कबीर परमेश्वर जी के वचन
धर्मदास तुम अंस अंकुरी। मोहि मिलेउ कीन्हे दुख दूरी।।
जस तुम कीन्हे मोसंग नेहा। तजि धन धामरू सुत पितु गेहा।।
आगे शिष्य जो अस विधि करि हैं। गुरू चरण मन निश्चल धरि हैं।।
गुरू के चरण प्रीत चित धारै। तन मन धन सतगुरू पर वारै।।
सो जिव मोही अधिक प्रिय होई। ताकहँ रोकि सकै नहिं कोई।।
शिष्य होय सरबस नहीं वारे। हृदय कपट मुख प्रीति उचारे।।
सो जिव कैसे लोग सिधाई। बिन गुरू मिलै मोहि नहिं पाई।।
पृष्ठ 12 का भावार्थ:- इन चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा कि हे धर्मदास! आप हमारे अंकुरी हंस हो। {अंकुरी का अर्थ है जो पूर्व जन्म का उपदेशी होता है और वह किन्हीं कारणों से मुक्त नहीं हो पाता है। उसको अंकुरी हंस कहते हैं। जैसे चनों को पानी में भिगो दिया जाता है तो सुबह तक या एक-दो दिन में उनमें अंकुर निकल आते हैं। कुछ किसान चनों को बीजने से एक दिन पहले पानी छिड़क देते हैं। फिर वह अंकुरित चना शीघ्र उग जाता है। इसी प्रकार पूर्व का उपदेशी प्राणी (स्त्राी-पुरूष) शीघ्र ज्ञान ग्रहण करके भक्ति पर लग जाता है। इसलिए परमेश्वर ने धर्मदास जी को अंकुरी हंस कहा है।} आप मेरे को मिले तो तेरा दुःख दूर कर दिया है। जैसे आपने मेरे साथ प्रेम भाव किया है। आपने अपने परिवार तथा धन को त्यागकर मेरे अंदर पूर्ण आस्था और सच्चा प्रेम किया है। भविष्य में यदि कोई भक्त मेरे भेजे अंश से जो सतगुरू होगा, उससे ऐसे ही भाव करेगा। मन को निश्चल करके गुरू के चरणों में धरेगा। जो सतगुरू के ऊपर तन-मन-धन न्यौछावर करेगा, वह जीव मेरे को अधिक प्रिय होगा। उसको सत्यलोक जाने से कोई नहीं रोक सकता। यदि शिष्य होकर समर्पित नहीं होता और हृदय में छल रखता है, ऊपर से दिखावा प्रेम करता है। वह प्राणी सत्यलोक कैसे जा सकेगा क्योंकि गुरू के मिले बिना यानि गुरू के साथ परमात्मा जैसा लगाव किए बिना मुझे (कबीर परमेश्वर जी) को नहीं प्राप्त कर सकता।
उदाहरण:- जैसे गणित के अंदर एक ऋण का प्रश्न आता है, उसमें मूलधन ज्ञात करना होता है। उसमें मानना होता है कि मान लो मूलधन सौ रूपये। वास्तविक मूलधन करोड़ों रूपये की राशि होती है। परंतु पहले सौ रूपये मूलधन माने बिना वह वास्तविक मूलधन नहीं मिल सकता। इसी प्रकार इस अंतिम वाणी का भावार्थ है।
धर्मदास वचन
यह तो प्रभु आप ही कीन्हा। नहीं मैं तो हतो बहुत मलीना।।
करके दया प्रभु आप ही आये। पकड़ि बांह प्रभु काल सों छुड़ाये।।
सृष्टि उत्पत्ति विषय प्रश्न तथा विवेचन
अब साहब मोंहि देउ बताई। अमर लोग सो कहां रहाई।।
लोक दीप मोहिं बरनि सुनावहु। तृषनावन्तको अमी पियावहुै।।
कौन द्वीप हंसको वासा। कौन द्वीप पूरूष रह वासा।।
भोजन कौन हंस तहँ करई। और बानी कहँ पुनि उच्चरई।।
कैसे पूरूष लोक रचि राखा। द्वीपहिं कर कैसे अभिलाखा।।
तीन लोक उत्पत्ती भाखो। वर्णहुसकल गोय जनि राखो।।
काल निरंजन केहि विधि भयऊ। कैसे षोडश सुत निर्मयऊ।।
कैसे चार खानि बिस्तारी। कैसे जीव कालवश डारी।।
कैसे कूर्म शेष उपराजा। कैसे मीन बराहहिं साजा।।
त्राय देवा कौन विधि भयऊ। कैसे महि अकाश निरमयऊ।।
चन्द्र सूर्य कहु कैसे भयऊ। कैसे तारागण सब ठयऊ।।
किहि विधि भइ शरीर की रचना। भाषो साहब उत्पत्ति बचना।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनयपूर्वक अति आधीन होकर प्रश्न किया कि हे परमेश्वर! कृपा करके मुझे यह बताईये कि वह अमर लोक कहाँ पर है?
धर्मदास जी ने वही भूमिका की जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है। गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा कि हे अर्जुन! यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक ज्ञान (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानंद घन परमेश्वर अपने मुख कमल से उच्चारण करके वाणी में बताता है। जिसे तत्त्वज्ञान कहते हैं। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।(अध्याय 4 श्लोक 32) उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से वे परमात्म तत्त्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।(अध्याय 4 श्लोक 34)
यहाँ पर दोनों ही अभिनय स्वयं परमेश्वर कबीर जी कर रहे हैं। वे सच्चिदानंद घन ब्रह्म भी हैं और उस समय तत्त्वदर्शी संत यानि सतगुरू का अभिनय भी कर रहे थे। धर्मदास जी अत्यधिक विनम्र व्यक्ति थे। सूक्ष्मवेद में कहा है:-
अति आधीन दीन हो प्राणी। वाकु कहना यह अकथ कहानी।।
जज्ञासु से कहिए ही कहिए। अन् ईच्छुक को भेद ना दीये।।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि:-
धर्मदास तू अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
धर्मदास जी ने विनम्र भाव से पूछा कि हे परमेश्वर! मुझे बताऐं वह अमर लोक कहाँ पर है? जो सत्यलोक और द्वीप आपने बताए हैं, उनको विस्तार से बताने की कृपा करें। किस द्वीप में हंस (मुक्त जीव) रहते हैं? परमेश्वर (सत्य पुरूष) का निवास किस लोक में है? सतलोक में जो भक्त रहते हैं, वे कैसा भोजन खाते हैं? कैसी भाषा बोलते हैं यानि प्यार से रहते हैं या यहाँ की तरह छल-कपट तथा गाली-गलौच करते हैं? परमेश्वर ने कैसे लोक की रचना कर रखी है? द्वीपों की रचना करने की कैसे अभिलाषा (प्रेरणा) हुई? तीन लोकों की रचना कैसे की, वह बताऐं? मेरे से कुछ न छुपाऐं। सब वृंतान्त सुनायें। काल निरंजन की उत्पत्ति कैसे हुई? सोलह पुत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे चार खानि बनाई? किस प्रकार जीव काल के जाल में फँसे? कूर्म तथा शेष की उत्पत्ति कैसे हुई? मीन, बरहा तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे मही (पृथ्वी) तथा आकाश रचे? सूर्य, चाँद तथा तारों की रचना कैसे की? हे परमात्मा! शरीर आदि की रचना सहित सर्व ज्ञान सुनाओ ताकि मेरे मन की शंका समाप्त हो जाए।