अनुराग सागर के पृष्ठ 13 का सारांश

छन्द

आदि उत्पत्ति कहो सतगुरू, कृपाकरी निजदास को।।
बचन सुधा सु प्रकाश कीजै, नाश हो यमत्रासको।।
एक एक विलोयबर्णहु, दास मोहि निज जानिकै।।
सत्य वक्ता सदगुरू तुम, कहूँ मैं निश्चय मानिकै।।
सोरठा-निश्चय बचन तुम्हार, मोहिं अधिक प्रियताहिते।।
लीला अगम अपार, धन्यभाग दर्शन दिये।।

भावार्थ:- धर्मदास जी ने कहा कि हे सतगुरू जी! आप सत्य वक्ता हैं। जो स्पष्ट वचन आपने कहे हैं, किसी ने नहीं कहे। मुझे अपना दास जानकर एक-एक वचन विलोकर यानि पूर्ण विस्तार से बताऐं। मेरे धन्य भाग हैं कि मुझे आपके दर्शन हुए।

कबीर वचन

धर्मदास अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
अब तुम सुनहु आदिकी बीनी। भाषों उत्पत्ति प्रलय निशानी।।

सृष्टि के आदि में क्या था?

तब की बात सुनहु धर्मदासा। जब नहीं महि पाताल आकाशा।।
जब नहिं कूर्म बराह और शेषा। जब नहिं शारद गौरि गणेशा।।
जब नहिं हते निरंजन राया। जिन जीवन कह बांधि झुलाया।।
तेतिस कोटि देवता नाहीं। और अनेक बताऊ काहीं।।
ब्रह्मा विष्णु महेश न तहिया। शास्त्रा वेद पुराण न कहिया।।
तब सब रहे पुरूष के माहीं। ज्यों बट वृक्ष मध्य रह छाहीं।।

छन्द

आदि उत्पत्ति सुनहु धर्मनि, कोइ न जानत ताहिहो।।
सबहि भो बिस्तर पाछे, साख (गवाही) देउँ मैं काहि हो।।
बेद चारों नाहिं जानत, सत्य पुरूष कहानियाँ।।
वेद को तब मूल नाहीं, अकथकथा बखानियाँ।।
सोरठा-निराकरतै वेद, आदिभेद जाने नहीं।।
पण्डित करत उछेद, मते वेद के जग चले।।

भावार्थ:- अनुराग सागर के पृष्ठ 13 की 7वीं पंक्ति से 20वीं पंक्ति में अंकित चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! तू इस तत्त्वज्ञान को सुनने का अधिकारी मिला है। इसलिए तेरे को यह ज्ञान बताया। अब तेरे को आदि यानि प्रारम्भ की रचना का ज्ञान करवाता हूँ।

सृष्टि की आदि में क्या था?

हे धर्मदास! उस समय की बात सुन, जिस समय न तो पृथ्वी थी, न आकाश तथा पाताल बने थे। न तब कूर्म, शेष, बराह थे, न शारदा, पावर्ती तथा गणेश की उत्पत्ति हुई थी। उस समय ज्योति स्वरूपी काल निरंजन भी नहीं जन्मा था जिसने जीवों को कर्मों के बंधन में बाँध रखा है। और क्या बताऊँ उस समय न तो तैंतीस करोड़ देवता थे, न ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जन्म हुआ था। तब न चारों वेद थे, न पुराण आदि शास्त्रा थे।

तब सब रहे पुरूष के मांही। ज्यों वट वृक्ष मध्य रहे बीज में छुपाई।।

उस समय सर्व रचना परमेश्वर यानि सत्यपुरूष के अंदर थी। जैसे वट वृक्ष (बड़ का वृक्ष) बीज में (जो राई के दाने के समान होता है) छुपा होता है। ऐसे सर्व रचना परमेश्वर में बीज रूप में रखी थी। परमेश्वर को भगलीगर भी कहा जाता है। जैसे एक जादूगर (भगलीगर) अपने मुख में एक काँच की छोटी-सी गोली डालता है। फिर मुख से आधा किलोग्राम का पत्थर निकाल देता है। इसी प्रकार परमात्मा ने सर्व रचना अपने वचन से अपने शरीर के अंदर से बाहर निकाली है। हे धर्मनि! आदि यानि सर्वप्रथम वाली रचना सुनाता हूँ जिसको कोई नहीं जानता और जो मैं बताने जा रहा हूँ, उसका साखी यानि साक्षी (गवाह) किसे बनाऊँ क्योंकि सब उपरोक्त देवता तथा पृथ्वी-आकाश आदि-आदि बाद में उत्पन्न किए हैं। आदि की उत्पत्ति का स्पष्ट वर्णन वेदों में भी नहीं है। वेद भी सत्यपुरूष की सत्य कथा को नहीं जानते। जो चार वेद काल निरंजन (जिसे भूल से निराकार मानते हैं) के श्वांसों से निकले थे। काल ने वेद का सत्यज्ञान वाला भाग नष्ट कर दिया था। शेष भाग को ऋषि कृष्ण द्वैपायन (जिसे वेदव्यास कहते हैं) ने बेद को चार भागों में बाँटा तथा कागज के ऊपर लिखा। वेदों वाला अधूरा ज्ञान है। उसी ज्ञान को पंडितजन जनता में सुनाते हैं। जिस कारण से सर्व मानव वेदों के अनुसार साधना करने लगे हैं।

Sat Sahib