नारायण दास को काल का दूत बताना - अनुराग सागर

अनुराग सागर पृष्ठ 69 से 110 तक तीन युगों में (सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग) में प्रकट होकर जीवों को शरण में लेने का प्रकरण है। जगन्नाथ मंदिर की स्थापना का गलत वर्णन है। इसमें बहुत मिलवाटी तथा बनावटी वाणी हैं जो गलत हैं। यथार्थ प्रसंग पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 516 तक अध्याय ‘‘कबीर चरित्र बोध’’ के सारांश में।

अनुराग सागर के पृष्ठ 110 से 141 तक परमेश्वर कबीर जी का कलयुग में प्रकट होना, धर्मदास जी को शरण में लेना, 42 वंश तथा 12 पंथों के विषय में वाणियाँ हैं जो कुछ ठीक, कुछ बनावटी हैं। यथार्थ ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक के ज्ञान सागर के सारांश में शीर्षक ‘‘धर्मदास जी की वंश परंपरा के बारे में‘‘ पृष्ठ 77 से 80 तक। अनुराग सागर पृष्ठ 142 से 150 तक सतगुरू की महिमा बताई है।

पृष्ठ 150 से 152 पर कमलों की जानकारी है। सम्पूर्ण कमलों का ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 152 से 161 तक।

पृष्ठ 152 से 155 तक मन के द्वारा पाप कर्म करवाकर जीव को दोषी बनाने के विषय में है।

पृष्ठ 155 से 160 तक सामान्य ज्ञान है।

पृष्ठ 160 से 163 तक संत तथा हंस के लक्षण के बारे में है।

पृष्ठ 115 अनुराग सागर में धर्मदास जी के ज्येष्ठ पुत्रा नारायण दास के विषय में ज्ञान है।

नारायण दास को काल का दूत बताना

अनुराग सागर पृष्ठ 115 का सारांश:-

परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सत्यज्ञान समझाकर तथा सत्यलोक में ले जाकर अपना परिचय देकर धर्मदास जी के विशेष विनय करने पर उनको दीक्षा मंत्रा दे दिये। प्रथम मंत्र में कमलों के देवताओं के जो जाप मंत्रा हैं, वे दिए जाते हैं। धर्मदास जी उन देवों को ईष्ट रूप में पहले ही मानता था, पंरतु अब ज्ञान हो गया था कि ये इष्ट रूप में पूज्य तो नहीं हैं, परंतु साधना का एक अंग हैं। धर्मदास की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने अपने परिवार का कल्याण करना चाहा। धर्मदास जी के साथ उनकी पत्नी आमिनी देवी दीक्षा ले चुकी थी। केवल इकलौता पुत्रा नारायण दास ही दीक्षा बिना रहता था। धर्मदास जी ने परमात्मा कबीर जी से अपने पुत्र नारायण दास को शरण में लेने के लिए प्रार्थना की।

धर्मदास वचन

हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटेउ मोर सकल तन सूला।।
आहि नरायण पुत्रा हमारा। सौंपहु ताहि शब्द टकसारा।।
इतना सुनत सदगुरू हँसि दीन्हा। भाव प्रगट बाहर नहिं कीन्हा।।

भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु जी! आप सर्व प्राणियों के मालिक हैं। मेरे दिल का एक सूल यानि काँटे का दर्द दूर करें। मेरा पुत्र नारायण दास है। उसको भी टकसार शब्द यानि वास्तविक मोक्ष मंत्रा देने की कृपा करें। जब तक नारायण दास आपकी शरण में नहीं आता। तब तक मेरे मन में सूल (काँटे) जैसा दर्द बना है। धर्मदास जी की बात सुनकर परमात्मा अंदर ही अंदर हँसे। हँसी को बाहर प्रकट नहीं किया। कारण यह था कि परमेश्वर कबीर जी तो जानीजान हैं, अंतर्यामी हैं। उनको पता था कि काल का मुख्य दूत मृत्यु अंधा ही नारायण दास रूप में धर्मदास के घर पुत्र रूप में जन्मा है।

कबीर परमेश्वर वचन

धर्मदास तुम बोलाव तुरन्ता। जेहिको जानहु तुम शुद्धअन्ता।।
धर्मदास तब सबहिं बुलावा। आय खसम के चरण टिकावा।।
चरण गहो समरथ के आई। बहुरि न भव जल जन्मो भाई।।
इतना सुनत बहुत जिव आये। धाय चरण सतगुरू लपटाये।।
यक नहिं आये दास नरायन। बहुतक आय परे गुरू पायन।।
धर्मदास सोच मन कीन्हा। काहे न आयो पुत्रा परबीना।।

