तीसरी दिव्य महा प्रलय

तीसरी दिव्य महा प्रलय

जैसा कि पूर्वोक्त विवरण में पढ़ा कि सत्तर हजार काल (ब्रह्म) के शिव रूपी पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म (महाशिव) की मृत्यु होती है वह समय परब्रह्म का एक युग होता है। इसी के विषय में गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9 में, अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मेरी भी जन्म मृत्यु होती है। बहुत से जन्म हो चुके हैं। जिनको देवता लोग (ब्रह्मा,विष्णु तथा शिव सहित) व महर्षि जन भी नहीं जानते क्योंकि वे सर्व मुझ से ही उत्पन्न हुए हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। परब्रह्म के एक युग में काल भगवान सदाशिव वाला शरीर त्यागता है तथा पुनः अन्य ब्रह्मण्ड में अन्य तीन रूपों में विराजमान हो जाता है। यह लीला स्वयं करता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्रि होती है। तीस दिन-रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (द्वितीय अव्यक्त) की आयु होती है। उस समय परब्रह्म की मृत्यु होती है। यह तीसरी दिव्य महाप्रलय कहलाती है। तीसरी दिव्य महा प्रलय में सर्व ब्रह्मण्ड तथा अण्ड जिसमें ब्रह्म (काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मण्ड व अन्य असंख्यों ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे। धूंधूकार का शंख बजेगा। सर्व अण्ड व ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे परंतु वह तीसरी दिव्य महा प्रलय बहुत समय प्रयन्त होगी। वह तीसरी (दिव्य) महा प्रलय सतपुरुष का पुत्रा अचिंत अपने पिता पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) की आज्ञा से सृष्टि कर्म नियम से जो पूर्णब्रह्म ने निर्धारित किया हुआ है करेगा और फिर सृष्टि रचना होगी। परंतु सतलोक में गए हंस दोबारा जन्म-मरण में नहीं आऐंगे। इस प्रकार न तो अक्षर पुरुष (परब्रह्म) अमर है, न काल निरंजन (ब्रह्म) अमर है, न ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण), शिव (तमगुण) अमर हैं। फिर इनके पूजारी (उपासक) कैसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। इसलिए पूर्णब्रह्म की साधना करनी चाहिए जिसकी उपासना से जीव सतलोक (अमरलोक) में चला जाता है। फिर वह कभी नहीं मरता, पूर्ण मुक्त हो जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म (कविर्देव) तीसरा सनातन अव्यक्त है। जो गीता अ. 8 के श्लोक 20,21 में वर्णन है।

‘‘अमर करुं सतलोक पठाऊं, तातैं बन्दी छोड़ कहांउ‘‘

उसी पूर्ण परमात्मा का प्रमाण गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 17 में, अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में, अध्याय 7 के श्लोक 13 और 19 में, अध्याय 8 के श्लोक 3, 4, 8, 9, 10, 20, 21, 22 में, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तथा 22 से 24, 27, 28, 30-31 व 34 तथा अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 6 श्लोक 7, 19-20, 25 से 27 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 में भी विशेष रूप से प्रमाण दिया गया है कि उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जा कर जीव फिर कभी जन्म मरण में नहीं आता है।


{विशेष:- यह काल कला समझने के लिए यह विवरण ध्यान रखें कि त्रिलोक में एक शिव जी है। जो इस काल का पुत्रा है जो 7 त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु तथा 49 त्रिलोकिय ब्रह्मा जी की मृत्यु के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसे ही काल भगवान एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में महाशिव रूप में भी रहता है। परमेश्वर द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार सृष्टि क्रम का समय बनाए रखने के लिए यह ब्रह्मलोक वाला महाशिव (काल) भी मृत्यु को प्राप्त होता है। जब त्रिलोकिय 70000 (सतर हजार) ब्रह्म काल के पुत्रा शिव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तब एक ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/क्षर पुरुष) पूर्ण परमात्मा द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार परवश हुआ मरता तथा जन्मता है। यह ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/काल) की मृत्यु का समय परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक युग होता है। इसीलिए गीता जी के अ. 2 के श्लोक 12, गीता अ. 4 श्लोक 5, गीता अ. 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। मेरे जन्म अलौकिक (अद्भुत) होते हैं।}

