काल ब्रह्म का स्वर्ग (जन्नत) भी कष्टदायक - मोहम्मद बोध

काल ब्रह्म का स्वर्ग (जन्नत) भी कष्टदायक

आप जी ने पढ़ा कि बाबा आदम जो ईसाई धर्म तथा मुसलमान धर्म के प्रथम पैगंबर हैं। वे साधना करके जिस स्थान पर गए। वहाँ भी सुखी नहीं, कभी हँस रहे थे तो कभी रो रहे थे। अन्य भी उसी स्थान को जन्नत मानकर भक्ति करके प्राप्त करेंगे। यही दशा वहाँ पर उनकी होगी। यदि यह बात सत्य मानें कि कयामत तक कब्रों में रहना पड़ता है तो कयामत तो अभी अरबों वर्षों के पश्चात् आएगी, तब तक भूखे-प्यासे कब्रों में तड़फते रहेंगे। फिर वे उस जन्नत को प्राप्त करेंगे जिसको बाबा आदम प्राप्त करके अशान्त हैं क्योंकि वे वहाँ पर रो रहे हैं और हँस रहे हैं। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को यह निष्कर्ष बताया तो धर्मदास जी परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिरकर दण्डवत् प्रणाम करके रोने लगे। कहा कि हे बन्दी छोड़! आँखें खोल दी। काल का भयंकर जाल है। आपके सब बच्चे हैं। हे परमात्मा! क्या आप हजरत मोहम्मद जी को मिले थे? क्या वे आपकी शरण में आए थे? कृपा मेरे मन में यह जानने की प्रबल इच्छा है। उत्तर = ऊपर लिख दिया है।

कृपया पढ़ें कबीर सागर के अध्याय ‘‘मुहम्मद बोध‘‘ से वाणी:-

धर्मदास वचन

साखी - धर्मदास बीनती करे, कृपा करो गुरूदेव।
नबी मुहम्मद जस भये, सोसब कहियों भेव।।

कबीर वचन

धर्मदास तुम पूछो भल बानी। सो सब कथा कहूँ सहिदानी।।
मिले हम मुहम्मद कूँ जाई। सलाम वालेकम कह सुनाई।।
मुहम्मद बोले वालेकम सलामा। हमें बताओ गाम रूनामा।।
साखी - कहाँ ते आये पीर तुम, क्यों कर किया पयान।
कौन शक्सका हुक्म है, किसका है फरमान।।

मुहम्मद वचन

रमैनी

पीर मुहम्मद सखुन जो खोला। अल्ला हमसे परदै बोला।।
हम अहदी अल्ला फरमाना। वतन लाहूत मोर अस्थाना।।
उन भेजे रूह बारह हजारा। उम्मत के हम हैं सरदारा।।
तिस कारण जो हम चलि आये। सोवत थे सब जीव जगाये।।
जीव ख्वाब में परो भुलाये। तिस कारन फरमान ले आये।।
तमु बूझो सो कौन हो भाई। अपनो इस्म कहो समुझाई।।
साखी - दूर की बाते जो करौ, करते रोजा नमाज।।
सो पहुँचे लाहूत को, खोवे कुल की लाज।।

कबीर वचन

कहैं कबीर सुनो हो पीर। तुम लाहूत करो तागीरा।।
तुम भूले सो मरम न पाया। दे फरमान तुम्हें भरमाया।।
फिर फिर आव फिर फिर जाई। बद अमली किसने फरमाई।।
लाहूत मुकाम बीच को भाई। बिन तहकीक असल ठहराई।।
तुम ऐसे उनके बहुतेरे। लै फरमान जाव तुम डेरे।।
साखी - खोजत खोजत खोजियाँ, हुवा सो गूना गून।
खोजत खोजत ना मिला, तब हार कहा बेचून।।
बेचूँन जग राँचिया, साई नूर निनार।
आखिर करे वक्त में, किसकी करो दिदार।।