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अपने पुत्रा को भी बुला ले और जो कोई आपका मित्र या निकटवासी है, उनको भी बुला लो, सबको एक-साथ दीक्षा दे दूँगा। धर्मदास जी ने नारायण दास तथा अन्य आस-पड़ोस के स्त्राी-पुरूषों से कहा कि परमात्मा आए हैं, दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराओ। फिर यह अवसर हाथ नहीं आएगा। यह बात सुनकर आसपास के बहुत से जीव आ गए, परंतु नारायण दास नहीं आया। धर्मदास जी को चिंता हुई कि मेरा पुत्रा क्यों नहीं आया? वह तो बड़ा प्रवीन है। तीक्ष्ण बुद्धि वाला है। धर्मदास जी ने अपने नौकर तथा नौकरानियों से कहा कि मेरे पुत्रा नारायण दास को बुलाकर लाओ। नौकरों ने देखा कि वह गीता पढ़ रहा था और आने से मना कर दिया।

नारायण दास वचन

हम नहिं जायँ पिता के पासा। वृद्ध भये सकलौ बुद्धि नाशा।।
हरिसम कर्ता और कहँ आहि। ताको छोड़ जपैं हम काही।।
वृद्ध भये जुलाहा मन भावा। हम मन गुरू विठलेश्वर पावा।।
काहि कहौं कछु कहो न जाई। मोर पिता गया बौराई।।

भावार्थ:- नारायण दास ने नौकरों से कहा कि मैं पिताजी के पास नहीं जाऊँगा। वृद्धावस्था (बुढ़ापे) में उनकी बुद्धि का पूर्ण रूप से नाश हो गया है। हरि (श्री विष्णु जी) के समान और कौन कर्ता है जिसे छोड़कर हम अन्य किसकी भक्ति करें? पिता जी को वृद्ध अवस्था में जुलाहा मन बसा लिया है। मैंने तो बिठलेश्वर यानि बिट्ठल भगवान (श्री कृष्ण जी) को गुरू मान लिया है। क्या कहूँ? किसके सामने कहने लायक नहीं रहा हूँ। मेरे पिताजी पागल हो गए हैं। नौकरों ने जो-जो बातें नारायण ने कही थी, धर्मदास जी को सुनाई। धर्मदास जी स्वयं नारायण दास को बुलाने गए और कहा कि हे पुत्रा! आप चलो सतपुरूष आए हैं। चरणों में गिरकर विनती करो। अपना कल्याण कराओ। बेटा! फिर ऐसा अवसर हाथ नहीं आएगा। हे भोले बेटा! यह हठ छोड़ दे।

नारायण दास वचन

तुम तो पिता गये बौराई। तीजे पन जिंदा गुरू पाई।।
राम कृष्ण सम न देवा। जाकी ऋषि मुनि लावहिं सेवा।।
गुरू बिठलेश्वर छांडेउ दीता। वृद्ध भये जिंदा गुरू कीता।।

भावार्थ:- नारायण दास ने कहा कि पिता जी! आप तो पागल हो गए हो। तीजेपन यानि जीवन के तीसरे पड़ाव को पार कर चुके हो। 75 वर्ष तक के जीवन को तीसरा पड़ाव कहते हैं। आपने जिन्दा बाबा (मुसलमान संत) गुरू बना लिया। राम जी के समान अन्य कोई प्रभु नहीं है। जिसकी सेवा (पूजा) सब ऋषि-मुनि करते रहे हैं।

धर्मदास वचन

बांह पकर तब लीन्ह उठाई। पुनि सतगुरू के सन्मुख लाई।।
सतगुरू चरण गहो रे बारा। यम के फन्द छुड़ावन हारा।।
तज संसार लोक कहँ जाई। नाम पान गुरू होय सहाई।।

भावार्थ:- धर्मदास जी ने अपने पुत्रा नारायण दास को बाजू से पकड़कर उठाया और सतगुरू कबीर जी के सामने ले आया। हे मेरे बालक! सतगुरू के चरण ग्रहण करो। ये काल की बंद से छुड़ाने वाले हैं। जिस समय संसार छोड़कर सतलोक में जाएंगे तो गुरू दीक्षा सहायता करती है।

नारायण दास वचन

तब मुख फेरे नरायन दासा। कीन्ह मलेच्छ भवन परगासा।।
कहँवाते जिंदा ठग आया। हमरे पितहिं डारि बौराया।।
वेद शास्त्रा कहँ दीन उठाई। आपनि महिमा कहत बनायी।।
जिंदा रहे तुम्हारे पासा। तो लग घरकी छोड़ी आसा।।
इतना सुनत धर्मदासा अकुलाने। ना जाने सुत का मत ठाने।।
पुनि आमिन बहुविधि समझायो। नारायण चित एकु न आयो।।
तब धर्मदास गुरू पहँ आये। बहुविधिते पुनि बिनती लाये।।