अद्भुत उदाहरण:- आदरणीय गरीबदास साहेब जी सन् 1717 (संवत् 1774) में श्री बलराम जी के घर पर माता रानी जी के गर्भ से जन्म लेकर 61 वर्ष तक शरीर में गांव छुड़ानी जिला झज्जर में रहे तथा सन् 1778 (विक्रमी संवत् 1835) में शरीर त्याग गए। आज भी उनकी स्मृति में एक यादगार बनी है जहाँ पर शरीर को जमीन में सादर दबाया गया था। जिसको छतरी साहेब के नाम से जाना जाता है। छः महीने के उपरान्त वैसा ही शरीर धारण करके आदरणीय गरीबदास साहेब जी 35 वर्ष तक अपने पूर्व शरीर के शिष्य श्री भक्त भूमड़ सैनी जी के पास शहर सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में रह कर शरीर त्याग गए। वहाँ भी आज उनकी स्मृति में यादगार बनी है। स्थान है:- चिलकाना रोड़ से कलसिया रोड़ निकलता है, कलसिया रोड़ पर आधा किलोमीटर चल कर बाएँ तरफ यह अद्वितीय पवित्रा यादगार विद्यमान है तथा उस पर एक शिलालेख भी लिखा है, जो प्रत्यक्ष साक्षी है। उसी के साथ में बाबा लालदास जी का बाड़ा भी बना है।

ज्ञान सागर के पृष्ठ 57 से 70 तक तीन युगों में प्रकट होने का प्रकरण है जो पूर्ण रूप से गलत उलट-पटांग करके लिखा है जिसका कोई सिर-पैर नहीं है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें कबीर चरित्र बोध के सारांश में इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 516 तक।

ज्ञान सागर के पृष्ठ 71 से आगे कलयुग में कबीर नाम से प्रकट होने का प्रकरण है। राजा बीर सिंह बघेल, बिजली खान पठान तथा राजा सिकंदर को शरण में लेने का अपुष्ट और पूर्ण रूप से गलत है। पृष्ठ 72 पर नीरू को नूरी लिखा है। कलयुग में प्रकट होने का वास्तविक ज्ञान आप जी कबीर चरित्रा बोध के सारांश में पढ़ें।

अन्य प्रकरण बीर सिंह को शरण में लेने का पूर्ण विवरण कबीर सागर के आठवें अध्याय में लिखा है। ज्ञान सागर अध्याय की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह काल प्रेरित व्यक्तियों का कारनामा है। 40 अध्याय बनाए हैं। कबीर सागर में ये कुल 9 या 10 अध्याय हैं जिनको बार-बार घटा-बढ़ाकर व्यर्थ का ग्रन्थ विस्तार किया है। अधिकतर अध्यायों में वही प्रकरण बार-बार लिखा है। 

प्रमाण:- परमेश्वर कबीर जी के कलयुग में प्रकाट्य को कई अध्यायों में लिखा है। वह भी अपुष्ट (अधूरा) तथा कुछ बनावटी लिखा है।

1. कंवारी गाय (बछिया) का दूध पीना:-
‘‘ज्ञान सागर‘‘ पृष्ठ 74, फिर ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ पृष्ठ 1794 से 1796, ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 134

2. कबीर जी के नाम से 12 पंथों का चलना:-
‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 134, 136, 137, ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ पृष्ठ 1870, 1835, स्वसमवेद बोध पृष्ठ 155 पर लिखे हैं।

3. कबीर परमेश्वर द्वारा चार गुरू निर्धारित करना:-
‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 63, ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ पृष्ठ 1863 से 1866, ‘‘ज्ञान बोध‘‘ 35, अनुराग सागर पृष्ठ 104, 105, 113

