अब्राहिम अधम सुल्तान के विषय में संत गरीबदास जी के विचार - सुल्तान बोध

"अब्राहिम अधम सुल्तान के विषय में संत गरीबदास जी के विचार"

कबीर परमेश्वर जी ने अपने शिष्य गरीबदास जी को बताया कि:-

अमर लोक से सतगुरू आए, रूप धरा करवांना।
ढूँढ़त ऊँट महल पर डोलैं, बूझत शाह ब्याना।।(टेक)
हम कारवान होय आये। महलौं पर ऊंट बताये।।(1)
बोलैं पादशाह सुलताना। तूं रहता कहां दिवाना।।(2)
दूजैं कासिद गवन किया रे। डेरा महल सराय लिया रे।।(3)
जब हम महल सराय बताई। सुलतानी कूं तांवर आई।।(4)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। ये बसे सराय में गीदी।।(5)
ऐसैं ही तूं चलि जाई। यौं हम महल सराय बताई।।(6)
अरे कोई कासिद कूं गहि ल्यावै। इस पंडित खांनंे द्यावै।।(7)
ऊठे पादशाह सुलताना। वहां कासिद गैब छिपाना।।(8)
तीजै बांदी होय सेज बिछाई। तन तीन कोरडे़ खाई।।(9)
तब आया अनहद हांसा। सुलतानी गहे खवासा।।(10)
मैं एक घड़ी सेजां सोई। तातैं मेरा योह हवाल होई।।(11)
जो सोवैं दिवस रू राता। तिन का क्या हाल बिधाता।।(12)
तब गैबी भये खवासा। सुलतानी हुये उदासा।।(13)
यौह कौन छलावा भाई। याका कछु भेद न पाई।।(14)
चैथे जोगी भये हम जिन्दा। लीन्हें तीन कुत्ते गलि फंदा।।(15)
दीन्ही हम सांकल डारी। सुलतानी चले बाग बाड़ी।।(16)
बोले पातशाह सुलताना। कहां सैं आये जिन्द दिवाना।।(17)
ये तीन कुत्ते क्या कीजै। इनमंे सैं दोय हम कूं दीजै।।(18)
अरे तेरे बाप दादा है भाई। इन बड़ बदफैल कमाई।।(19)
यहां लोह लंगर शीश लगाई। तब कुत्यौं धूम मचाई।।(20)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। तूं समझै क्यूं नहीं गीदी।।(21)
अब तुम तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढने कूं शूली।।(22)
जोगी जिन्दा गैब भया रे। हम ना कछु भेद लह्या रे।।(23)
बोले पादशाह सुलताना। जहां खड़े अमीर दिवाना।।(24)
येह च्यार चरित्रा बीते। हम ना कछु भेद न लीते।।(25)
वहां हम मार्या ज्ञान गिलोला। सुलतानी मुख नहीं बोला।।(26)
तब लगे ज्ञान के बानां। छाड़ी बेगम माल खजाना।।(27)
सुलतानी जोग लिया रे। सतगुरु उपदेश दिया रे।।(28)
छाड्या ठारा लाख तुरा रे। जिसे लाग्या माल बुरा रे।।(29)
छाड़े गज गैंवर जल हौडा। अब भये बाट के रोड़ा।।(30)
संग सोलह सहंस सुहेली। एक सें एक अधिक नवेली।।(31)
गरीब, अठारह लाख तुरा जिन छोड़े, पद्यमनी सोलह सहंस।
एक पलक में त्याग गए, सो सतगुरू के हैं हंस।।(32)
रांडी-ढ़ांडी ना तजैं, ये नर कहिए काग।
बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।(33)
छाड़े मीर खान दीवाना, अरबों खरब खजाना।।(34)
छाडे़ हीरे हिरंबर लाला। सुलतानी मोटे ताला।।(35)
जिन लोक पर्गंणा त्यागा। सुनि शब्द अनाहद लाग्या।।(36)
पगड़ी की कौपीन बनाई। शालौं की अलफी लाई।।(37)
शीश किया मुंह कारा। सुलतानी तज्या बुखारा।।(38)
गण गंधर्व इन्द्र लरजे। धन्य मात पिता जिन सिरजे।।(39)
भया सप्तपुरी पर शांका। सुलतानी मारग बांका।।(40)
जिन पांचैं पकड़ि पछाड्या। इनका तो दे दिया बाड़ा।।(41)
सुनि शब्द अनाहद राता। जहां काल कर्म नहीं जाता।।(42)
नहीं कच्छ मच्छ कुरंभा। जहां धौल धरणि नहीं थंभा।।(43)
नहीं चंद्र सूर जहां तारा। नहीं धौल धरणि गैंनारा।।(44)
नहीं शेष महेश गणेशा। नहीं गौरा शारद भेषा।।(45)
जहां ब्रह्मा बिष्णु न बानी। नहीं नारद शारद जानी।।(46)
जहां नहीं रावण नहीं रामा। नहीं माया का बिश्रामा।।(47)
जहां परसुराम नहीं पर्चा। नहीं बलि बावन की चर्चा।।(48)
नहीं कंस कान्ह कर्तारा। नहीं गोपी ग्वाल पसारा।।(49)
यौंह आँवन जान बखेड़ा। यहाँ कौंन बसावै खेड़ा।।(50)
जहाँ नौ दशमा नहीं भाई। दूजे कूं ठाहर नाँही।।(51)
जहां नहीं आचार बिचारा। ना कोई शालिग पूजनहारा।।(52)
बेद कुराँन न पंडित काजी। जहाँ काल कर्म नहीं बाजी।।(53)
नहीं हिन्दू मुसलमाना। कुछ राम न दुवा सलामा।।(54)
जहाँ पाती पान न पूजा। कोई देव नहीं है दूजा।।(55)
जहाँ देवल धाम न देही। चीन्ह्यो क्यूं ना शब्द सनेही।।(56)
नहीं पिण्ड प्राण जहां श्वासा। नहीं मेर कुमेर कैलासा।।(57)
नहीं सत्ययुग द्वापर त्रोता। कहूं कलियुग कारण केता।।(58)
यौह तो अंजन ज्ञान सफा रे। देखो दीदार नफा रे।।(59)
निःबीज सत निरंजन लोई। जल थल में रमता सोई।।(60)
निर्भय निरगुण बीना। सोई शब्दअतीतं चीन्हा।।(61)
अडोल अबोल अनाथा। नहीं देख्या आवत जाता।।(62)
हैं अगम अनाहद सिंधा। जोगी निरगुण निरबंधा।।(63)
कछु वार पार नहीं थाहं। सतगुरु सब शाहनपति शाहं।।(64)
उलटि पंथ खोज है मीना। सतगुरु कबीर भेद कहैं बीना।।(65)
यौह सिंधु अथाह अनूपं। कछु ना छाया ना धूपं।।(66)
जहां गगन धूनि दरबानी। जहां बाजैं सत्य सहिदानी।।(67)
सुलतान अधम जहां राता। तहां नहीं पांच तत का गाता।।(68)
जहां निरगुण नूर दिवाला। कछु न घर है खाला।।(69)
शीश चढाय पग धरिया। यौह सुलतानी सौदा करिया।।(70)
सतगुरु जिन्दा जोग दिया रे। सुलतानी अपन किया रे।।(71)
कहैं दास गरीब गुरु पूरा। सतगुरु मिले कबीरा।।(72)

