प्रथम दिव्य महाप्रलय

प्रथम दिव्य महाप्रलय

जब सौ (100) ब्रह्मलोकिय शिव (काल-ब्रह्म) की मृत्यु हो जाती है तब चारों महाब्रह्मण्डों में बने 20 ब्रह्मण्डों के प्राणियों का विनाश हो जाता है।

तब चारों महाब्रह्मण्डों के शुभ कर्मी प्राणियों (हंसात्माओं) को इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने नकली सत्यलोक आदि लोकों में रख देता है तथा उसी लोक में निर्मित अन्य चार गुप्त स्थानों पर अन्य प्राणियों को अचेत करके डाल देता है तथा तब उसी नकली सत्यलोक से प्राणियों को खाकर अपनी भूख मिटाता है तथा जो प्रतिदिन खाए प्राणियों को उसी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने चार गुप्त मुकामों में अचेत करके डालता रहता है तथा वहाँ पर भी ज्योति निरंजन अपने तीन रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव) धारण कर लेता है तथा वहाँ पर बने शिव रूप में अपनी जन्म-मृत्यु की लीला करता रहता है, जिससे समय निश्चित रखता है तथा सौ बार मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस कारण परब्रह्म के सौ युग का समय इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में पूरा हो जाता है। तत् पश्चात् चारों महाब्रह्मण्डों के अन्दर सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करता है। {जिस एक सृष्टि में सौ ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की आयु अर्थात् परब्रह्म के सौ युग तक सृष्टि रहती है तथा इतनी ही समय प्रलय रहती है अर्थात् परब्रह्म के दो सौ युग (क्योंकि परब्रह्म के एक युग में एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल की मृत्यु होती है) में एक दिव्य महाप्रलय जो काल द्वारा की जाती है का क्रम पूरा होता है} यह काल अर्थात् ब्रह्म प्रथम अव्यक्त कहलाता है (गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में)। दूसरा अव्यक्त परब्रह्म तथा इससे भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त जो पूर्ण ब्रह्म है, गीता अध्याय 8 श्लोक 20 का भाव समझें।

Sat Sahib