रमैनी

तुम लाहूंत रचे हो भाई। अगम गम्य तुम कैसे पाई।।
यह तो एक आदि विसरामा। आगे पाँच आदि निज धामा।।
तहाँ ते हम फरमान ले आये। सब बदफेल को अमल मिटाये।।
उन फरमान जो हमको दीना। तिनका नाम बेचून तुम लीना।।
साखी - साहब का घर दूर है, जासु असल फरमान।
उनको कहो जो पीर तुम, सोइ अमर अस्थान।।

मुहम्मद वचन

कहै मुहम्मद सुनो कबीरा। तुम कैसे पायो अस्थीरा।।
लाहूत मेटि जो अगम बतायो। खुद खुदाय हमहूँ नहिं पायो।।
हम जानैं खुद आपै आही। तुम कुदरत कर थापो ताही।।
हम तो अर्श हाजिरी आयो। तुम तो कुदरत से ठहराये।।
तुम्हरे कहे भरम मोहि आयो। खुद खुदाय तुम दूर बतायो।।
आप सुनाओ खुदकी बानी। आलम दुनियाँ कहो बखानी।।
लाहूत मुकाम हम निजकर जाना। सो तो तुम कुदरत कर ठाना।।
हलकी मुलकी बासरी भाई। तीन हुक्म अल्ला फरमाई।।
साखी - साई मुरशिद पीर है, साँचा जिस फरमान।
हलकी मुलकी बासरी, तीन हुकुम कर मान।।

कबीर वचन

सुन मुहम्मद कहूं खुदवाणी। खुद खोदाय की कहूँ निशानी।।
कादिर थे तब कुदरत नाहीं। कुदरत थी कादिर के माहीं।।
ख्वार सभी को चीन्हो भाई। असल रूह को देउँ बताई।।
असल रूह की दीदार जो पावे। पावे निज मुसलमान कहावे।।
हो आवाज जहां परदा पोशी। है वह मर्द कि है वह जोशी।।
जब लग तख्त नजर नहीं आवे। दिल विश्वास कौन विधि पावे।।
जब खुद की खबर न पावे। तब लग कुदरत भ्रम ठहरावे।।
हाल माशूक नजर जो आवै। एक निगाह दीदार जो पावै।।
जो तुम कहा हमारा मानो। तो हम तुमते निर्णय ठानो।।
साखी - यह प्रपंच बेचून का, तुमते कहा न भेव।।
आप गुप्त होइ बैठा, तुम चार करत हो सेव।।

मुहम्मद बोध

कहैं मुहम्मद सुन खुद अहदी। इल्म लद्दुनी कहु बुनियादी।।
जब नहिं पिण्ड ब्रह्माण्ड अस्थूला। तब ना हतो सृष्टि को मूला।।
तादिन की कहिय उपतानी। आदि अंत और मध्य निशानी।।

साखी - बुजरूग हकीकत सब कहो, किस विधि भया प्रकाश।
जब हम जाने आदि को, तो हमहूँ बाँधे आश।।

कबीर वचन

सुनो मुहम्मद सांचे पीरा। समरथ हुकुम खुद आदि कबीरा।।
अब हम कहें सुनो चितलायी। आदि अन्त सब कहों बुझायी।।
प्रथम समरथ आदि अकेला। उनके संग हता नहिं चेला।।
साखी - वाहिदन थे तब आप में, सकल हतो तेहि माँह।
ज्यौं तरूवर के बीज में, पुष्प पात फल छाँह।।