‘‘अब्राहिम अधम सुल्तान की परीक्षा‘‘

सुल्तान अधम ने एक साधु की कुटिया देखी जो कई वर्षों से उस स्थान पर साधना कर रहा था। अब्राहिम उसके पास गया। वह साधक बोला कि यहाँ पर मत रहना, यहाँ कोई खाना-पानी नहीं है। आप कहीं और जाइये। सुल्तान अब्राहिम बोला कि मैं तेरा मेहमान बनकर नहीं आया। मैं जिसका मेहमान (परमात्मा का मेहमान) हूँ, वह मेरे रिजक (खाने) की व्यवस्था करेगा। इन्सान अपनी किस्मत साथ लेकर आता है। कोई किसी का नहीं खाता है। हे बेइमान! तू तो अच्छा नागरिक भी नहीं है। तू चाहता है परमात्मा से मिलना। नीयत ठीक नहीं है तो इंसान परमार्थ नहीं कर सकता। बिन परमार्थ परमात्मा नहीं मिलता। जिसने जीवन दिया है, वह रोटी भी देगा। अब्राहिम थोड़ी दूरी पर जाकर बैठ गया। शाम को आसमान से एक थाल उतरा जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की सब्जी, हलवा, खीर, रोटी तथा जल का लोटा था। थाली के ऊपर थाल परोस (कपडे़ का रूमाल) ढ़का था। अब्राहिम ने थाली से कपड़ा उठाया और पुराने साधक को दिखाया। उस पुराने साधक के पास आसमान से दो रोटी वे भी जौ के आटे की और एक लोटा पानी आए। यह देखकर पुराना साधक नाराज हो गया कि हे प्रभु! मैं तेरा भेजा हुआ भोजन नहीं खाऊँगा। आप तो भेदभाव करते हो। मुझे तो सूखी जौ की रोटी, अब्राहिम को अच्छा खाना पुलाव वाला भेजा है। परमात्मा ने आकाशवाणी की कि हे भक्त! यह अब्राहिम एक धनी राजा था। इसके पास अरब-खरब खजाना था। इसकी 16 हजार रानियां थी, बच्चे थे। अमीर मंत्राी तथा दीवान थे। नौकर-नौकरानियां थी। यह मेरे लिए ऐसे ठाठ छोड़कर आया है। इसको तो क्या न दे दूँ। तू अपनी औकात देख, तू एक घसियारा था। सारा दिन घास खोदता था। तब एक टका मिलता था। सिर पर गट्ठे लेकर नित बोझ मरता था। न बीबी (स्त्राी) थी, न माता थी, न कोई पिता तेरा सेठ था। तुझको मैं पकी-पकाई रोटियां भेजता हूँ। तू फिर भी नखरे करता है। यदि तू मेरी रजा में राजी नहीं है तो कहीं और जा बैठ। यदि भक्ति से विमुख हो गया तो तेरा घास खोदने का खुरपा और बाँधने की जाली, ये रखी जा खोद घास और खा। यदि (परमात्मा से) कुछ हासिल करना है तो मेरी रजा से बाहर कदम मत रखना। भक्त में यदि कुब्र (अभिमान) है तो वह परमात्मा से दूर है। यदि बंदगान (भगवान के भक्त) में इज्जत (आदर, सम्मान आधीनी) है तो वह हक्क (परमेश्वर) के करीब है।

