कृष्ण जती और दुर्वासा निराहारी थे
कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप जी को पता है कि श्री कृष्ण जी की 8 स्त्रियां तो वे थी जिनसे विवाह किया था, 16 हजार वे स्त्रिायां थी जिनको एक राजा से युद्ध करके छीनकर लाए थे तथा अन्य जो मथुरा-वृंदावन की गोपियां थी, इन सबके साथ श्री कृष्ण जी भोग-विलास (sex) करते थे। एक दुर्वासा ऋषि थे, वे निराहार रहते थे। दिन में केवल एक तिनका दूब घास का खाते थे, दूब को दुर्वा भी कहते हैं। केवल दूब के घास मात्रा तिनके पर आधारित रहने के कारण ऋषि का नाम ‘दुर्वासा‘ प्रसिद्ध हुआ। एक समय कुछ गोपियों को दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने की इच्छा हुई, परंतु दुर्वासा ऋषि का आश्रम यमुना (जमना) दरिया के उस पार था। गोपियों ने श्री कृष्ण जी से दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने तथा उनको भोजन करवाकर साधुभोज का पुण्य लेने की इच्छा व्यक्त की। श्री कृष्ण जी ने कहा कि बहुत अच्छा उद्देश्य है, जाओ। गोपियों ने समस्या बताई कि यमुना नदी में अथाह जल बह रहा है, कैसे पार करेंगी? श्री कृष्ण जी ने कहा कि तुम जमना नदी के किनारे खड़ी होकर ये शब्द कहना कि ‘‘हे जमना दरिया! यदि श्री कृष्ण जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है तो हमें रास्ता दे दो। जब वापिस आओ तो जमना के किनारे कहना ‘‘हे यमुना दरिया! यदि दुर्वासा ऋषि पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ सैंकड़ों गोपियाँ भोजन के थाल लेकर चली। यमुना नदी के किनारे जब ये शब्द बोले कि ‘‘यदि कृष्ण गोपाल जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है (जती दो प्रकार के होते हैं, एक तो जिसने कभी स्त्राी भोग नहीं किया हो, दूसरा जिसने अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्राी से कभी मिलन न किया हो। इसी प्रकार स्त्राी भी दो प्रकार की सती होती है। स्त्रिायों में तीसरे प्रकार की सती उसे कहा जाता है जो अपने पति की मृत्यु होने पर उसके साथ चिता में जिंदा जल जाती थी, मर जाती थी। जैसे सीता जी को सती कहते हैं, उसने रावण को नहीं स्वीकारा, केवल अपने पति श्री रामचन्द्र पर आश्रित रही। कहते हैं ‘‘जती-सती का जोड़ा, कभी नहीं दुख का फोड़ा) तो हमें रास्ता दे दो। उसी समय जमुना नदी का पानी घुटनों तक आए, इतना गहरा रह गया। सब गोपियाँ नदी पार कर गई, फिर से जमुना दरिया किनारों तक भरकर बहने लगी। यह देखकर सर्व गोपियों ने विचार किया कि श्री कृष्ण जी ने हमारे साथ अनेकों बार विलास किया है, यह कैसा अचरज है? सब गोपियाँ यह विचार करती हुई दुर्वासा ऋषि के आश्रम में पहुँची। ऋषि दुर्वासा के सामने भोजन का थाल रखकर भोजन खाने की प्रार्थना की। ऋषि जी ने कहा, देवियो! मैं आहार नहीं करता, केवल वायु पर या एक तिनका दूब घास खा लेता हूँ। उपस्थित सर्व अनुयाईयों ने यही बताया। तब गोपियों ने कहा, ऋषि जी! हम बड़ी श्रद्धा के साथ भोजन बनाकर लाई हैं। आप भोग नहीं लगाओगे तो हमारा दिल टूट जाएगा। यह कहकर बार-बार विनय करने लगी। तब ऋषि दुर्वासा जी ने सबका भोजन सारा का सारा खा लिया। गोपियों को आश्चर्य भी हुआ और अपने भोजन को खाने से मिलने वाले पुण्य से खुशी भी हुई और अपने गाँव को चल पड़ी। यमुना दरिया पर आकर उनको याद आया कि क्या शब्द कहना है? उन्होंने कहा कि ‘‘हे जमुना दरिया! यदि दुर्वासा जी पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ उसी समय यमुना दरिया का पानी घुटनों तक रह गया। सर्व गोपियाँ दरिया पार कर गई। फिर से यमुना दरिया उसी तरह भरकर वेग से बहने लगी।
कृष्ण जी ने गोपियों से पूछा, कहो कैसा रहा सफर? सब गोपियाँ मुस्करवाकर अपने-अपने घर चली गई और बोली आपको सब पता है।
इस कथा का क्या सारांश है?
संत गरीबदास जी (गाँव=छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) को परमेश्वर कबीर जी ऐसे ही मिले थे जैसे सेठ धर्मदास जी को मिले थे। उनको भी सतलोक ले जाकर वापिस छोड़ा था। उनको भी तत्त्वज्ञान बताया था। उनका ज्ञान योग खोला था। संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है:-
गरीब, कृष्ण गोपिका भोग कर, फेर जती कहाया। जाकि गति पाई नहीं, ऐसे त्रिभुवन राया।।
भावार्थ:- श्री कृष्ण जी की रूचि स्त्राी भोग करने की नहीं थी। यह कोई पूर्व का संस्कार था।
उसका निर्वाह किया था। कृष्ण जी विद्वान थे, जान-बूझकर विलास करना उनका उद्देश्य नहीं था।
ऋषि दुर्वासा तप करे, दुर्वा करे आहार। प्रेम भोज गोपियन का खाया, तनिक न लाई वार।।
दुर्वासा पवन आहारी थे, सब भोजन खाया। श्रद्धालु की श्रद्धा पूर्ण कीनी, ताते भोग लगाया।।
भावार्थ:- ऋषि दुर्वासा जी ने गोपियों की श्रद्धावश भोजन किया। उनकी रूचि खाने की नहीं थी। ऐसा करने से व्रत भंग नहीं हुआ।
श्रीमद्भगवत गीता में लिखा है कि योगी कर्म करता हुआ भी अकर्मी होता है। वास्तव में यह सब काल का जाल है। मन काल का सूक्ष्म रूप है। काल ने प्रत्येक प्राणी को धोखे में रखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सौ छल-कपट किए हैं। श्री कृष्ण में प्रवेश करके अनेकों रूप बनाकर काल ब्रह्म स्वयं भोग-विलास करता था। भार श्री कृष्ण जी के सिर पर रख देता था। महिमा श्री कृष्ण जी, श्री राम जी तथा अन्य अपने द्वारा भेजे अवतारों की बनाता है, कार्य स्वयं करता है। सब प्राणी अवतारों को समर्थ मानकर उनके फैन (प्रशंसक) होकर उनकी पूजा करके काल जाल में रह जाते हैं।
ज्ञान सागर के पृष्ठ 56 पर यह भी स्पष्ट किया है कि जिस समय महाप्रलय काल निरंजन करेगा, उस समय ब्रह्मलोक को छोड़कर सब नष्ट हो जाऐंगे। फिर ब्रह्मलोक भी नष्ट होगा।(यहाँ पर अस्पष्ट वर्णन है। प्रलय का वास्तविक ज्ञान पढ़ें।)