चैपाई

निरंजन भये राज अधिकारी। तिनके चार अंश सेवकारी।।
चार ज्ञानते चारो वेदा। तिनते चारो भये कतेबा।।
मूल कुरान वेद की वानी। सो कुरान तुम जग में आनी।।
हक्क कुरान जो तुमको दीना। हद हुक्म तुम आपन कीना।।
चार कतेब के चारों अंशा। तिनते कहो भिन्न-भिन्न बंशा।।
वेद पढावत ब्रह्मा आये। ऋग वेद को नाम लखाये।।
दूसर यजुरवेदकी वानी। भक्ति ज्ञान सो कीन बखानी।।
तीसर सामवेद की वानी। यज्ञ होम तिन कीन बखानी।।
चैथ अथर्बन गुप्त छपाये। तौन हुक्म तुम जगमें आये।।
ऐकै मूल कुरान में चारी। चार बीर तुम हो सरदारी।।
जब्बूर किताब दाऊद ने पाई। नासूत मोकाम रहै ठहराई।।
तौरेत कीताब मूसाने पाई। मलकूत मोकाम रहै ठहराई।।
इंजील किताब ईशा ने पाई। जबरूत मोकाम रहै ठहराई।।
फुरकान किताब नबी तुम पाई। लाहूत मोकाम रहै लौलाई।।
कुरान बेहद को मरम न पावै। बिन देखे विश्वास क्या आवै।।
चार मोकाम किताब है चारी। पंचयें नाम अचिंत सँवारी।।
तहँते आइ रूह बारह हजारी। तहां अचिंत गुप्त व्योहारी।।
साखी - पीर औलिया थाकिया, यह सब उरले पीर।।
समरथ का घर दूर है, तिनको खोजो बीर।।

मारफत चैपाई

ओवल मोकाम नासूत ठेकाना। दूजा मोकाम मलकूत जो जाना।।
सेउम मोकाम जबरूत ठेकाना। चहारूम मोकाम लाहूत बखाना।।
पंचये मोकाम हाहूत अस्थाना। छठे मोकाम सोहं जो माना।।
हफतुम मोकाम बानी अस्थाना। अठयें मोकाम अंकूर ठेकाना।।
नवयें मुकाम आहूत निशानी। दसयें मोकाम पुरूष रजधानी।।

बेतुक

औवल शरी अत्।1। तरीकत् 2। हकीकत् 3। मरफत् 4। मरौवत् 5। ध्यान दोरहिअत् 6। जुलफकार चन्द्र गेटा 7। हुकुममुरतद 8। देयना कासो यही अंत् 9। सच पावे समरथ काय 10। अंकार ओंकार कलिमा नवी सचुपावै देखा हद बैहद

मुहम्मद वचन

तुम कबीर भेद अधिकाये। खुद समरथ की खबरि जो ल्याये।।
अब तुमको हम बूझैं अंतू। सो कहिये खुद अहदी संतू।।
को तुम आहु कहांते आये। क्यों तुम अपना बर्ण छिपाये।।
सात सुरति समरथ निमाई। यह अस्थान रहो की जाई।।
यती मारफत कहु दुरवेशा। हम मानैं तुमरो उपदेशा।।
सात सुरति केहि माहि समाई। जिव बोधे सो कह चलि जाई।।
समरथ गम तुमु साँच कबीरा। समरथ भेद कहो मति धीरा।।
साखी - मेरे शंका बाढिया, थाके वेद कुरान।
वाहिद कैसे पाइये, समरथ को मक्कान।।

सत्य कबीर वचन

सुनो मुहम्मद कहों बुझाई। जो खुद आदि अस्थान है भाई।।
जो जो हुकुम समरथ फरमाई। सो सो हुकुम हम आनि चलाई।।
सुर नर मुनि को टेरि सुनाये। तुमको बहुत बार समुझाये।।
तुम पर मोह क्षर ने डारा। तेहि कारण आये संसारा।।
सोलह असंख जुग जबै सिराई। सोलह असंख उत्पत्ति मिटि जाई।।
सात सुरति तब लोकहि जाई। जिव बोधो तेहि माह समाई।।
सात सुन्य तजि ते अस्थाना। ते सब मिटे होय घमसाना।।
वेद कतेव कि छोड़ो आशा। वेद कतेव में क्षर प्रकाशा।।
तीन बार तुम जग में आये। फिर फिर क्षर ने भरमाये।।
क्षर चीन्हिके छोडो भाई। तीन अंश क्षर निरमाई।।
ब्रह्मादिका सृष्टि आपको कीना। जीव वृष्टि तीरथ व्रत दीना।।
माया वृष्टि ईश्वरी जानो। सबमें आतम एक समानो।।
साखी-खोजो खुद समरत्थको, जिन किया सब फरमान।
पीर मुहम्मद तहँ चलो, सोई अमर अस्थान।।

