अनुराग सागर पृष्ठ 10 तथा 11 का सारांश:-
(अनुराग सागर के पृष्ठ 10 से वाणी नं. 11 से 20 शुद्ध करके लिखी हैं।)
नाम महात्मय
जबलग ध्यान विदेह न आवे। तब लग जिव भव भटका खावे।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोइ लख पावे मिटे संदेहा।।
छन इक ध्यान विेदेह समाई। ताकी महिमा वरणि न जाई।।
काया नाम सबै गोहरावे। नाम विदेह विरले कोई पावै।।
जो युग चार रहे कोई कासी। सार शब्द बिन यमपुर वासी।।
नीमषार बद्री परधामा। गया द्वारिका का प्राग अस्नाना।।
अड़सठ तीरथ भूपरिकरमा। सार शब्द बिन मिटै न भरमा।।
कहँ लग कहों नाम पर भाऊ। जा सुमिरे जमत्रास नसाऊ।।
नाम पाने वाले को क्या मिलता है?
सार नाम सतगुरू सो पावे। नाम डोर गहि लोक सिधावे।।
धर्मराय ताको सिर नावे। जो हंसा निःतत्त्व समावे।।
सार शब्द क्या है?
(अनुराग सागर के पृष्ठ 11 से वाणी)
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।
तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।
कहन सुनन को शब्द चैधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।
पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।
बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।
सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।
नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।
हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।
पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।
सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।
अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।
ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।
आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।
धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
सार शब्द (नाम) जपने की विधि गुरूगमभेद छन्द
अजपा जाप हो सहज धुना, परखि गुरूगम डारिये।।
मन पवन थिरकर शब्द निरखि, कर्म ममन मथ मारिये।।
होत धुनि रसना बिना, कर माल विन निर वारिये।।
शब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिये।।
सोरठा - शोभा अगम अपार, कोटि भानु शशि रोम इक।।
षोडश रवि छिटकार, एक हंस उजियार तनु।।
धर्मदास का आनन्दोद्गार
हे प्रभु तब चरण बलिहारी। किये सुखी सब कष्ट निवारी।।
चक्षुहीन जिमि पावे नैना। तिमि मोही हरष सुनत तव नैना।।
अनुराग सागर पृष्ठ 10-11 का भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने नाम की महिमा बताई है। कहा है कि हे धर्मदास! जब तक विदेह का ध्यान साधक को नहीं आता, तब तक जीव संसार में जन्म-मरण चक्र में भटकता रहता है। यहाँ पर विदेह का अर्थ है परमेश्वर। जैसे धर्मदास जी से परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मेरे शरीर को परखकर ध्यान से देख, मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व का नहीं है। धर्मदास जी ने हाथ-पैर पकड़कर दबाए तो रबड़ की तरह नरम थे। परमेश्वर ने कहा था कि मैं विदेही हूँ। (राजा जनक को भी विदेही कहा गया है।) विदेह का अर्थ सामान्य व्यक्ति के शरीर से भिन्न है। वह विदेह है। भावार्थ है कि जब तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब उस विदेह परमेश्वर में ध्यान लगता है। उसको प्राप्त करने का नाम जाप मंत्र भी विदेह है यानि विलक्षण है। विदेह नाम को सारनाम, सार शब्द, अमर नाम भी कहते हैं। विदेह परमेश्वर में लगन लगे और नाम भी विदेह हो यानि उसी का सारनाम हो। जब इन दोनों को लख लेगा यानि जान लेगा, सत्य रूप में देख लेगा, तब शंका समाप्त होगी। उस विदेह परमेश्वर (सत्य पुरूष) का ध्यान एक क्षण भी हो जाए, उसकी इतनी कीमत है कि कही नहीं जा सकती। काया के नाम यानि देह धारी (माता के गर्भ से उत्पन्न) राम, कृष्ण, विष्णु, शिव आदि के नाम तो सब जाप करते हैं, परंतु विदेह परमात्मा का सारनाम कोई बिरला ही प्राप्त करता है।
जैसे कि किंवदन्ती (दंत कथा) है कि जो काशी नगर में मरता है, वह स्वर्ग जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि चारों युग तक काशी में निवास करे, परंतु सार शब्द बिना काल के मुख में जाएगा। यदि कोई श्रद्धालु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि धामों पर जाता है, गया जी, द्वारिका, प्रयाग आदि तीर्थों में स्नान करता है, यदि कोई अड़सठ तीर्थों का भ्रमण करता है, यदि कोई (भू) भूमि की परिक्रमा कर लेता है। (गोवर्धन पर्वत की तो बहुत छोटी परिक्रमा है) यानि यदि कोई पृथ्वी की परिक्रमा भी क्यों न कर आए, वह भी व्यर्थ है क्योंकि सार शब्द के बिना जीव का भ्रम समाप्त नहीं होता अर्थात् सार शब्द से जीव का मोक्ष हो सकता है। अन्य उपरोक्त साधना शास्त्रा विरूद्ध होने के कारण मोक्षदायक नहीं हैं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 11 का सारांश:-
