय होती है तथा ब्रह्मलोक में तीन स्थानों पर रहने वाला काल (महाशिव) अपना महाशिव वाला शरीर भी त्याग देता है। इस प्रकार यह एक ब्रह्मण्ड की प्रलय अर्थात् तीसरी महाप्रलय हुई तथा उस समय एक ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की मृत्यु हुई तथा 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव (काल के पुत्रा) की मृत्यु हुई अर्थात् एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्म लोक सहित सर्व लोकों के प्राणी विनाश में आते हैं। इस समय को परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक युग कहते हैं। इस प्रकार गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का भावार्थ समझना चाहिए।
‘‘इस प्रकार तीन दिव्य महाप्रलय होती हैं’’:-