मुहम्मद वचन

पीर मुहम्मद मुख तब मोरा। कछु नहिं चलै तुम्हारी जोरा।।
क्षर हुक्म को मेटनहारा। चार वेद जिन कीन पसारा।।

कबीर वचन

सुनिये सखुन मुहम्मद पीरा। हम खुद अहदी आदि कबीरा।।
मेटों क्षरको बिस्तारा। मेटो निरंजन सकल पसारा।।
मेटो अचिंतकी रजधानी। मेटो ब्रह्मा वेद निशानी।।
चैदह जमको बांधि नचावों। मृतु अंधा मगहर ले आवों।।
धर्मरायते झगर पसारा। निरंजन बांधि रसातल डारा।।
वे कतेब को अमल मिटावों। घर घर सार शब्द फैलावों।।
समरथ हुक्म चलै सब माही। ब्यापै सत्य असत्य उठि जाही।।

मुहम्मद वचन

पीर मुहम्मद बोले बानी। अगम भेद काहू नहिं जानी।।
सुनाकान नहिं आखिन देखा। बिन देखे को करे विवेखा।।
जो नहिं देखो अपने नैना। कैसे मानो गुरूको बैना।।
जो तुम खुद अहदी ह्नै आये। हुक्म हजूर फरमान ले आये।।
जौन राह से तुम चलि आवो। सोई राह मोकहँ बतलावो।।
हँसन को अस्थान चिन्हावो। समरथ को मोहि लोक देखावो।।
साखी - हंसन को अस्थान लखि, तब मानुँ फरमान।।
जो समरथ को हुक्म है, सो मेरे परवान्।।

कबीर वचन

सुनो मुहम्मद कहों बुझाई। साहेब तुमको देउँ बताई।।
चलै सैल को दोनों पीरा। एक मुहम्मद एक कबीरा।।

(नासूत) मोकाम 1

भूमि से चले जहाँ पहुँचे जाई। मानसरोवर तहां कहाई।।
तहँ नासूत आहि मोकामा। नबी कबीर पहुँच तेहि धामा।।
तहँ दाऊद पयंबर होई। जब्बूर किताब पढे तहँ सोई।।
तहाँ सलामालेक सोई कीना। दस्तावोस उनहु उठि लीना।।

(मलकूत) मोकाम 2

तहवाँते पुनि कीन पयाना। दूसरा मुकाम वैकुंठ प्रमाना।।
तहवाँ पहुँच बैठे ऋषि दुर्बासा। देव सबै बैठे तेहि पासा।।
वह वैकुंठ विष्णु अस्थाना। मलकूत मोकाम मूसाको जाना।।
मूसा पैगम्बर पढै किताबा। उसका नाम तौरेत किताबा।।
सलामालेक तहाँ हम कीना। दस्ताबोस उनहु उठि लीना।।

(जबरूत) मोकाम 3

वैकुण्ठ ते आगे लायो डोरी। सुमेरते सुन्य अठारह करोरी।।
येतो अधर सुन्य अस्थाना। जबरूत मोकाम ईसाको जाना।।
ईसा पैगम्बर पढै किताबा। उसका नाम इंजील किताबा।।
सलामालेक तहाँ हम कीना। दस्ता बोस उनहु उठि लीना।।
तहँवा बैठि विस्वंभर राई। वही पीर तो वही खुदाई।।
यह विष्णुपुरी है भाई। यामें भी एक बैकुण्ठ बनाई।।
विष्णु है यहाँ का प्रधाना। सुन मुहम्मद ज्ञान विज्ञाना।।
उहँते अधर सून्य है भाई। ताकी शोभा कही न जाई।।

(लाहूत) मोकाम 4

महाशून्यको लागी डोरी। ग्यारह पालँग तहाँ ते सोरी।।
लाहूत मोकाम कहावै सोई। जो देखे बहुतै सुख होई।।
रह महादेव पार्बति संगा। लाहुत मुकाम देख मन चंगा।।
यह मुहम्मद तुम्हरो डेरा। गण गंधर्व सब यहाँ चेरा।।
मुस्तफा पैगंबर बैठे तहाँ। फुरकान किताब पढत थे जहाँ।।
सलामालेक तहाँ हम कीना। दस्ताबोस उनहु उठि लीना।।
देखत हौ मुहम्मद अस्थाना। तुम बेचून कहो यही ठेकाना।।
सब फिरिश्ते सलामालेक कीना। तब हम आगे का पग दीना।।

