दूसरी दिव्य महाप्रलय
इस महाप्रलय के पाँच बार हो जाने के पश्चात् द्वितीय दिव्य महाप्रलय होती है। दूसरी दिव्य महाप्रलय परब्रह्म (अविगत पुरुष/अक्षर पुरुष) करता है। उसमें काल अर्थात् ब्रह्म (क्षर पुरूष) सहित सर्व 21 ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। जिसमें तीनों लोक (स्वर्गलोक-मृत्युलोक-पाताल लोक), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व काल (ज्योति निरंजन-ओंकार निरंजन) तथा इनके लोकों (ब्रह्म लोक) अर्थात् सर्व अन्य 21 ब्रह्मण्डों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं।
विशेष:- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात विष्णु की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव की मृत्यु होती है। 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के बाद एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल (ब्रह्म) की मृत्यु परब्रह्म के एक युग के बाद होती है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है। तब प्रकृति (दुर्गा) सहित काल (ज्योति निरंजन) अर्थात् ब्रह्म तथा इसके इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी विनाश में आते हैं। तब परब्रह्म (दूसरे अव्यक्त) का एक हजार युग का दिन समाप्त होता है। इतनी ही रात्रि व्यतीत होने के उपरान्त ब्रह्म को फिर पूर्ण ब्रह्म प्रकट करता है। गीता अ. 8 श्लोक 17 का भाव ऐसे समझें। परन्तु ब्रह्मण्डों व महाब्रह्मण्डों व इनमें बने लोकों की सीमा (गोलाकार दिवार समझो) समाप्त नहीं होती। फिर इतने ही समय के बाद यह काल तथा माया (प्रकृति देवी) को पूर्ण ब्रह्म (सत्यपुरूष) अपने द्वारा पूर्व निर्धारित सृष्टि कर्म के आधार पर पुनः उत्पन्न करता है तथा सर्व प्राणी जो काल के कैदी (बन्दी) हैं, को उनके कर्माधार पर शरीरों में सृष्टि कर्म नियम से रचता है तथा लगता है कि परब्रह्म रच रहा है {यहाँ पर गीता अ. 15 का श्लोक 17 याद रखना चाहिए जिसमें कहा है कि उत्तम प्रभु तो कोई और ही है जो वास्तव में अविनाशी ईश्वर है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करता है तथा गीता अ. 18 के श्लोक 61 में कहा है कि अन्तर्यामी ईश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्रा (मशीन) के सदृश कर्माधार पर घुमाता है तथा प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।
गीता के पाठकों को फिर भ्रम होगा कि गीता अ. 15 के श्लोक 15 में काल (ब्रह्म) कहता है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा सर्व ज्ञान अपोहन व वेदों को प्रदान करने वाला हूँ।
हृदय कमल में काल भगवान महापार्वती (दुर्गा) सहित महाशिव रूप में रहता है तथा पूर्ण परमात्मा भी जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जेसे वायु रहती है गंध के साथ। दोनों का अभेद सम्बन्ध है परन्तु कुछ गुणों का अन्तर है। गीता अ. 2 के श्लोक 17 से 21 में भी विस्तृत विवरण है। इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म भी प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीवात्मा के साथ रहता है जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी ऊष्णता व प्रकाश का प्रभाव प्रत्येक प्राणी से अभेद है तथा जीवात्मा का स्थान भी हृदय ही है।
विशेष:- एक महाब्रह्माण्ड (जो पाँच ब्रह्माण्डों का समूह है) का विनाश परब्रह्म के 100 वर्षों के उपरान्त होता है। इतने ही वर्षों तक एक महाब्रह्मण्ड में प्रलय रहती है।
काल अर्थात् ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को तो ऐसा जानों जैसे गर्मियों के मौसम में राजस्थान-हरियाणा आदि क्षेत्रों में वायु का एक स्तम्भ जैसा (मिट्टी युक्त वायु) आसमान में बहुत ऊँचे तक दिखाई देता है तथा चक्र लगाता हुआ चलता है। जो अस्थाई होता है। परन्तु गंध तो वायु के साथ अभेद रूप में है। इसी प्रकार जीवात्मा तथा परमात्मा का सुक्ष्म सम्बन्ध समझे। ऐसे ही सर्व प्रलय तथा महाप्रलय के क्रम को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरूष, कविर्देव) से ही होना निश्चित समझे। एक हजार युग जो परब्रह्म की रात्रि है उसके समाप्त होने पर काल (ज्योति निरंजन) सृष्टि फिर से सत्यपुरूष कविर्देव की शब्द शक्ति से बनाए समय के विद्यान अनुसार प्रारम्भ होती है। अक्षर पुरुष(परब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) के आदेश से काल (ज्योति निरंजन) व माया (प्रकृति अर्थात् दुर्गा) को सर्व प्राणियों सहित काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड में भेज देता है तथा पूर्ण ब्रह्म के बनाए विद्यान अनुसार सर्व ब्रह्मण्डों में अन्य रचना प्रभु कबीर जी की कृपा से हो जाती है। माया (प्रकृति)
तथा काल (ज्योति निरंजन) के सूक्ष्म शरीर पर नूरी शरीर भी पूर्ण परमात्मा ही रचता है तथा शेष उत्पत्ति ब्रह्म(काल) अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) के संयोग से करता है। शेष स्थान निरंजन पाँच तत्त्व के आधार से रचता है। फिर काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) की सृष्टि प्रारम्भ होती है। इस प्रकार यह परब्रह्म दूसरा अव्यक्त कहलाता है।}