सारशब्द (सार नाम) से लाभ
सारनाम पूर्ण सतगुरू से प्राप्त होता है। नाम प्राप्त करने से सतलोक की प्राप्ति होती है। धर्मराय (ज्योति स्वरूपी निरंजन अर्थात् काल ब्रह्म) भी सार शब्द प्राप्त भक्त के सामने नतमस्तक हो जाता है। सार शब्द की शक्ति के सामने काल ब्रह्म टिक नहीं पाता क्योंकि सार शब्द विदेह परमेश्वर कबीर जी का है। इसलिए सार शब्द ही निःअक्षर का स्वरूप है। यह सार नाम (विदेह नाम) अनूप यानि अद्भुत है। सार शब्द तो विदेह है क्योंकि यह विदेह परमेश्वर का जाप मंत्र है। कबीर परमेश्वर विदेह हैं। विदेह-विदेह में भी अंतर होता है। जैसे राजा जनक को भी विदेह कहा जाता है और कबीर परमेश्वर जी भी विदेही हैं। जैसे एक सोने का आभूषण दो कैरेट स्वर्ण से बना है। वह भी स्वर्ण आभूषण कहा जाता है। दूसरा 24 कैरेट स्वर्ण से बना है तो दोनों ही स्वर्ण आभूषण कहलाते हैं, परंतु मूल्य में अंतर बहुत होता है। इसलिए कहा है कि जो अन्य प्रभु हैं (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शिव जी तथा राम-कृष्ण) वे सब पाँच तत्त्व के शरीर में हैं और परमेश्वर कबीर जी यानि सत्य पुरूष का शरीर निःतत्त्व यानि पाँच तत्त्व से रहित है। इसलिए विदेह परमात्मा का सार शब्द जाप मंत्रा है। कहने को तो शब्द बहुत प्रकार के हैं, परंतु सार शब्द से जीव का उद्धार होता है। सतपुरूष का प्रवाना यानि दीक्षा मंत्र सार नाम है और उसका सुमरण भी सार यानि खास विधि से होता है। सार शब्द का जाप बिन जीभ के यानि सुरति-निरति से श्वांस द्वारा स्मरण होता है। यह भक्ति का सहज व यथार्थ मार्ग है और इस साधना को कोई शूरवीर ही करता है। इस साधना से काल मुरझा जाता है यानि काल ब्रह्म कमजोर (बलहीन) हो जाता है। हे धर्मदास! तेरे को सार शब्द की पहचान करा दी है और तेरे को हंस की पदवी प्राप्त करा दी है। सतलोक में जाने के पश्चात् कोई सुमरण जाप नहीं रहता, न वहाँ काल का जाल देखने को मिलता है। वहाँ पर पूर्ण वस्तु है अर्थात् सर्व वस्तुओं का भण्डार है, किसी चीज का अभाव नहीं है। सत्यलोक में एक अनन्त पंखुड़ियों वाला कमल है जो परमेश्वर का आसन है। उस अमर स्थान तथा अमर पुरूष को प्राप्त करने के लिए अजपा जाप की डोर तान दे अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त करने के लिए श्वांस का बिना जीभ के मानसिक जाप किया जाता है, उसको निरंतर कर। जैसे बाण चलाने वाला निशाना लगाते समय तीर को तानकर (कसकर) छोड़ता है। ऐसे नाम के जाप को तान दे। जब अगम अगोचर अर्थात् सबसे ऊपर वाला सर्व श्रेष्ठ सत्य मार्ग परसे यानि प्राप्त हो जाए तो तब वह सूक्ष्म द्वार यानि भंवर गुफा का द्वार दिखाई देता है। अंतरिक्ष में सुन्न स्थान यानि एकांत लोक में प्रकाश दिखाई देता है। वहाँ पर परम पुरूष का निवास है। उस सार शब्द में सुरति (ध्यान) लगाकर वहाँ जाया जाता है। सारशब्द को पहचानकर उसमें सुरति लगाकर भक्त वहाँ जाता है। आदि सुरति अर्थात् सनातन शब्द का ध्यान सत्य पुरूष का है। उसके लिए हे जीव! सोहं शब्द का स्मरण करना, उसी को सोहं जाप कहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सज्जन संत हो, उस सार शब्द को परखो (जाँचो) जो निर्वाण यानि मोक्ष देने वाला है।
सार शब्द जपने की विधि
सारनाम का स्मरण बिना रसना (जीभ) के मन तथा पवन यानि श्वांस के द्वारा किया जाता है। यह अजपा (बिना जीभ से) जाप होता है। इस शब्द को निरखे अर्थात् शब्द की जाँच करे। फिर मन को सत्य ज्ञान का मंथन करके मारो यानि विषय विकारों को हटाओ। सार शब्द की साधना बिना जीभ के बिना आवाज किए की जाती है। इस जाप स्मरण के लिए कर यानि हाथ में माल उठाने की आवश्यकता नहीं यानि माला की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् सार शब्द बिना हाथ में माला लिए निर वारिये यानि बिना माला के निर्वाह कीजिए। निर्वाह का यहाँ अर्थ है प्रयत्न। ऐसे सार शब्द और उसके स्मरण की विधि निरखकर यानि पहचान (जान) कर सत्यलोक जाईये। सत्यलोक में सत्यपुरूष जी के शरीर के एक रोम (बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों के समान है। जो साधक मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में चले गए या जो वहाँ के आदि वासी हैं, उनके शरीर
का प्रकाश 16 सूर्यों के प्रकाश के समान है। सत्यलोक में परमेश्वर के शरीर की शोभा अपार है।
धर्मदास का आनंदोद्गार
धर्मदास जी ने परमेश्वर जी का धन्यवाद किया कि आप जी ने वास्तविक ज्ञान तथा जाप मंत्रा देकर मेरा कष्ट समाप्त कर दिया। मैं आपकी बलिहारी जाऊँ। जैसे चक्षुहीन (अंधे) को आँखें मिल जाएं। उसी प्रकार आपके अमृत वचन सुनकर मुझे हर्ष हो रहा है। आपने मुझ पर अपार कृपा की है।