सुल्तान अधम ने परमेश्वर से अर्ज की कि हे दाता! मैं मेहनत करके निर्वाह करूँगा। आपकी भक्ति भी करूँगा। आप यह भोजन न भेजो। रूखी-सूखी खाकर मैं आपके चरणों में बना रहना चाहता हूँ। यह भोजन आप भेज रहे हो। यह खाकर तो मन में दोष आएंगे, कोई गलती कर बैठूंगा। यह अर्ज वह पुराना भक्त भी सुन रहा था। उसकी गर्दन नीची हो गई। परमात्मा से अर्ज की, प्रभु! मेरी गलती को क्षमा करो। मैं आपकी रजा में प्रसन्न रहूँगा। उस दिन से अब्राहिम जंगल से लकड़ियां तोड़कर लाता, बाजार में बेचकर खाना ले जाता। आठ दिन तक उसी को खाता और भक्ति करता था।

‘‘भक्त हो नीयत का पूरा‘‘

कुछ वर्ष पश्चात् अब्राहिम भ्रमण पर निकला। एक सेठ का बाग था। उसको नौकर की आवश्यकता थी। सुल्तान को पकड़कर बाग की रखवाली के लिए रख दिया। एक वर्ष पश्चात् सेठ बाग में आया। उसने अब्राहिम से अनार लाने को कहा। अनार लाकर सेठ को दे दिए। अनार खट्टे थे। सेठ ने कहा कि तेरे को एक वर्ष में यह भी पता नहीं चला कि मीठे अनार कैसे होते हैं? सुल्तान ने कहा कि सेठ जी! आपने मेरे को बाग की सुरक्षा के लिए रखा है, बाग उजाड़ने के लिए नहीं। यदि रक्षक ही भक्षक हो जाएगा तो बात कैसे बनेगी? मैंने कभी कोई फल खाया ही नहीं तो खट्टे-मीठे का ज्ञान कैसे हो सकता है? सेठ ने अन्य नौकरों से पूछा तो नौकरों ने बताया कि यह नौकर तो जो रोटी मिलती है, बस वही खाकर बाग के चारों ओर कुछ बड़बड़ करता घूमता रहता है। हमने गुप्त रूप से भी देखा है। इसने कभी कोई फल नहीं तोड़कर खाया है, न नीचे पड़ा उठाया है। किसी नौकर ने बताया कि यह बलख शहर का राजा है। मैंने 10 वर्ष पहले इसको जंगल में शिकार के समय देखा था। जब मैंने इससे पूछा कि लगता है आप बलख शहर के सुल्तान अब्राहिम अधम हो। पहले तो मना किया, फिर मैंने बताया कि आपको शिकार के समय जंगल में देखा था। आपकी सेना में मेरा साला याकूब बड़ा अधिकारी है। उसने बताया कि राजा ने सन्यास ले लिया है। उसका बेटा गद्दी पर बैठा है। तब इसने कहा कि किसी को मत बताना। सेठ ने चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और ढे़र सारा धन देकर कहा कि आप यह धन लेकर अपना निर्वाह करो, भक्ति भी करो। मेरे घर रहो या बाग में महल बनवा दूँ, यहाँ रहकर भक्ति करो। सुल्तान धन्यवाद कहकर चल पड़ा।

‘‘दास की परिभाषा‘‘

एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा किः-

दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।।

सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी नहीं चलाता। जो प्रभु देता है, उसकी आज्ञा जानकर खाता हूँ। मैं अपने को दास मानकर सेवा करता हूँ। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए गुरूदेव को प्रसन्न करना अनिवार्य होता है। उसके पश्चात् वे सर्व शिष्य दास भाव से रहकर अपने गुरू जी की आज्ञा का पालन करने लगे तथा आपस में अच्छा व्यवहार करने लगे। अपना जीवन सफल किया।

Sat Sahib