(हाहूत) मोकाम 5

तहँते चले अचिंत ठेकाना। एक असंख्य सुन्य परमाना।।
ब्रह्मापुरी है हाहूत मोकामा। आदम का यहाँ विश्रामा।।
हाहूत मोकाम को वही ठेकाना। आगे है सोहं बंधाना।।

(बाहूत) मोकाम 6

तीन असंख्य शून्य परमानी। बाहूत मोकाम सो कहो बखानी।।
यह देवी का अस्थाना। गुप्तभेद कोई ना जाना।।
नवी कबीर चले तेहि आगे। मूल सुरति बैठे अनुरागे।।

(फाहूत) मोकाम 7

पांच असंख सुन्न विचआही। सप्तम मोकाम कहत है ताही।।
संगम धाम दुर्गा के आगे। यको तुम फाहूत अनुरागे।।
फाहूत मोकाम तोहे बताया। भिन्न भेद कह समझाया।।

(राहूत) मोकाम 8

इच्छा सुरति के पहुँचे द्वीपा। चार असंख है लोक समीपा।।
सतगुरू रूप काल दयाला। एक बुगा और एक काला।।
ताको नाम राहूत मोकामा। नबी कबीर पहुँचे तेहि ठामा।।

(आहूत) मोकाम 9

तहँाते सहज द्वीप परमाना। दोय असंख तहाँते जाना।।
मुकाम निरंजन धामा। आप गुप्त ज्योति प्रगटाना।।
ताहि मोकाम नाम आहूता। सोभा ताकी देख बहूता।।

(जाहूत) मोकाम 10

साखी - पहुँचे जायके लोक जहँ, सन्त असंख दस लाख।।
अक्षर धाम जाहूत मुकामा। शंख इक्कीस लोक अकाना।।
सो मोकाम जाहूत का, दस मोकाम यह भाख।।

चैपाई

सलामवालेकम तहाँ हम कीना। दस्ताबोस उनहु उठिलीना।।
तहँते अमरलोकको छोरा। नबी कवीर पहुँच तेहि ठौरा।।
अमरलोक के हंस सब आये। तिनकी सोभा कही न जाये।।
भरि भरि अंक मिले तहँ आये। देखि मुहम्मद रहे भुलाये।।
सब मिलि हंस गये पुनि तहँवा। साहेब तखत पै बैठे जहँवा।।
जगर मगर छतर उजियारा। आम धनी का कहो बिहारा।।
असंख भानु पुरूष उजियारा। अमरलोक को कहो विस्तारा।।
सकल हंस तहँ दरशन पाई। तिनकी सोभा बरनि न जाई।।
तहँवा जाय बंदगी कीना। नबी भये जो बहुत अधीना।।