विवेचन:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान बोध‘‘ के पृष्ठ 35 पर लिखा है कि कबीर जी ने बताया है, हे धर्मदास! चारों युगों में एक-एक आत्मा को मैंने गुरू पद प्रदान किया है। भावार्थ है कि परमेश्वर जी प्रत्येक युग में प्रकट होते हैं और एक-एक अच्छी आत्मा को मिलते हैं। उनको अपना परिचय कराते हैं जैसे धर्मदास जी को करवाया है।

सतजुग शिष्य सहते जी कहाये। द्वापर चतुर्भुज नाम सुनाये।।
त्रोता शिष्य वकेजी भाई। कलयुग में धर्मदास गुसाईंं।।

यह प्रकरण सही है। यही प्रमाण ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105 तथा 113 पर भी है। उसमें भी धर्मदास जी को चैथा गुरू लिखा है। हनुमान बोध पृष्ठ 132 पर पंक्ति नं. 10 में लिखा है कि हनुमान को समझाकर त्रोतायुग में ही चतुर्भुज को मिला, फिर मिलावट करके वाणी बनाई है। पंक्ति नं. 12 में लिखा है कि चतुर्भुज को दरभंगा में गुरू पद दिया। त्रोता का वर्णन है, कलयुग से जोड़ने की कुचेष्टा की है, मिलावट है और जो ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ पृष्ठ 1863.1866 तथा ‘‘अम्बु सागर‘‘ पृष्ठ 63 पर कहा है कि:- 

चार गुरू हैं जग कड़िहारा। सुकृत अंश आदि अधिकारा।।
वंके जी, चतुर्भुज और सहते जी। सुकृति जग में चैथे भेजी।।
जग में नाम होंहि धर्मदासु। जीवन ले राखे सुख वासु।।

भावार्थ:- इस उल्लेख में स्पष्ट है कि श्री धर्मदास जी को ‘‘सुकृति‘‘ कहा है जो चैथे नम्बर पर भेजा है यानि पहले तीन पुण्यात्माओं को गुरूवाई मिल चुकी थी। तब चैथे सुकृति (धर्मदास जी) को परमेश्वर कबीर जी ने गुरूवाई सौंपी है। यह विवरण ‘‘ज्ञान बोध‘‘ पृष्ठ 35 तथा ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105, 113 वाले से मेल करता है जो ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ पृष्ठ 1862-1863 पर कबीर पंथी दामाखेड़ा वालों ने मनघड़न्त कथा बनाई है कि कलयुग में कबीर जी ने चार जनों को गुरू पद सौंपा है। पहले धर्मदास जी हैं और शेष तीन अभी आए नहीं हैं। 2. चतुर्भुज 3. वंके जी 4. सहत जी। यह भी लिखा है कि अभी तक केवल धर्मदास जी ही प्रकट हैं, अन्य आने शेष हैं। यह प्रकरण गद्य भाग में कहानी की तरह मनघड़न्त बनाकर लिखा है जबकि पृष्ठ 1864 (कबीर चरित्र बोध) पर ‘‘चारों गुरूओं की प्रशंसा-उर्दू सेर‘‘ लिखा है जो मनघड़न्त है। उसी के आधार से मनमुखी कथा बनाई है। इस प्रकार कबीर जी के वास्तविक साहित्य की बुरी दशा हुई है। फिर भी सच्चाई प्रत्यक्ष दिखाई देती है। 

यह पृष्ठ 1865 -1866 पर धर्मदास जी की आने वाली संतान से जो गुरू पद प्राप्त करेंगे, उनके आगे साहब लिखा है। यदि ये सेर कबीर साहेब जी ने कहे होते तो साहब कभी नहीं लगाते। सुदर्शन साहब, कमलनाम साहब, धीरजनाम साहब, फिर लिखा है कि चैदहवीं गद्दी वाला करूनाम साहब होगा जबकि वर्तमान में गद्दी पर चैदहवें गुरू श्री प्रकाश मुनि नाम साहब बैठे हैं।

15वें का कोई नाम नहीं, 16वां उदित नाम साहब लिखा है। पाठकों को सहज में ज्ञान हो जाएगा कि सत्य क्या है?

Sat Sahib