भावार्थ:- सतगुरू कबीर जी के सम्मुख जाते ही नारायण दास ने अपना मुख दूसरी ओर टेढ़ा किया और बोला कि पिता जी! आपने मलेच्छ (मुसलमान) को घर में प्रवेश करवाया है। धर्म भ्रष्ट कर दिया है। यह जिंदा बाबा ठग कहाँ से आया। मेरे पिता को बहका दिया है। इसने वेद-शास्त्रों को तो एक और रखा दिया, अपनी महिमा बनाई है। जब तक यह जिन्दा घर में रहेगा, मैं घर में नहीं आऊँगा। अपने पुत्रा की इतनी बातें सुनकर धर्मदास व्याकुल हो गया कि बेटा पता नहीं क्या कर बैठेगा? फिर नारायण दास की माता जी आमिनी देवी ने भी बहुत समझाया, परंतु नारायण दास के हृदय में एक बात नहीं आई और उठकर चला गया। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु! क्या कारण है। नारायण दास इतना विपरीत चल रहा है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तेरे पुत्रा रूप में काल का दूत आया है। इसका नाम मृत्यु अंधा दूत है। यह मेरी बात को नहीं मानेगा।

विवेचन:- पाठकों से निवेदन है कि अनुराग सागर के पृष्ठ 117 पर ‘‘कबीर वचन‘‘ जो पंक्ति 15 नं. 22 अंतिम तक तथा पृष्ठ 118 तथा पृष्ठ 123 तक वाणियां बनावटी तथा मिलावटी हैं। यह धर्मदास जी के बिंद (परिवार वाले) महंतों ने नाश कर रखा है क्योंकि जिन 12 पंथों का यहाँ वर्णन है वह ‘‘कबीर बानी‘‘ अध्याय में कबीर सागर में पृष्ठ 134 पर लिखे प्रथम अंश से नहीं मिलता। उसमें लिखा है कि प्रथम अंश उत्तम यानि चूड़ामणी (मुक्तामणी) नाम साहेब के विषय में कहा है। यदि काल के बारह (12) पंथों में प्रथम उत्तम है तो नारायण दास प्रथम पंथ का प्रवर्तक नहीं हो सकता क्योंकि नारायण दास ने तो कबीर जी का मार्ग ग्रहण नहीं किया था। वे तो अंतिम समय तक श्री कृष्ण जी के पुजारी रहे थे। अपने छोटे भाई चूड़ामणी जी के दुश्मन बन गए थे। चूड़ामणी जी तो बाँधवगढ़ त्यागकर कुदुर्माल गाँव चले गए थे। नारायण दास ने बाँधवगढ़ में श्री
कृष्ण जी का आलीशान मंदिर बनवाया था। श्री चूड़ामणी जी के कुदुर्माल जाने के कुछ वर्ष पश्चात् बाँधवगढ़ नगर भूकंप से नष्ट हो गया था। उसमें सब श्री कृष्ण पुजारी वैश्य रहते थे जैसे हरियाणा में अग्रोहा में हुआ था। बाद में उसी बाँधवगढ़ में श्री कृष्ण मंदिर बनाया गया है जो वर्तमान में विद्यमान है और उसको केवल जन्माष्टमी पर सरकार की देखरेख में तीन दिन दर्शनार्थ खोला जाता है। शेष समय में केवल सरकारी पुजारी मंदिर में पूजा करता है। कारण यह है कि उस स्थान पर खुदाई करना मना है। पहले खुदाई में बहुत व्यक्तियों को बहुत सोना-चाँदी हाथ लगा था। बाद में सरकार ने अपने कब्जे में ले रखा है। उस मंदिर का इतिहास नारायण दास सेठ से प्रारम्भ होता है। (यह वहाँ का पुजारी तथा वहाँ के उपासक बताते हैं।) धर्मदास जी के सर्व धन-संपत्ति पर नारायण दास ने कब्जा कर लिया था। श्री चूड़ामणी नाम साहेब तो परमेश्वर कबीर जी के भेजे परम हंस थे। उनका उद्देश्य धन-संपत्ति संग्रह करना नहीं था। परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का प्रचार करना था तथा परमेश्वर कबीर जी के वचन अनुसार धर्मदास का वंश चलाना था जो बयालीस (42) पीढ़ी तक चलेगा। वर्तमान में चैदहवीं पीढ़ी चल रही है। चूड़ामणी की वंश गद्दी परंपरा में छठी पीढ़ी वाले ने वास्तविक भक्ति विधि तथा भक्ति मंत्र त्यागकर काल के 12 पंथों में भी पाँचवां टकसारी पंथ है, उसके बहकावे में आकर टकसारी पंथ वाली आरती-चैंका तथा पाँच नाम (अजर नाम, अमर नाम, अमीनाम आदि-आदि) शुरू कर दिये थे जो वर्तमान में दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में गद्दी परंपरा वाले चैदहवें महंत श्री प्रकाश मुनि नाम साहेब प्रदान कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए अनुराग सागर के पृष्ठ 138 से पृष्ठ 142 तक विस्तृत ज्ञान पढ़ें आगे।
 

Sat Sahib