(अनुराग सागर के पृष्ठ 14 से वाणियाँ)
सृष्टि की उत्पत्ति (सत्य पुरूष द्वारा की गई रचना)
सत्य परूष जब गुप्त रहाये। कारण करण नहीं निरमाये।।1
समपुट कमल रह गुप्त सनेहा। पुहुप माहिं रह पुरूष विदेहा।।2
इच्छा कीन्ह अंश उपजाये। हंसन देखि हरष बहुपाये।।3
प्रथमहिं पुरूष शब्द परकाशा। दीप लोक रचि कीन्ह निवासा।।4
चारि कर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप दीपकर चीन्हा।।5
पुरूष कला धरि बैठे जहिया। प्रगटी अगर वासना तहिया।।6
सहस अठासी दीप रचि राखा। पुरूष इच्छातैं सब अभिलाखा।।7
सबै द्वीप रह अगर समायी। अगर वासना बहुत सुहायी।।8
भावार्थ:- वाणी नं. 1:- सत्यपुरूष अर्थात् अविनाशी परमेश्वर गुप्त रहते थे। उस समय कुछ भी रचना नहीं की थी।
वाणी नं. 2:- एक असंख्य पंखुड़ी का कमल का फूल था। उसके ऊपर परमेश्वर विराजमान थे। परमात्मा विदेह हैं, निराकार नहीं हैं। विदेह का अर्थ शरीर रहित यहाँ नहीं है। जैसे धर्मदास जी को कबीर परमेश्वर जी ने कहा था कि मैं विदेह हूँ। इसलिए आपका भोजन नहीं खाऊँगा। धर्मदास जी ने कहा कि आप जी का शरीर मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। आप बातें कर रहे हो। वस्त्रा पहने हुए हो। आपकी एक जिंदा बाबा वाली वेशभूषा है। आप अपने आपको विदेह कह रहे हो। यह भेद समझाओ। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरे हाथों को छूकर देख। धर्मदास जी ने परमेश्वर जी के चरण छूए तो रूई जैसे नरम (मुलायम) थे। धर्मदास जी हैरान थे। तब परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व से (नर-मादा से) निर्मित नहीं है। इसलिए मैं विदेही हूँ यानि मेरा विलक्षण शरीर है। विदेही का अर्थ है भिन्न शरीर। जैसा कि वाणी नं. 2 में कहा है कि परमात्मा कमल पुष्प पर विराजमान थे।
वाणी नं. 3:- स्वेच्छा से अंश उत्पन्न किए। उनको देखकर अति प्रसन्न हुए।
वाणी नं. 4:- सर्व प्रथम (कमल पुष्प पर बैठे-बैठे) परमेश्वर ने एक वचन से सर्व लोकों तथा द्वीपों की रचना की। फिर उन लोकों में स्वयं निवास किया और द्वीपों में अपने अंश यानि वचन से उत्पन्न पुत्रों को रहने की आज्ञा दी।
सर्व प्रथम सत्य पुरूष जी ने ऊपर के चार अविनाशी लोकों की रचना की। 1ण् अकह (अनामी) लोक 2ण् अगम लोक 3ण् अलख लोक 4ण् सत्यलोक।
वाणी नं. 5:- चारिकर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप द्वीपर कर चीन्हा।।
भावार्थ:- इन चारों लोकों की रचना करके परमेश्वर जी ने प्रत्येक लोक में कमल के फूल के आकार के सिंहासन की रचना की।
वाणी नं. 6:- उन चारों लोकों में एक-एक कमल पुष्पनुमा सिंहासन की रचना करके पुरूष (सत्य पुरूष) के रूप में यानि एक सम्राट के समान मुकुट पहनकर ऊपर छत्रा तानकर महाराजाओं की तरह बैठ गए।
उसके पश्चात् आगे की रचना की इच्छा प्रकट हुई। फिर अठासी हजार द्वीपों की रचना की।
सोलह पुत्रों (सुतों) को उत्पन्न करना
दुजे शब्द भयेजु पुरूष प्रकाशा। निकसे कूर्मचरण गहि आशा।।9
तीजे शब्द भयेजु पुरूष उच्चारा। ज्ञान नाम सुत उपजे सारा।।10
टेकी चरण सम्मुख ह्नै रहेऊ। आज्ञा पुरूष द्वीप तिन्ह दएऊ।।11
चैथे शब्द भये पुनि जबहीं। विवेकनाम सुत उपजे तबहीं।।12
आप पुरूष किये द्वीप निवासा। पंचम शब्द सो तेज प्रकासा।।13
पांचवे शब्द जब पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भी औतारा।।14
तेज अंगते काल ह्नै आवा। ताते जीवन कह संतावा।।15
जीवरा अंश पुरूष का आहिं। आदि अंत कोउ जानत नाहीं।।16
छठे शब्द पुरूष मुख भाषा, प्रगटे सहजनाम अभिलाषा।।17
सतयें शब्द भयो संतोषा। दीन्हो द्वीप पुरूष परितोषा।।18
अठयें शब्द पुरूष उचारा। सुरति सुभाष द्वीप बैठारा।।19
नवमें शब्द आनन्द अपारा। दशयें शब्द क्षमा अनुसारा।।20
ग्यारहें शब्द नाम निष्कामा। बारहें शब्द जलरंगी नामा।।21
तेरहें शब्द अचिंत सुत जाने। चैदहें शब्द सुत प्रेम बखाने।।22
पन्द्रहें शब्द सुत दीन दयाला। सोलहें शब्द में धैर्य रसाला।।23
सत्राहवें शब्द सुतयोग संतायन। एक नाल षोडषसुत पायन।।
शब्दहिते भयो सुतन अकारा। शब्दते लोक द्वीप विस्तारा।।