मुहम्मद वचन

चूक हमार बकस कर दीजै। जो तुम कहो सोई हम कीजै।।

पुरूष वचन

कहु मुक्तामनि बेगि तुम आये। दूसर कौन सँग ले आये।।

दश मुकामी रेखता

चला जब लोकको शाक सब त्यागिया हंसको रूप सतगुरू वनायी। भृग ज्यों कीट को पलटि भृग किया आप समर दै ले उड़ायी। छोडि नासूत मलकूतको पहुंचिया विष्णु की ठाकुरी दीख जायी। इन्द्र कुबेर जहाँ रंभको नृत्य है देव तेतीस कोटि रहायी।।1।। छाड़ि वैकुंठ को हंस आगे चला शुन्य में ज्योति जगमग गायी। ज्योति परकाश में निरखि निस्तत्त्वको आप निर्भय हुआ भय मिटायी। अलख निर्गुण जेहि वेद स्तुति करै तिनहूं देव को हैं पिताई। भगवान तिनके परे श्वेत मूरति धरे भागको आन तिनको रहायी।।2।। चार मुक्काम पर खंड सोरह कहै अंडको छोर ह्यां ते रहायी। अंड के परे स्थान अचिंत को निरखिया हंस जब उहां जायी। सहस औ द्वादशै रूह है स में करत कल्लोल अनहद बजायी। तासुके बदनकी कौन महिमा कहौं भासती देह अति नूर छायी।।3।। महल कंचन बने मणिक तामें जडे़ बैठ तहँ कलश अखंड छाजै। अचिंत के परे स्थान सोहंका हंस छत्तीस तहँवा विराजै। नूरका महल और नूरकी भूमि है तहां आनन्द सो द्वन्द्व भाजै। करत कल्लोल बहुत भांति से संग यक हंस सोहंग के समाजै।।4।। हंस जब जात षट चक्रको वेधि के सातमुक्काम में नजर फेरा। सोहंग के परे सुरति इच्छा कही सहसवामन जहँ हंस हेरा। रूपकी राशिते रूप उनको बना नहीं उपमा इन्दु जौनिवेरा। सुरति से भेटिकै शब्द को टेकि चढ़ि मुक्काम अंकूर केरा।।5।। शून्य के बीच में बिमल बैकुण्ठ जहाँ सहज अस्थान है गैब केरा। नवो मुक्काम यह हंस जब पहुंचिया पलक बिलंब ह्नां कियो डेरा। तहाँसे डोरि मकरतार ज्यों लागिया ताहि चढि हंस गो दै दरेरा।। भये आनन्द से फंद सब छोड़िया पहुँचिया जहाँ सत्यलोक मेरा।।6।। हंसिनी हंस सब गाय बजायकै साजिकै कलश मोहे लेन आये। युगन युग बीछुरे मिले तुम आहकै प्रेम करि अंगसो अंग लाये। पुरूष ने दर्श जब दीन्हिया हंसको बहु जनमकी तब नशाये। पलटिकै रूप जब एकसे कीन्हिया मनहंु तब भानु षोडश उगाये।।7।। पुहुप के द्वीप पीयूष भोजन करै शब्द की देह जब हंस पायी पुहुप के सेहरा हंस औ हंसिनी सच्चिदानन्द शिर छत्राछायी। दिपैं बहु दामिनी दमक बहु भांति की जहाँ घन शब्द को घमंड लायी। लगे जहाँ वरषने गरज घन घोरिकै उठत तहँ शब्द धुनि अति सोहायी।।8।। सुन सोहं हंस तहँ यूत्थके यूत्थ ह्नै एकही नूर यक रंग रागै। करत बिहार मन भामिनी मुक्ति में कर्म औ भर्म सब दूरि भागै। रंक और भूप कोइ परखि आवै नहीं करत कल्लोल बहु भाँति पागे। काम औ क्रोध मद लोभ अभिमान सब छाँड़ि पाखण्ड सत शब्द लागे।।9।। पुरूष के बदन की कौन महिमा कहौं जगत् में ऊपमांय कछु नाहिं पायी। चन्द्र औ सूर गण ज्योति लागै नहीं एकही नक्ख परकाश भाई। पान परवान जिन बंशका पाइया पहुंचिया पुरूष के लोक जायी। कहैं कब्बीर यहि भांति सो पाइहौ सत्य की राह सो प्रकट गायी।।10।।

{यही प्रकरण अध्याय ज्ञान प्रकाश के पृष्ठ 57-58 पर है तथा अमर मूल के पृष्ठ 202 और ज्ञान स्थिति बोध के पृष्ठ 83 पर परमेश्वर के सब अंगों का वर्णन है। कण्ठ, कान, हाथ, भाल यानि मस्तक, सिर, आँख, गर्दन (ग्रीव), कपोल (होठ), मुख, भुजा, कटि (कमर), नाभि, पिंडी, जाँघ, नख (नाखून), सिख (चोटी यानि सिर का ऊपर वाला भाग) सब वर्णन है।}

Sat Sahib