अग्र अभी दिव्य अंश अहारा। द्वीप द्वीप अंशन बैठारा।।
अंशन शोभा कला अनन्ता। होत तहां सुख सदा बसन्ता।।
अंशन शोभा अगम अपारा। कला अनन्त को वरणै पारा।।
सब सुत करें पुरूष को ध्याना। अमी अहार सदासुख माना।।
याही बिधि सोलह सुत भेऊ। धर्मदास तुम चितधरि लेऊ।।
द्वीप करी को अनंत शोभा, नहि बरणतसो बने।।
अमितकला अपार अद्भुत, सुनत शोभा को गिने।।
पुरके उजियार से सुन, सबै द्वीप अजो रहो।।
सत पुरूष रोम प्रकाश एकहि, चन्द्र सूर्य करोर हो।।
सोरठा-सतगुरू आँन धाम, शोकमोहदुःख तहँ नहीं।।
हंसन को विश्राम, पुरूष दरश अँचवन सुधा।।
भावार्थ:- पंक्ति नं. 9 में कहा कि परमात्मा ने दूसरे शब्द से कूर्म की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 10 से 13 तक कहा है कि तीसरे शब्द से ज्ञान नामक पुत्रा उत्पन्न हुआ। चैथे शब्द से विवेक नामक, पाँचवे शब्द से तेज नामक पुत्रा उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात् पंक्ति नं. 14ए 15ए 16 बनावटी यानि झूठी हैं क्योंकि पंक्ति नं. 13 में वाणी स्पष्ट करती है। आप पुरूष रहे द्वीप निवासा। पंचम शब्द तेज प्रकाश।।
भावार्थ है कि परमात्मा ने स्वयं अपने द्वीप में बैठे-बैठे वहाँ से पाँचवां शब्द उच्चारण करके पाँचवां पुत्रा तेज उत्पन्न किया।
पंक्ति नं. 14:- पाँचवे शब्द पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भो अवतारा।।
पंक्ति नं. 15:- तेज अंग ते काल ह्नै आया। ताते जीवन कहै सतावा।।
पंक्ति नं. 16:- जीवरा अंश पुरूष का आही। आदि अंत कोई जानत नाहीं।।
भावार्थ पंक्ति नं. 14 से 16 तक बनावटी वाणी बनाकर अज्ञानता स्पष्ट की है। जब 13वीं पंक्ति में स्पष्ट है कि पाँचवें शब्द से परमात्मा ने तेज की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 14 से 16 में यह कहना कि तेज से काल निरंजन का जन्म हुआ, कितनी मूर्खता है। काल निरंजन को तेज का पुत्रा सिद्ध कर दिया जो गलत है। इस प्रकार तो तेरह सुत बनते हैं जो गलत है। दूसरा प्रमाण यह है कि पंक्ति नं. 9 से 13 तथा 17 से 23 तक अनुराग सागर के पृष्ठ 14 में तथा पृष्ठ नं. 15 पर प्रथम पंक्ति में प्रत्येक पुत्रा के विषय में एक-एक वचन से उत्पत्ति कही है। तो पंक्ति नं. 13 में स्पष्ट है तेज की उत्पत्ति पाँचवे शब्द से परमेश्वर जी ने की। फिर तेज से काल निरंजन की उत्पत्ति बताना बनावटी वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वास्तव में परमेश्वर जी ने 17 वचनों से रचना की जो प्रथम चरण में की थी। एक वचन से सर्व लोक तथा लोकों में भिन्न-भिन्न द्वीप बनाए। फिर 16 वचनों से 16 पुत्रों की रचना की। दूसरे चरण में अक्षर पुरूष को मान सरोवर में सोये हुए को जगाने तथा निकालने के लिए सत्यपुरूष जी ने अमृत जल से एक अण्डा वचन से बनाया तथा उस अण्डे में वचन से एक आत्मा प्रवेश की। अण्डे का आकार बहुत बड़ा था। उसको सरोवर के जल में छोड़ दिया। उसकी गड़गड़ाहट की आवाज सुनकर अक्षर पुरूष निन्द्रा से जागा और अण्डे की और कोप से देखा। उस क्रोध से अण्डा फूट गया। उसमें से ज्योति निरंजन यानि काल निरंजन निकला। उन दोनों (अक्षर पुरूष तथा काल निरंजन) जिनको गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष कहा है) को अचिन्त के द्वीप में रहने की आज्ञा दी। फिर काल निरंजन ने तीन बार (सत्तर युग, सत्तर युग तथा 64 युग) तपस्या करके यह इक्कीस ब्रह्माण्ड का क्षेत्रा प्राप्त किया। विस्तृत सृष्टि रचना कृपा पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक। यदि प्रमाण देखना है तो कबीर सागर के अध्याय स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 90 से 92 तक तथा सर्वज्ञ सागर के पृष्ठ 137 तथा अध्याय कबीर बानी के पृष्ठ 117, 119 तथा 123 पर पढ़ें। काल निरंजन की उत्पत्ति अण्डे से हुई थी।
अनुराग सागर पृष्ठ 12 से 68 का सारांश
अनुराग सागर अध्याय में पृष्ठ 12 से 68 तक सृष्टि की रचना तथा काल के साथ वार्ता संबंधी अमृत ज्ञान है। यथार्थ रूप से सृष्टि रचना का ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक में अंदर लिखे पृष्ठ 603 से 670 तक।